साहित्य के एक सम्मान समारोह में नाथद्वारा जाना हुआ. कई शहरों से साहित्यकार इस सम्मान समारोह में हिस्सा लेने आए थे. उन में कुछ महिलाएं भी थीं जो वहां पहले भी आ चुकी थीं. रात को सोने से पहले सब ने श्रीनाथजी के मंदिर दर्शन की बात की. मैं ने भी उन के साथ जाने की हामी भर दी. जैसे ही मंदिर के पास की गली में पहुंचे, एक पंडे ने कहा, ‘‘मैडम, मंदिर एक किलोमीटर दूर है, और आगे बहुत भीड़, यदि आप प्रति आदमी 200 रुपए दें तो मैं आप को सीधे दर्शन करवा दूं, आप को भीड़ में धक्के नहीं खाने पड़ेंगे.’’ हम तीनों महिलाओं ने एकदूसरे की तरफ देखा और इशारों में ही निश्चय कर लिया कि नहीं, हम अपनेआप ही दर्शन को जाएंगे.

गली में जैसेजैसे बढ़ते गए, अपंग लोग भीख मांगते दिखाई दिए. छोटेछोटे बच्चे और महिलाएं बड़े पेशेवर तरीके से भीख मांग रहे थे. दूध व फूल वाले भी किसी न किसी तरह से पीछे पड़ कर चढ़ावे के लिए अपना माल बेचने में लगे हुए थे. गली के किनारे कचरे के ढेर लगे थे और बीच में जगहजगह गायों का गोबर पड़ा था. मैं उन से बच कर चल रही थी. आगे देखा एक खुला बरामदा था, जिस में बहुत सारी महिलाओं की भीड़ जमा थी. अधिकतर महिलाएं गांवों या छोटे कसबों से आई थीं. मैं भी अपनी महिला साथियों के साथ वहां जा कर बैठ गई. उस चौक के 2 हिस्से किए गए थे. बीच में ऊंची रेलिंग थी और बड़ा सा गेट था, जिसे ताले से बंद किया गया था.

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