गरमी की छुट्टियों में हम दादादादी के पास गांव गए थे. वहां पहुंच कर हम सभी खूब मजे करने लगे. अपने दूर तक फैले खेतों में घूमने जाते. हम दोनों बहनें रेत के टीलों पर मिट्टी के बड़ेबड़े घर बनाने की होड़ लगातीं. हमारी छुट्टियां खत्म होने वाली थीं. मम्मीपापा गांव से वापस शहर लौटने की तैयारी करने लगे थे. हम बच्चे भी अपना ज्यादा से ज्यादा समय गांव की बोली बोलते हुए दादादादी के साथ बिताने लगे थे. एक शाम अचानक पापा के सीने में दर्द की शिकायत हुई. थोड़ा आराम करने पर उन का दर्द ठीक हो गया. सुबह तड़के घर की औरतें विलाप करने लगीं. मैं हड़बड़ा कर उठी. पापा नींद में ही चल बसे, यह बाद में डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिल का दौरा पड़ गया था. जीवन की आपाधापी में कभीकभी मुझे पापा के दोस्त मिल जाते हैं. वे आज भी पापा के गुण गाते हैं. पापा को गए हुए बरसों बीत गए हैं पर ऐसा लगता है कि वे यहीं हैं, हम सब के बीच, हमारे साथ. जब कभी उदास होती हूं तो मुझे लगता है जैसे उन्होंने मेरे सिर पर अपना प्यारभरा हाथ रख कर कहा, ‘चिंता मत करो, मैं हूं न तुम्हारे साथ.’

ज्योति बरडि़या, बेंगलुरु (कर्ना.)

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मेरे पापा रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारी हैं. मैं 12वीं कक्षा में पढ़ती थी. हमारे स्कूल के भौतिकी के व्याख्याता हमारी कालोनी में ही रहते थे. प्रशासनिक कार्यों में सलाह व मदद के लिए कभीकभी मैं ने उन्हें अपने घर आते देखा था. मैं अल्हड़, नादान बालिका, पापा की दोस्ती के मद्देनजर प्रैक्टिकल में सब से ज्यादा अंक की चाह में पापा से यह जिद कर बैठी कि पापा, हमारे सर आप से मदद लेते रहते हैं, आप उन के कितने काम कराते हैं. आप उन से मुझे प्रैक्टिकल में पूरे अंक देने के लिए कहिए न. पापा शांत भाव से मुझे देखते रहे, फिर समझाते हुए बोले, ‘तुम मेधावी छात्रा हो. मेहनत करने से घबराती नहीं, फिर सफलता के लिए सिफारिश जैसे आसान और आधारहीन तरीके को क्यों चुन रही हो. मेरे कहने पर सर तुम्हें पूरे नंबर जरूर दे देंगे लेकिन इस एकदो नंबर की बढ़त से तुम्हारी पूरी मेहनत कलंकित हो कर सिफारिशी कहलाएगी. आवश्यकता हो तो ट्यूशन पढ़ो, थोड़ी और मेहनत करो पर इस तरह से अंक पाने की इच्छा त्याग दो.’ पापा का विश्वास साकार हुआ. मैं क्लास में प्रथम आई. पापा की नेक राह पर चलने की सलाह हमारी हर मुश्किल आसान कर देती है.

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