बात उन दिनों की है जब मैं ने नौकरी करनी शुरू की थी. मैं औफिस के बाद अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए चला जाता था. इसलिए मुझे अकसर घर पहुंचने में देरी हो जाती थी. उन दिनों हमारे घर पर मैसेज देने के लिए टैलीफोन भी नहीं था. एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ घूम कर रात को 12:30 बजे घर पहुंचा तो देखा कि पापा घर के बाहर बेचैनी से इधरउधर घूम रहे हैं.

मुझे देख कर पापा ने पूछा, ‘‘अब तक कहां थे?’’

मैं ने बताया, ‘‘दोस्तों के साथ घूमने के लिए चला गया था लेकिन आप अभी तक क्यों जाग रहे हैं? आप को आराम करना चाहिए था.’’

तब पापा ने मुझ से कहा, ‘‘बेटा, मैं क्यों जाग रहा हूं, इस बात को तुम अभी नहीं समझोगे, जब खुद बाप बनोगे और तुम्हारी औलाद इतनी देर तक घर से बाहर रहेगी तब तुम समझोगे.’’

पापा की इस बात ने मुझे बेचैन कर दिया. अगले दिन सुबह उठ कर मैं ने पापा से माफी मांगी और समय पर घर वापस आने का वादा किया. उस दिन के बाद से मैं समय से घर आने लगा. आज पापा हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन जब भी मैं अपने बच्चों की फिक्र करता हूं तो मुझे पापा की कही हुई बात याद आती है कि ‘तुम इस बात को अभी नहीं समझोगे.’

उमेश कुमार शर्मा, गौतमबुद्धनगर (उ.प्र.)

 

बात 1974 की है. दिल्ली के बनियों, खत्रियों, ब्राह्मणों व रोहतगियों में यह रिवाज था कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु पर स्यापा बैठता था. अर्थात उस घर की स्त्रियां दोपहर लगभग डेढ़ बजे तक दरी बिछा कर बैठ जाती थीं. 2 बजे नातेरिश्ते की स्त्रियां भी आ कर बैठ जाती थीं. शाम के 5 बजे बाहर की स्त्रियां जब चली जाती थीं तब घर की स्त्रियां कुछ खापी सकती थीं. ऐसा बाहरवें दिन तक चलता था.

हमारे दादाजी का जब देहांत हुआ तब हम बहनें काफी छोटी थीं. मम्मी व चाचीजी भी अगर दादीजी के साथ स्यापे में बैठ जातीं तो हम बहनों को कौन देखता. यह सोच कर मेरे पापा व चाचाजी ने इस बात का विरोध करते हुए कहा, ‘‘हमारे यहां स्यापा नहीं बैठेगा.’’

उस समय यह एक बहुत बड़ा फैसला था. रिश्तेदारी में हमारे परिवार की बहुत निंदा हुई. लेकिन दोनों भाई अपनी बात पर डटे रहे. कुछ साल बाद सभी ने इस बात को स्वीकार किया कि वह फैसला समय के साथ लेना आवश्यक था. उस दौरान परंपरा को तोड़ कर मेरे पापा ने समाज की परवा किए बगैर जो फैसला लिया वह सराहनीय था. ऐसे थे मेरे पापा.

अनुभा रोहतगी, प्रियदर्शनी विहार (दिल्ली)

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