मैं अपनी कुछ सहकर्मियों के साथ एक सैमिनार में भाग लेने के लिए मुंबई जा रही थी. हम 4 महिलाएं एक ही डब्बे में थीं. दोपहर के समय हम सब गपशप में व्यस्त थीं, तभी एक साधारण सी दिखने वाली महिला बैग लिए अपने 2 बच्चों के साथ हमारे डब्बे में आई और बैठने के लिए थोड़ा सा स्थान मांगने लगी. हम सब को बच्चों पर दया आ गई और उसे ऊपर वाली सीट पर जाने का संकेत कर दिया और फिर बातों में व्यस्त हो गईं. 2 स्टेशन बाद वह महिला कुछ बुदबुदाई और नमस्कार कर के चली गई. रात को जब मैं अपने ऊपर वाली सीट पर गई तो देखा ऊपर रखे मेरे बैग से एक चादर व कुछ नकदी जो मैं ने खरीदारी के लिए अलग रखी थी, गायब थीं. हम दिनदहाड़े ठगी जा चुकी थीं.
नीलू चोपड़ा, जनकपुरी (न.दि.)
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मेरे बेटे ने एक मौल से पैंट का कपड़ा खरीदा और दर्जी के पास सिलाने ले गया. दर्जी ने कपड़ा देखा और उस से पूछा, ‘‘कितने का खरीदा और कहां से?’’ बेटे ने जब बताया तो दर्जी कहने लगा, हमारे पास भी पैंट के ब्रैंडेड कपड़े हैं और सस्ते भी. बेटे ने कपड़ा देखा तो उसे अच्छा लगा और अगले दिन मुझे उस के पास ले गया. मुझे भी कपड़ा अच्छा लगा लेकिन तभी मुझे ध्यान आया कि ब्रैंडेड कपड़े पर कंपनी का नाम हर मीटर के बाद किनारे पर छपा होता है. दर्जी से जब मैं ने यह बात कही तो बोला, ‘‘हां, होता है लेकिन मेरे पास वैसा नहीं है.’’ हम ने न उस से कपड़ा खरीदा और न ही उसे सिलने के लिए दिया. इस तरह हम ठगतेठगते बचे.