क्रिसमस पर हम लोग गोआ घूमने गए. वहां के प्रसिद्ध चर्च को देख कर निकले ही थे कि सामने जमीन पर बैठा एक बच्चा हाथ में सूखी रोटी ले कर बड़े स्वाद से खा रहा था. मन करुणा से भर उठा. कुछ दूर जा कर हम फिर मौजमस्ती में मशगूल हो गए. शाम तक घूमतेघूमते इतने थक गए थे कि अपने नियत स्थान से दोबारा निकलने की हिम्मत ही नहीं थी. इसलिए हम ने रास्ते में ही खाना पैक करवाया और अपने स्थान पर वापस आ गए.आधी रात को मेरी नातिन भूख के कारण उठ बैठी और खाना मांगने लगी. मरता क्या न करता, हम ने बचा हुआ खाना उस के सामने रख दिया. रोटी सूख चुकी थी और दाल ठंडी थी. पर ये क्या? एकएक कौर पर नखरे करने वाली वह बच्ची वही सूखी रोटी, ठंडी दालसब्जी के साथ बड़े स्वाद से खाए जा रही थी. मैं उस के मुख पर तृप्ति के भाव देख रही थी. जेहन में उस बच्चे की तसवीर फिर से घूमने लगी और मन सोचने लगा, ‘बेचारा कौन है? गरीबी या भूख, जो अमीर व गरीब सब को बेबस कर देती है.’
मन में एक विचार कौंध गया ‘स्वादिष्ठ नहीं है’, ‘इच्छा नहीं है’ या ‘अच्छा नहीं है’ कह कर कितना अच्छाखासा भोजन हम अपनी थाली में छोड़ देते हैं, जिस से अनगिनत लोगों की भूख शांत हो सकती है.
– बिमला महाजन, पटियाला (पं.)
*
2 साल पहले मैं अपनी दीदी के यहां से भिवाड़ी से जयपुर आ रही थी. मैं कई सालों बाद अकेले सफर कर रही थी. जब कंडक्टर ने रुपए ले कर मुझे टिकट नहीं दिया और मेरे मांगने पर आगे बढ़ गया तो मैं बहुत चिंतित थी कि कहीं चैकिंग के दौरान मुझे बिना टिकट देख कर बस से बाहर न उतार दिया जाए.
मैं अपनी सीट पर अकेली थी, सो मैं बड़ी व्यग्र हो कर अपनी साथ वाली सीट पर बैठे सज्जन से पूछ रही थी कि क्या कंडक्टर टिकट नहीं देते? लेकिन वे सज्जन मुझे जवाब नहीं दे रहे थे और इधरउधर देख रहे थे. इतने में पीछे से एक लड़की बोली, ‘‘आंटी, आप परेशान न हों. आप अपनी अटैची चेन से लौक कर हमारे पास आ जाएं.’’ उस ने मुझे अपने पास बैठा लिया. धीरेधीरे हम खुलते गए. हम ने खूब गपें मारीं. 2 स्टौप पहले वह उतर गई, जातेजाते एक यात्री से रिक्वैस्ट कर गई कि आंटी की अटैची उतरवा देना. बिछुड़ते हुए मेरी आंखें भर आईं. बाकी यात्रा काटनी मुश्किल रही. आज भी हमारा यह रिश्ता कायम है. एकदूसरे को त्योहारों पर फोन करते हैं.
– आशा गुप्ता, जयपुर (राज.)