सियासी युवाओं के लिए साल की शुरुआत अच्छी नहीं हुई. अखिलेश यादव, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल दुखी हैं. पर उन से पहले दुख का पहाड़ मनसे प्रमुख राज ठाकरे पर टूटा था जब बीएमसी चुनावों में उन की पार्टी को खाता खोलने के भी लाले पड़ गए. चाचा बाल ठाकरे के जमाने में राज ठाकरे शेर सा दहाड़ते थे और मुंबई के राजा नहीं, तो उपराजा तो वे थे ही.
पारिवारिक बैर क्यों अच्छा नहीं होता, यह बात करने की कम, अनुभव करने की ज्यादा है जो उन्हें अब महसूस हो रहा है. शर्म के चलते वे एकदम से उद्धव ठाकरे की शरण में वापस जा भी नहीं सकते जिन्होंने खुद को साबित करने में कामयाबी पा ली. राज उद्धव के पास जाएंगे या नहीं, इस से ज्यादा अहम बात यह है कि उद्धव उन्हें आने देंगे या नहीं.
जब शिवसेना अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी तब उस की राह में कांटे बिछाने वालों में राज ठाकरे प्रमुख थे. साफ दिख रहा है कि राज ठाकरे का राजनीतिक भविष्य अब उद्धव के रहमोकरम पर है. साबित यह भी हो रहा है कि यूपी और बिहार के भइयों को खदेड़ने की धौंस देने की राजनीति का दौर अब लद रहा है.