अमीर और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और ज्यादा गरीब. यह एक घिसापिटा जुमला है जो अनगिनत बार भाषणों में हम सुन चुके हैं. अब यह बोरियत पैदा करता है लेकिन हकीकत यह है कि यह जुमला सोलह आने सही है. हाल ही में विश्व की जानीमानी स्वयंसेवी संस्था औक्सफाम के एक अध्ययन में कहा गया है कि 2016 में विश्व के 1 प्रतिशत सब से अमीर लोगों के पास बाकी की 99 प्रतिशत आबादी से ज्यादा संपत्ति होगी. संपत्ति का यह केंद्रीयकरण उस दुनिया में हो रहा है जहां 9 में से 1 व्यक्ति के पास खाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं. यह आर्थिक असमानता आज अचानक पैदा नहीं हुई है. यह प्रक्रिया लंबे समय से चली आ रही है. इस अध्ययन के मुताबिक, 2010 में दुनिया के 80 सब से अमीर लोगों के पास 1.3 ट्रिलियन डौलर की संपत्ति थी जो 4 साल यानी 2014 में ड्योढ़ी हो कर 1.9 ट्रिलियन डौलर हो गई. यह बढ़ती असमानता दुनियाभर के सभी सोचनेसमझने वाले लोगों को झकझोर रही है.
यह सही है कि दुनिया में पहले के मुकाबले समृद्धि आई है लेकिन इस के साथ आर्थिक विषमता ने भी विकराल रूप ले लिया है. अब यह केवल नैतिक मुद्दा ही नहीं रहा, बल्कि यह चरम विषमता आर्थिक संवृद्धि को भी प्रभावित कर रही है. हिंदी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने कभी लिखा था – दिशा वाम वाम वाम, समय साम्यवादी. लेकिन आज दुनिया का राजनीतिक आर्थिक परिदृश्य देख कर यह कहने की नौबत आ गई है दिशा दक्षिण दक्षिण दक्षिण, समय पूंजीवादी.
बाजारवाद की राह
वर्तमान में दुनिया के ज्यादातर देश पूंजीवाद और बाजारवाद के रास्ते पर चल रहे हैं. अमेरिका, यूरोप और आस्ट्रेलिया ही नहीं, भारत और चीन सहित एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देश पूंजीवाद के रास्ते पर चल रहे हैं. इस रास्ते पर चल कर उन्होंने अपनी चरम गरीबी से मुक्ति पाई है और समृद्धि को हासिल किया है. जितने बड़े पैमाने पर दुनिया के देश पूंजीवाद को अपना रहे हैं उसे देखते हुए लगता है कि विकास और समृद्धि के लिए पूंजीवाद के अलावा कोई रास्ता रह नहीं गया. साम्यवाद पहले ही वैचारिक रूप से हार चुका है या चीन जैसे देशों में वह अधिनायकवादी पूंजीवाद का रूप ले चुका है. ऐसा होना ही था क्योंकि न केवल पूंजीवाद ने कई देशों के करोड़ों लोगों को गरीबी से ऊपर उठाया, बल्कि इन देशों में संपन्नता और समृद्धि का पहली बार आगमन हुआ.
दूसरी तरफ साम्यवादी देशों के पास वितरण के लाख तरीके थे मगर उत्पादन बढ़ा कर समृद्धि हासिल करने का एक भी तरीका नहीं था. उत्पादन चवन्नी का नहीं मगर वितरण रुपए का. ऐसी विचारधारा दम तोड़ दे तो अचरज कैसा. इसलिए पूंजीवाद को विश्व स्तर पर चुनौती देने वाली कोई विचारधारा रह नहीं गई है. लेकिन पूंजीवाद को उस के अंदर से ही चुनौती जरूर मिलती रहती है. कभी कम्युनिज्म के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि पूंजीवाद अपने अंतर्विरोधों के कारण खत्म हो जाएगा लेकिन ऐसा कुछ तो हुआ नहीं. पूंजीवाद न केवल जिंदा है बल्कि फैलता भी जा रहा है.
मनुष्य के समृद्धि के स्वप्न को पूंजीवाद ने काफी हद तक पूरा किया लेकिन मनुष्य के दूसरे स्वप्न समता को उस ने बुरी तरह तोड़ा. कई विचारक मानते हैं कि पूंजीवाद से समृद्धि भले ही आए मगर उस से असमानता भी आती है. असमानता पूंजीवाद में अंतर्निहित है. इसलिए समृद्धि और विकास चाहिए तो असमानता की अपरिहार्य बुराई को भी स्वीकार करना होगा. लेकिन अब इस असमानता ने विकराल रूप धारण कर लिया है जिस का कुछ उपाय करना जरूरी लगने लगा है.
पिछले कुछ वर्षों से पश्चिमी देशों में आर्थिक विषमता एक अहम मुद्दा बनती जा रही है. बुद्धिजीवी और चिंतक इस पर गंभीर चिंता जता रहे हैं. पेरिस स्कूल औफ अर्थशास्त्र के प्रोफैसर थौमस पिकेटी ने निरंतर बढ़ती असमानता के बारे में 2 दशकों के अध्ययन के बाद ‘कैपिटल इन ट्वैंटी फर्स्ट सैंचुरी’ नामक पुस्तक लिखी है जो इन दिनों पश्चिमी देशों में धूम मचाए हुए है. बढ़ती असमानता का गंभीरता से जायजा लेने वाली इस पुस्तक को कई दशकों की अर्थशास्त्र की महत्त्वपूर्ण पुस्तक माना जा रहा है. उस में पिछले 200 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण है कि पश्चिमी देशों यानी अमेरिका, जापान, जरमनी, फ्रांस और ब्रिटेन में आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी. अमेरिका के नवीनतम आंकड़े देते हुए वे कहते हैं कि 2012 में 1928 के बाद फिर 1 प्रतिशत सब से धनी परिवारों के पास 22.5 प्रतिशत आय का केंद्रीयकरण हो गया है. उन्होंने ब्रिटेन, चीन, भारत, जापान, मलयेशिया, दक्षिण अफ्रीका और उरुग्वे सहित 13 देशों के आंकड़ों के आधार पर अपनी बात कही है.
इस कारण विश्व मुद्रा कोश, अकादमिक हलकों से ले कर व्हाइट हाउस तक इस पुस्तक पर तीखी बहस हो रही है. सभी मानते हैं कि पिकेटी का काम बहुत गंभीर किस्म का है. पिछले कई दशकों में अर्थशास्त्र पर इस तरह की झकझोर देने वाली पुस्तक नहीं आई. तभी तो अंगरेजी संस्करण आने के बाद कुछ ही दिनों में यह पुस्तक फिक्शन और नौन फिक्शन दोनों ही श्रेणियों में सब से लोकप्रिय बन गई. विषय की गंभीरता और प्रासंगिकता को देखते हुए पुस्तक की तुलना मार्क्स की कैपिटल के साथ की जा रही है. पुस्तक की सफलता का एक राज यह है कि सही समय पर सही विषय पर यह पुस्तक आई है. इन दिनों कई देशों, खासकर अमेरिका में असमानता बहस का मुद्दा बना हुआ है. अब तक अमेरिका यही मानता रहा कि अमीर और गरीब का भेद यूरोपियों का खब्त है. लेकिन वाल स्ट्रीट जर्नल द्वारा बारबार डंसे जाने के बाद वह अमीरी और संपत्ति के पुनर्वितरण की बात करने लगा है. इसलिए इस किताब के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है जो कहती है संपत्ति का केंद्रीयकरण इस व्यवस्था का स्वभाव है और वह संपत्ति पर ग्लोबल टैक्स लगाने का सुझाव देती है.
पिकेटी का मानना है कि कई ताकतवर शक्तियां ऐसी हैं जो असमानता को कम कर सकती हैं. इन में वे ज्ञान और कौशल के प्रसार का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं. लेकिन इस में भी कुछ प्रवृत्तियां ऐसी दिखाई देती हैं जो असमानता को ही बढ़ाती हैं.
बढ़ती असमानता
आजकल कंपनियों के सीईओ अपने वेतन बेतहाशा बढ़ा लेते हैं जिस का काम की उत्पादकता के साथ कोई ताल्लुक नहीं होता. इस से भी असमानता बढ़ रही है. मसलन, अमेरिकी मजदूरों का वास्तविक वेतन 7वें दशक से स्थिर है. जबकि अमेरिका के ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों का वेतन 165 प्रतिशत और, और ऊपर के 0.1 प्रतिशत लोगों का वेतन 362 प्रतिशत बढ़ा है. वहीं, पिछले 40 वर्षों में सब से ऊपर के तबके के लिए टैक्स की दर 70 प्रतिशत से गिर कर 35 प्रतिशत रह गई है.
इस तरह पिकेटी कहते हैं कि असमानता को सब से ज्यादा बढ़ावा अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर की तुलना में पूंजी पर मिलने वाले ऊंचे लाभ से हो रहा है. अतीत के जमींदारों की तरह आज के वित्तीय पूंजी के मालिक को अपने निवेश पर प्राप्त होने वाले लाभ की दर, मानवीय पूंजी या उत्पादकता से होने वाले लाभ की दर से कहीं ज्यादा है. इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि निवेश के कारण पैदा होने वाली उच्च आय, मजदूरी और वेतनों पर आधारित आय की तुलना में कहीं तेजी से बढ़ती है.
पिकेटी के आंकड़े दिखाते हैं कि उत्पादकता की लंबी अवधि में प्रति व्यक्ति आय 1 से 1.5 प्रतिशत के बीच बढ़ती है लेकिन उतने ही समय में निवेश का लाभ 4 से 5 प्रतिशत के बीच. यह समाज में असमानता को बढ़ाता है. ऐसी उच्च असमानता, वृद्धि दर को कम करती है, सामाजिक तनाव को तेज करती है और लोकनीति को भटकाती है. सब से चिंताजनक बात लोकतांत्रिक देशों के भविष्य के लिए यह है कि विशाल संपत्ति के द्वारा पैदा की गई उत्तरोत्तर बढ़ने वाली संपत्ति के जरिए उस के कई स्वामी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकते हैं, वे लौबीइंग कर सकते हैं जैसा अमेरिका में गन इंडस्ट्री करती है या चुनाव अभियानों को संचालित कर सकते हैं या सीधे रिश्वत दे सकते हैं. लोगों के पास बेतहाशा संपत्ति ऐसी सत्ता को जन्म देती है जिस से चैक ऐंड बैलेंस की व्यवस्था गड़बड़ाती है जिस पर लोकतंत्र टिका है.
मार्क्स की तरह पिकेटी अंतर्विरोधों के कारण पूंजीवाद के ढहने की बात नहीं करते. उन का कहना है कि वे मार्क्सवाद से कभी प्रभावित नहीं रहे, इसलिए वे यह मुद्दा उठाने के लिए सब से योग्य व्यक्ति हैं. उन्होंने यह मुद्दा वैचारिक वजहों से नहीं, आंकड़ों के आधार पर उठाया है. उन का मानना है कि लोकतांत्रिक तरीकों से जैसे न्यायपूर्ण रैगुलेशन, प्रोग्रैसिव टैक्स के जरिए बेकाबू होती असमानता से निबटा जा सकता है. पूंजीवाद अगर न्यायपूर्ण होगा तो फलेगाफूलेगा.
पूंजीवादी विकास
भारत जैसे देशों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्त्वपूर्ण है जिस ने ढाई दशक पहले पूंजीवाद की राह पर आधेअधूरे मन से चलना शुरू किया है. नरेंद्र मोदी की विजय के बाद भारत के पूंजीवादी विकास में तेजी आने की संभावना है. यह कहा जा रहा है कि वे भारत के मागर्े्रट थैचर, रीगन या तेंग सियाओं पिंग साबित हो सकते हैं जो अपने देशों में पूंजीवाद को मजबूत कर समृद्धि के रास्ते पर बढ़े. पूंजीवादी विकास के रास्ते पर हम तेजी से दौड़ें, यह वक्त कातकाजा है. यों भी हम आजादी के बाद 45 साल लाइसैंस कोटा राज के भंवर में फंस कर काफी समय बरबाद कर चुके हैं.
हमें याद रखना है कि असमानता का बढ़ना पूंजीवाद में अंतर्निहित है. ऐसे में हम कौन से कारगर कदम उठाएं जिन से असमानता को कम से कम रखा जा सके. यदि ऐसा नहीं किया तो बढ़ती असमानता सामाजिक, आर्थिक असंतोष को जन्म देगी. हमारे देश ने 1991 के बाद जो नव उदारवादी व्यवस्था अपनाई है उस में 24 सालों के दौरान अरबपतियों की संख्या बढ़ी है. मध्यम वर्ग भी बड़े पैमाने पर बढ़ा है. गरीबी की सीमा से नीचे रहने वालों की संख्या में कमी भी आई है लेकिन बहुत बड़ा तबका ऐसा है जिस की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं आया. इसलिए जरूरी है कि हम पूंजीवाद और जनकल्याणवाद के बीच स्वर्णिम तालमेल बिठाने की कोशिश करें. इस पुस्तक पर बहस से एक बात उभर कर आती है कि साम्यवाद वितरण की बहुत डींगें हांकता रहा पर उस के पास बांटने के लिए कुछ था ही नहीं क्योंकि वह कभी उत्पादकता की समस्या को हल नहीं कर पाया और इसलिए विघटन का शिकार हो गया. पूंजीवाद समृद्धि और संपन्नता ले कर आया लेकिन न्यायपूर्ण वितरण नहीं कर सका. कबीर कह गए हैं न, ‘दोऊ राह न पाई’. यह पूंजीवाद और समाजवाद के बारे में भी सही है. मगर किसी तीसरे रास्ते की तलाश अब भी एक सपना बनी हुई है. सवाल यह है कि क्या कोई तीसरा रास्ता है? या वह एक मृगमारीचिका है?
आने वाले दिनों में कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर असमानता को खत्म करने का सवाल उठेगा. औक्सफाम की कार्यकारी निदेशक विनी बिनयिमा कहती हैं कि क्या आप ऐसी दुनिया में रहना पसंद करेंगे जिस में इतनी विषमता हो कि 1 प्रतिशत लोगों के पास बाकी 99 प्रतिशत लोगों जितनी संपत्ति हो? अब यह विषमता दुनिया की संवृद्धि के लिए खतरा बनती जा रही है. इस के लिए उन्होंने 9 सूत्री कार्यक्रम सुझाया है जैसे कर न चुकाने वाली कंपनियों और लोगों से कठोरता से निबटा जाए, सरकारें निशुल्क शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर बड़े पैमाने पर निवेश करें आदि. इन में नया कुछ भी नहीं है. सवाल यह है कि क्या सरकारें इन कदमों को उठाने में कामयाब होंगी? दरअसल, सरकारों की चिंता यह है कि कहीं विषमता रोकने के कदमों का उलटा असर न हो और विकास दर व संवृद्धि पर बुरा असर पड़े. इसलिए कोई असमानता को खत्म करने के लिए विकास को जोखिम में डालने को तैयार नहीं है.