सरित प्रवाह, अप्रैल (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘चमत्कारों से कमाई नहीं होती’ पढ़ी. लालच किया तो लुटना तय है. भले ही वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का प्रोफैसर हो या अनपढ़ रिकशाचालक. एक बुद्धिजीवी का लालचवश अपने 25 लाख रुपए गंवा देने की जो चर्चा आप ने की है और उस पर चिंतन प्रकट किया है उस से पाठकों की आंखें अवश्य खुलेंगी.

सदी चाहे 21वीं हो या पहली, बिना श्रम के पैसे कमाने के तरहतरह के हथकंडे सदियों से अपनाए गए हैं. कुछ टोटकों द्वारा गड़ा धन पाने या तंत्रमंत्र से मालामाल होने की बातें, सभी चमत्कार से जुड़ी हुई हैं. हमारे देश में बिना मेहनत पैसा कमाने की इतनी विधियां मौजूद हैं कि भारत को पश्चिम वालों से अधिक अमीर होना चाहिए था. लेकिन अफसोस, पिछले 2 हजार साल से हम न केवल गुलाम रहे बल्कि हम ने अपने देश को भिखमंगों का देश कहलवाया. इस में शक नहीं कि पैसे बनाने की ये तथाकथित विधियां धर्म के पाखंडियों ने खोजी हैं.
माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)

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ठग कंपनियां

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘सहारा, सेबी, सुप्रीम कोर्ट : शह और मात का खेल’ पढ़ कर ऐसा लगा कि मानो इन जैसी कंपनियों ने भारत की जनता को ठगने की ही ठान ली है. कुबेर जैसी अनेक चिटफंड कंपनियां जनता का न जाने कितना पैसा ले कर फरार हो चुकी हैं. शारदा चिटफंड कंपनी का मुखिया सुदीप्तो सेन, जिस ने जनता के हजारों करोड़ रुपए डकार लिए, आखिरकार कानून के फंदे में फंस ही गया. प्रश्न यहां पर यह उठता है कि जनता चिटफंड कंपनियों के जाल में फंसती ही क्यों है, क्या वह इतनी ही भोली है. अगर वह भोली है तो उस के भोलेपन का गलत फायदा उठाना अनैतिक है और उस के पैसों को डकार लेना घोर अपराध है.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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