बिना किसी पूर्व सूचना के एक रोज मैं अपनी मामी से मिलने मथुरा से दिल्ली गई थी. हमारे स्वागत में उन्होंने तरहतरह के पकवान बनाए.

दूसरे दिन सूर्यग्रहण था. उन का मानना था कि ग्रहण के पहले बनी खानेपीने की चीजों को फिर से इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता. इसलिए सब के खाना खा लेने के बाद अनिष्ट की आशंका से उन्होंने बची हुई चीजों को फेंक दिया.

दूसरे दिन सूर्यग्रहण देखने के लिए समय से पहले परिवार के सभी सदस्य जग गए. जैसेजैसे ग्रहणकाल का अंत नजदीक आता गया, ग्रहण के अनिष्ट प्रभाव से बचने के लिए सब लोग कीर्तन, जप, हवन आदि में व्यस्त हो गए.

पूजा की समाप्ति तक अन्नजल भी ग्रहण नहीं किया जा सकता था. इसलिए हमें भूखेपेट मथुरा के लिए रवाना होना पड़ा. ऐसी हैं हमारे समाज की अंधविश्वास व आडंबरों की बेडि़यां जिन का कोई अर्थ नहीं.

नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)

मैं एक सरकारी स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्यरत हूं. कुछ वर्ष पूर्व मैं एक ग्रामीण क्षेत्र में स्थित विद्यालय में कार्यरत था. वहां पर अशिक्षा के कारण लोगों में कई प्रकार के अंधविश्वास व्याप्त थे. एक बार गांव में एक बुजुर्ग व्यक्ति की अचानक मृत्यु हो गई. उन की मृत्यु की सूचना उन के पुत्र को फोन से दी गई. गांव की एक मान्यता के अनुसार मातापिता की मृत्यु हो जाने पर उन के पुत्र का खानपान तब तक प्रतिबंधित रहता था जब तक कि मृतक का अंतिम संस्कार संपन्न न हो जाए.

गांव के मृत व्यक्ति का पुत्र मधुमेह रोग से पीडि़त था. उसे कुछ समय के अंतराल पर कुछ न कुछ आवश्यक रूप से खाना पड़ता था. परंतु गांव की मान्यता के अनुसार वह अपने पिता के अंतिम संस्कार संपन्न होने से पूर्व कुछ भी नहीं खा सकता था. श्मशानघाट गांव से लगभग

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