फिल्म समीक्षाः
रेटिंगः ढाई स्टार
निर्माताः अकबर और आजम कादरी
लेखक व निर्देशकः अकबर और आजम कादरी
कैमरामैनः नासिर जमाल
कलाकारः निधि बिस्ट,जीशान कादरी,इजहार खान,शाहबाज,
अवधिः एक घ्ंाटा सोलह मिनट
ओटीटी प्लेटफार्म:एमएक्स प्लेअर
हमारे देश में बाल फिल्मों का सदैव अभाव रहा है.हमारे फिल्मकार बच्चों के लिए या बच्चों के नजरिए से फिल्में बनाना पसंद ही नहीं करते हैं.कभी कभार कोई फिल्मकार बच्चों के लिए फिल्म लेकर आता है,मगर वह रोचक नहीं होती हैं.मगर अब तीन सौ से अधिक कहानियां लिख चुके,कई म्यूजिक वीडियो निर्देशित कर चुके जुड़वा भाई अकबर और आजम कादरी एक फिल्म‘‘शाहजादा अली’’लेकर आए हैं,यह एक अलग बात है कि वह इसे बाल फिल्म की संज्ञा देना पसंद नहीं करते.मगर फिल्म की कहानी के केंद्र में एक ऐसा बालक है,जिसके दिल मंे सुराग है और वह घर से बाहर निकल कर दूसरे बच्चों के साथ उन्ही की तरह क्रिकेट सेे लेकर हर तरह के खेल खेलना चाहता है. पर उसके माता पिता उसकी भलाई के लिए उसे घर से बाहर जाने नहीं देते.
कहानीः
यह कहानी है दिल्ली की एक मुस्लिम काॅलोनी में रह रहे मुस्लिम परिवार की.परिवार के मुखिया जहीर(जीशान कादरी) एक प्रिंटिंग प्रेस मंे नौकरी करते हैं.पर वह अपनी ख्ुाद की प्रिंटिंग प्रेस खोलने की जुगाड़ में भी लगे हुए हैं.उनकी पत्नी शाहिदा (निधि बिस्ट)घर के काम व बेटेे अली( इजहार खान)को संभालने के साथ साथ कढ़ाई का काम भी करती हैं.यह परिवार अपने बाप दादा के पुश्तैनी मकान में रह रहा है,जिस पर एक बिल्डर की नजर है.जहीर का चचेरा भाई भी चाहता है कि इसे बेच दिया जाए,मगर जहीर बेचने के लिए तैयार नहीं है.जहीर के बेटे अली के दिल में सुराग है,इसलिए उसकी खास देखभाल करनी पड़ती है.जहीर के पास इतना पैसा नहीं है कि वह बेटे अली के दिल का आपरेशन करवा सके.जबकि बालक अली जिंदगी को खुलकर जीना और महसूस करना चाहता है.उसे क्रिकेट से मोहब्बत है और वह अपने अब्बा से एक क्रिकेट बैट खरीदने की जिद करता है.लेकिन किसी भी तरह की शारीरिक गतिविधि/मेहनत उसके स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा सकती है.इसलिए उसकी माॅं/अम्मी एक कहानी गढ़कर उसे सुनाती हैं कि वह बच्चे,जो बहुत ज्यादा घर के बाहर खेलते हैं,और अपने अम्मी अब्बू की बात नहीं मानते है, उन पर उनके दिल में रहने वाला एक राक्षस हमला करता है और वह पूरी जिंदगी तकलीफ में रहते हैं.इसके उलट वह बच्चे जो अपने अम्मी अब्बू की बात मानते हैं,उन्हें अल्लाह दुआएँ देता है.
यह कहानी है दिल्ली की एक मुस्लिम काॅलोनी में रह रहे मुस्लिम परिवार की.परिवार के मुखिया जहीर(जीशान कादरी) एक प्रिंटिंग प्रेस मंे नौकरी करते हैं.पर वह अपनी ख्ुाद की प्रिंटिंग प्रेस खोलने की जुगाड़ में भी लगे हुए हैं.उनकी पत्नी शाहिदा (निधि बिस्ट)घर के काम व बेटेे अली( इजहार खान)को संभालने के साथ साथ कढ़ाई का काम भी करती हैं.यह परिवार अपने बाप दादा के पुश्तैनी मकान में रह रहा है,जिस पर एक बिल्डर की नजर है.जहीर का चचेरा भाई भी चाहता है कि इसे बेच दिया जाए,मगर जहीर बेचने के लिए तैयार नहीं है.जहीर के बेटे अली के दिल में सुराग है,इसलिए उसकी खास देखभाल करनी पड़ती है.जहीर के पास इतना पैसा नहीं है कि वह बेटे अली के दिल का आपरेशन करवा सके.जबकि बालक अली जिंदगी को खुलकर जीना और महसूस करना चाहता है.उसे क्रिकेट से मोहब्बत है और वह अपने अब्बा से एक क्रिकेट बैट खरीदने की जिद करता है.लेकिन किसी भी तरह की शारीरिक गतिविधि/मेहनत उसके स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा सकती है.इसलिए उसकी माॅं/अम्मी एक कहानी गढ़कर उसे सुनाती हैं कि वह बच्चे,जो बहुत ज्यादा घर के बाहर खेलते हैं,और अपने अम्मी अब्बू की बात नहीं मानते है, उन पर उनके दिल में रहने वाला एक राक्षस हमला करता है और वह पूरी जिंदगी तकलीफ में रहते हैं.इसके उलट वह बच्चे जो अपने अम्मी अब्बू की बात मानते हैं,उन्हें अल्लाह दुआएँ देता है.
अली अपनी माॅं की कहानी को सच मान लेता है.उधर उसका एक दोस्त करीम (शहबाज)है,जो अक्सर उसके साथ सांप सीढ़ी व अन्य खेल खेलने के उसके मकान की छत पर आता रहता है.एक दिन करीम के पिता सायकल लेकर आते हैं.करीम उसे यह बात बताता है.मां से पूछ कर अली,करीम की सायकल देखने जाता है.एक युवक उसकी सायकल को ख्ुाद चलाने लगता है,जिसके पीछे करीम और करीम के पीछे अली भागता है.अचानक अली रास्ते मंे गिर जाता है और अस्पताल पहुॅच जाता है.जहंा उसके दिल का आपरेशन करना अनिवार्य हो जाता है.जहीर अपना मकान बेच कर प्रिंटिंग प्रेस के मालिक की छतरपुर वाली कोठी में नौकरो के कमरे मंे रहने चला जाता है.पांच माह बाद अली एकदम स्वस्थ हो जाता है.फिर कुछ बच्चों के साथ वह होली भी खेलता है.
लेखन व निर्देशनः
फिल्म को देखकर अहसास होता है कि इसे कम से कम बजट मंे बनाने का प्रयास किया गया है.मगर फिल्म उस बच्चे के दर्द को बयां करती है,जो कि खेलने के लिए घर से बाहर नहीं जा पा रहा है.लेखक व निर्देशक द्वय ने बच्चों के मनोभाव को समझते हुए उसमें झांकने का भी प्रयास किया है.फिल्मकार ने बाल सुलभ बदमाशियों को भी खूबसूरती से पिरोया है.फिल्म का क्लायमेक्स जबरदस्त है.मगर फिल्म की गति काफी धीमी होने के साथ साथ कहानी व दृश्यों का दोहराव भी है.इसे एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत थी.इतना ही नही पटकथा के स्तर पर भी मेहनत करने की जरुरत थी.
फिल्म को देखकर अहसास होता है कि इसे कम से कम बजट मंे बनाने का प्रयास किया गया है.मगर फिल्म उस बच्चे के दर्द को बयां करती है,जो कि खेलने के लिए घर से बाहर नहीं जा पा रहा है.लेखक व निर्देशक द्वय ने बच्चों के मनोभाव को समझते हुए उसमें झांकने का भी प्रयास किया है.फिल्मकार ने बाल सुलभ बदमाशियों को भी खूबसूरती से पिरोया है.फिल्म का क्लायमेक्स जबरदस्त है.मगर फिल्म की गति काफी धीमी होने के साथ साथ कहानी व दृश्यों का दोहराव भी है.इसे एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत थी.इतना ही नही पटकथा के स्तर पर भी मेहनत करने की जरुरत थी.
फिल्म का संवाद ‘‘एक बच्चे को मां कैसे पालती है,कोई फरिश्ता भी नहीं समझ सकता.’’अपने बीमार बेटे को लेकर बेबस मां के दर्द को बाखूबी बयंा करता है.वहीं फिल्म का संवाद-‘‘हर कहानी में एक ंिजंदगी होती है और हर जिंदगी में एक कहानी होती है’’भी बहुत कुछ कह जाता है.
अभिनयः
अली के किरदार मंे बाल कलाकार इजहार खान ने एकदम स्वाभाविक अभिनय किया है.मां के किरदार को निधि बिस्ट ने गहराई से निभाया है.कई जगह वह काफी खूबसूरत भी लगी हैं.जबकि बेटे की बीमारी के लिए परेशान होने के साथ साथ अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए चिंतित पिता जहीर के किरदार में जीशान कादरी ने शानदार अभिनय किया है.
अली के किरदार मंे बाल कलाकार इजहार खान ने एकदम स्वाभाविक अभिनय किया है.मां के किरदार को निधि बिस्ट ने गहराई से निभाया है.कई जगह वह काफी खूबसूरत भी लगी हैं.जबकि बेटे की बीमारी के लिए परेशान होने के साथ साथ अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए चिंतित पिता जहीर के किरदार में जीशान कादरी ने शानदार अभिनय किया है.
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