बात मई महीने की है. हमारे एक परिचित संपन्न व्यक्ति की बेटी की शादी तय हुई थी. साधारण रंगरूप की लड़की इंजीनियरिंग करने के बाद एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब कर रही थी. उस ने इंटरमीडिएट उत्तीर्ण लड़के से शादी करने के लिए हां कर दी थी. वह एक छोटी फैक्टरी चला रहा था. तिलक के 2 दिन पहले लड़के वालों ने लड़की के परिवार वालों को बात करने के लिए बुलाया व दहेज में 10 लाख रुपए की मांग कर दी, जिस के लिए लड़के को इशारा करते हुए लड़की के चाचा ने देख लिया था. लड़की वालों ने मन ही मन ऐसे लोगों के यहां शादी न करने का निश्चय कर लिया.

तिलक वाले दिन सारी व्यवस्था लड़के वालों ने की थी, परंतु टीका करने के लिए लड़की वालों की तरफ से कोई नहीं गया. लड़के वालों का फोन आ रहा था. अंत में लड़के वालों को मैरिज हौल का किराया, सजावट, खानेपीने के सामान आदि का खर्च दे कर बिना तिलक वापस लौट जाना पड़ा.

राधेश्याम गुप्ता, कोलकाता (प.बं.)

 

बात कुछ महीने पहले की है. मेरे पति बनारस से लखनऊ जा रहे थे. चूंकि इन्हें अकस्मात जाना पड़ा था इसलिए ये रिजर्वेशन नहीं करा पाए थे. टिकट ले कर ये टे्रन की जनरल बोगी में चढ़े तो देखा कि एक महाशय आमनेसामने की दोनों बर्थ पर अपना सामान रखे हुए थे. ये सामान खिसका कर बैठने लगे तो उन महाशय ने कहा, ‘‘यहां मेरे आदमी बैठे हुए हैं.’’ मेरे पति ने उन से पूछा, ‘‘आप के कितने आदमी हैं?’’ वे बोले, ‘‘12.’’ मेरे पति तपाक से बोले, ‘‘आप एक और आप के आदमी 12.’’ यह सुनते ही आसपास बैठे यात्री हंसने लगे और वे महाशय सकपका गए. उन्होंने तुरंत सामान हटा कर मेरे पति को बैठने की जगह दे दी.

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