मेरे दोनों बच्चों की हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में यूजीसी की लिखित परीक्षा एक निजी शिक्षण संस्थान में थी. संस्थान में सुबह 9.30 बजे तक पहुंचना जरूरी था. शिमला के जितने भी ‘पेड पार्किंग स्थल थे उन के आगे ‘पार्किंग फुल’ का बोर्ड टंगा था. मैं ने 2 पार्किंग वालों से अनुरोध किया कि वे मेरी गाड़ी को पार्किंग के लिए जगह दे दें. परीक्षा का समय नजदीक था और हमें यह भी पता नहीं था कि परीक्षाकेंद्र कहां है.

पार्किंग वालों का दिल जरा भी नहीं  पसीजा. रास्ते में हम ने 2 ट्रैफिक पुलिस वालों की मदद लेनी चाही परंतु वे भी अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. हम ने भी हिम्मत नहीं हारी, और दोबारा बस स्टैंड पर स्थित पार्किंग वाले को अपनी दास्तान सुनाई. उस पार्किंग वाले ने तय रेट से थोडे़ ज्यादा रुपए ले कर न केवल हमारी समस्या को सुलझाया बल्कि उस ने परीक्षाकेंद्र तक पहुंचने का हमें शौर्टकट रास्ता भी बताया. 9.30 बजने में 9 मिनट शेष थे, हम तेज गति से चलते हुए परीक्षाकेंद्र तक  पहुंचे. आज भी इस घटना को याद करते हैं तो यह खयाल आता है कि भले ही कुछ लोगों की संवेदनाएं मर गई हों, लेकिन इंसानियत अभी भी जिंदा है. 

प्रदीप गुप्ता

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मनीष गोविल मैमोरियल ट्रस्ट द्वारा संचालित आभा मानव मंदिर, वरिष्ठ नागरिक सेवा सदन, मेरठ में मैं पीआरओ के पद पर कार्यरत हूं. मनीष गोविल का मात्र 29 वर्ष की उम्र में वर्ष 2002 में निधन हो जाने के बाद उन के मातापिता आभा गोविल तथा सुरेश चंद्र गोविल ने उन की याद में इस ट्रस्ट की स्थापना वर्ष 2003 में की. इस समय यहां 20 वृद्ध नागरिक रहते हैं. घटनानुसार, फोन की घंटी बजने पर मैं ने फोन उठाया तब लाइन पर मैडम आभा थीं, बोलीं, ‘‘दीपक, आश्रम के सभी निवासियों तथा स्टाफ का भोजन मेरी ओर से हैं. छोलेभठूरे बनवा लीजिए तथा मिठाई में सफेद रसगुल्ले ले कर मेरे पति पहुंच रहे हैं. टौफियां भी सभी में बंटवा दीजिएगा.’’

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