समाज को उसका आइना दिखाने के हथियार के रूप में सिनेमा का उपयोग करने वाले फिल्मकार हंसल मेहता का मानना है कि सिनेमा समाज को नहीं बदलता. सिनेमा तो लोगों को सोचने पर विवश करता है. हंसल मेहता की राय में किसी भी बदलाव की पहली सीढ़ी तो सोच ही होती है. अपने इसी यकीन के साथ हंसल मेहता ने लगभग सोलह साल पहले ‘माईग्रेशन’ की समस्या पर मनोज बाजपेयी को लेकर एक कमर्शियल फिल्म ‘दिल पे मत ले यार’ बनायी थी. जिसे बाक्स आफिस पर अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी थी. उसके बाद भी वह कई फिल्में निर्देशि करते रहे.
फिर 2013 में मानवाधिकारों की लड़ाई में शहीद हुए वकील शाहिद आजमी की जिंदगी पर यथार्थपरक फिल्म ‘‘शाहिद’’ लेकर आए, जिसने उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार दिला दिया. फिर 2014 में हंसल मेहता ने पत्रलेखा और राजकुमार राव को लेकर एक बार फिर ‘माईग्रेशन’ की समस्या पर रियालिस्टिक फिल्म ‘‘सिटी लाइट्स’’ का निर्देशन किया. फिल्म ‘‘सिटी लाइट्स’’ में दुःख दर्द और बोझिलपना इतना ज्यादा था कि सिनेमा को महज मनोरंजन का साधन मानने वाला दर्शक ‘सिटी लाइट्स’ से दूर ही रहा. पर हंसल मेहता आज भी लोगों को सोचने पर मजबूर करने वाला सिनेमा बना रहे हैं. हाल ही में उनकी फिल्म ‘‘अलीगढ़’’ रिलीज हुई है. जिसमें उन्होने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे स्व. प्रोफेसर सिरास की कहानी की सत्यकथा को पेश किया है. जिन्हे ‘समलैंगिकता’के अपराध में 64 साल की उम्र में नौकरी से निकाल दिया गया था.
फिल्म ‘‘अलीगढ़’’ में इस बात का रेखांकन है कि प्रोफेसर सिरास के साथ नाइंसाफी हुई. दूसरा सवाल उठाया गया है कि किसी इंसान के बेडरूम में झांकने की इजाजत किसी को नहीं होनी चाहिए. इन्ही मुद्दों के साथ केंद्र में ‘समलैगिकता’ का मुद्दा भी है. इस फिल्म में भी दुःख दर्द और बोझिलपना है. पर यह फिल्म कुछ ज्यादा ही समसामायिक हो गयी है. क्योंकि इन दिनों सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच संविधान की धारा ‘‘377’’ को लेकर सुनवायी कर रही है. 377 के अनुसार समलैंगिकता अपराध है.