मैं अपनी छोटी बहन के घर गई थी. उस की कालोनी में दशहरे का मेला लगा हुआ था. हम भी मेला घूमने गए, हम दोनों के साथ बहन का 4 वर्षीय बेटा अंशु भी था. उस ने खिलौने की दुकान की तरफ चलने के लिए कहा. मेरी बहन ने धीरे से मुझ से कहा, ‘‘दीदी, इस के पास पहले से ही ढेर सारी बंदूकें हैं, फिर भी बंदूक ही खरीदने की जिद करता है, दूसरा खिलौना लेना ही नहीं चाहता.’’मैं ने बहन को धीरे से समझाते हुए कहा, ‘‘तू चिंता मत कर, हम दोनों इसे समझाबुझा कर दूसरा खिलौना दिलवा देंगे. बच्चा है, मान जाएगा, भूल जाएगा बंदूक की जिद.’’ मेरी बात सुनते ही अंशु जोरजोर से रोरो कर बोलने लगा, ‘‘हम मानने वाले बच्चे नहीं हैं, जो दूसरा खिलौना ले लेंगे, हम बंदूक की जिद नहीं भूलेंगे.’’ मेले की भीड़ में अंशु के रोने से हम दोनों असमंजस में पड़ गईं, हम ने जल्दी से उसे उस की पसंद की बंदूक खरीदवा दी तथा घर लौट आईं. मेले का दृश्य याद कर हम दोनों बहनों का हंसहंस कर बुरा हाल था.
संध्या, हैदराबाद (आं.प्र.)
मेरी 4 वर्षीया छोटी बेटी तन्नू बहुत ही नटखट और हाजिरजवाब है. उसे उस के बाल हमेशा कंघी से कढे़ हुए और सैट चाहिए. हमें एक शादी में जाना था. सर्दियों का मौसम था. उस से कहा कि टोपा लगा ले, सर्दी बहुत है. वह नहीं मानी कि उस के बाल बिगड़ जाएंगे. जब उस को फटकार लगाई और शादी में नहीं ले जाने का भय दिखाया तो वह बड़ी मुश्किल से स्कार्फ लगाने को तैयार हुई. गाड़ी में बैठ कर उस ने बहुत ही धीरे से कहा, ‘‘मम्मी यह स्कार्फ मैरिज गार्डन के बाहर ही खोल देना.’’ उस की इस बात पर हम सभी बिना हंसे नहीं रह सके.