बचपन में मैं अपने पापा के साथ ‘कानपुर प्राणी उद्यान’ यानी चिडि़याघर घूमने गया. रंगबिरंगे पक्षियों व जीवों को देखने की मन में बड़ी उत्सुकता थी. जैसे ही मैं किसी जीव या पिंजरे के पास पहुंचता, मैं अपनी जेब में रखी मूंगफलियां व खाने की चीजें पिंजरे में फेंकता. अपने पापा के मना करने के बाद भी वही क्रम दोहराता रहा. कुछ देर घूमने के बाद हम लोग एक बैंच पर जा बैठे. पापा मुझे प्यार से समझाते हुए कहने लगे, ‘‘तरहतरह के पक्षी व जीवजंतु यहां इसलिए रखे गए हैं जिस से कि हम यह समझ सकें ये भी हमारी ही तरह इसी पृथ्वी पर रहते हैं, पास से हम इन्हें देख कर अपना ज्ञान बढ़ा सकें. वे हमारी भाषा नहीं जानते लेकिन यहां आने वाला हर व्यक्ति इन्हें कुछ न कुछ खिलाएगा तो ये बीमार हो जाएंगे.’’ पापा की कही बातों का मुझ पर गहरा असर पड़ा. उस दिन से मुझे पशुपक्षियों से बेहद प्यार हो गया. मैं अपने पापा को धन्यवाद देती हूं जिन्होंने मुझे इतनी अच्छी बात सिखाई.

किंशुक कटियार, कानपुर (उ.प्र.)

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मेरे पापा एक आदर्श इंसान थे. हम 3 बहनें और एक सब से छोटा भाई. मेरे पापा के जीवन का एक ही मकसद था कि हम चारों भाईबहन इतना पढ़ें कि जिंदगी की हर मुश्किल का डट कर सामना कर सकें. असल में बचपन में मेरे पापा को पढ़ने का बहुत शौक था. दादाजी के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे तथा न ही उन्हें बच्चों को पढ़ाने का चाव था. सो, मेरे पापा केवल मैट्रिक ही पास कर सके. वे अपना सपना अपने बच्चों को पढ़ा कर साकार करना चाहते थे. वे जीजान से इसी कोशिश में लगे थे कि हम पढ़ें. वे खुश थे क्योंकि उन का सपना सच हो रहा था. मैं और मझली छोटी बहन एमए तथा बीएड कर चुके थे. मझली बहन की शादी भी कर दी. मेरी सब से छोटी बहन एमएससी कर रही थी. भाई 12वीं कक्षा में पढ़ रहा था. सब अच्छा चल रहा था लेकिन 2005 में मेरे पापा का कार दुर्घटना में निधन हो गया. हमारे परिवार पर जैसे दुखों का पहाड़ गिर पड़ा. सचमुच, उन्होंने सारी उम्र हमारी पढ़ाई पर लगा दी. एक समय ऐसा भी था जब आर्थिक हालात बहुत नाजुक हो गए थे, घर तक बेचना पड़ा लेकिन पापा ने हमारी पढ़ाई नहीं रुकने दी. उन्हें गर्व था कि उन के बच्चे पढ़ रहे हैं. जब उन के सुख देखने का समय आया तो वे अब नहीं रहे. पापा को गए वर्षों बीत चुके हैं, पर आज भी दिल चाहता है कि उन से बात करूं. उन को बताऊं कि मैं, आज अपने घर में कितनी खुश हूं.        

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