बात 3 साल पहले की है. मेरी बेटी वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान से एमबीए कर रही थी. दीवाली की छुट्टियों के बाद वापस जयपुर जा रही थी. टे्रन लेट होने के कारण जयपुर से वनस्थली के लिए आखिरी बस छूट सकती थी. मेरी बेटी ने हमें फोन किया कि उस के साथ 3 लड़कियां और हैं, समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें. तब मेरे पति ने जयपुर बस स्टौप पर फोन किया. 15 मिनट बस रोक कर उन से बच्चों की मदद के लिए कहा. बस कुछ देर के लिए रोक दी गई. कुछ देर बाद मेरी बेटी और लड़कियां जल्दी बस में चढ़ीं. तब कंडक्टर ने कहा, ‘‘आप में से किसी के पापा ने हमें फोन कर के आप लोगों के लिए बस रुकवाई थी.’’ तब मेरी बेटी ने बताया कि उस के पापा ने उन्हें फोन किया था. बस कंडक्टर और ड्राइवर की सहृदयता के कारण बच्चे वनस्थली सकुशल पहुंच गए. हम ने दिल से उन्हें धन्यवाद दिया.

माया कनौजिया, लखनऊ (उ.प्र.)

पहली कक्षा से ले कर 12वीं कक्षा तक टौप करने वाली मेरी बेटी आईआईटी, रुड़की और बिहार के इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं में असफल रही. हालांकि बिहार इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में 90 फीसदी अंक पर ही चयन हुआ था और उस ने तीनों पेपर फिजिक्स, कैमिस्ट्री व मैथ्स में 90 फीसदी से ऊपर प्रश्नों के ठीकठीक उत्तर लिखे थे. तब बिहार में प्रतिभाशाली व योग्य विद्यार्थियों की प्रतिभा से खिलवाड़ कर के, जनरल सीटों को लाखों रुपए में बेच दिया जाता था. तभी आशा के विपरीत कोलकाता के लेडी बारबौर्न कालेज में चयन होने पर हम ने उस का दाखिला फिजिक्स औनर्स में करवा दिया जहां से वह 4 दिन बाद ही, पढ़ाई का माध्यम बंगला होने के कारण, वापस आ गई थी.हम सभी मानसिक रूप से परेशान थे. घर में चारों ओर उदासी का सन्नाटा बिखर गया था. मेरी बेटी ने अपने खोए हुए आत्मविश्वास को फिर से किसी प्रकार सहेजते हुए परिस्थितियों से समझौता कर, अगले साल की तैयारी का निश्चय किया. वह जोरजोर से रोते हुए स्डटीटेबल पर किताबकौपी संभाल रही थी.

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