मशहूर टीवी व फिल्म अभिनेता ललित पारिमू किसी परिचय के मोहताज नही है. उन्होंने मैला आंचल से लेकर शक्तिमान सहित कई सीरियलों में सशक्त किरदार निभाकर अपनी पहचान बनायी तो वहीं ललित पारिमू ने गोविंद निहलानी की फिल्म संशोधन विशाल भारद्वाज की हैदर दैदिप्य जोशी की फिल्म कांचली सहित कई फिल्मों में सशक्त किरदार निभा चुके हैं. इन दिनों ललित पारिमू कुलदीप कौशिक निर्देशित फिल्म नार का सुर को लेकर चर्चा में हैं.

प्रस्तुत है ललित पारिमू से हुई बातचीत के अंश

आपके पैंतिस वर्ष लंबे कैरियर के टर्निंग प्वाइंट्स क्या रहे?

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पहला टर्निंग प्वाइंट्स तो थिएटर से टीवी रहा. मैंने कभी टीवी पर काम करने की नहीं सोची थी. क्योंकि उन दिनों हम टीनएजर के जो सपने थे. उन सपनों में टीवी कहीं था ही नहीं. वैसे भी उस वक्त तक टीवी कम चर्चा में रहता था. सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था जिसे लोग समाचार जानने का माध्यम मानते थे. लेकिन टीवी के मनोरंजक कार्यक्रमों ने जल्द ही अपनी जगह बनायी और तमाम कलाकारों को अभिनय करने का मौका दिया तो मेरे कैरियर का यही पहला टर्निंग प्वाइंट रहा कि मुझे दूरदर्शन के पुलिस फाइल से हिमालय दर्शन से मैला आंचल सहित तमाम सीरियलों में अभिनय करने का अवसर मिला. दूसरा टर्निंग प्वाइंट तकनीकी परिवर्तन का रहा. पहले दूरदर्शन के सीरियल लो बैंड पर फिल्माए जाते थे. फिर हाई बैंड पर फिल्माए जाने लगे फिर बीटा पर शूट होने लगा. 1992 के बाद सेटेलाइट चैनल का दौर आ गया. अब तो डिजिटल का दौर आ गया. तीसरा टर्निंग सीरियल शक्तिमान से जुड़ना रहा. मुझे इस सीरियल में डा. जकाल के किरदार को निभाने के लिए सिर्फ चार एपीसोड के लिए बुलाया गया था. मगर पहले एपीसोड ने कुछ ऐसा धमाल मचाया कि निर्माता व निर्देशक ने सलाह मशविरा कर मेरे किरदार को 350 एपीसोड तक लेकर गए. प्रेस के अलावा आम दर्शकों ने जिस तरह से डा. जकाल की तारीफ की उससे हर किसी को सोचना पड़ा. चौथा टर्निंग प्वाइंट संशोधन व हैदर जैसी फिल्मों में अभिनय करना रहा. चौथा टर्निंग प्वाइंट ओटीटी प्लेटफार्म पर वेब सीरीज स्कैम 92 में अभिनय करना रहा. नेटफ्लिक्स की वेब सीरीज अरण्यक की.

जिन दिनों आप टीवी पर व्यस्त थे. उन दिनों फिल्म वाले टीवी कलाकारो को अछूत की तरह देखते थे. पर आपको उस वक्त भी बुलाकर फिल्में दी जा रही थीं. यह क्या माजरा था?

हमने भी हार्ड कोर कमर्शियल फिल्में नही की. मुझे गोविंद निहलानी की संशोधन या विशाल भारद्वाज की हैदर जैसी कलात्मक फिल्में ही करने का अवसर दिया गया. इसकी कइ्र वजहें रही. हम टीवी के लिए हर माह 20 से पच्चीस दिन शूटिंग कर रहे थे. ऐसे में टीवी से छुट्टी लेकर फिल्म निर्माता या निर्देशक के पास जाकर मिलने का वक्त नहीं मिल रहा था. टीवी सीरियल दो सौ से चार सौ एपीसोड तक चलते थे. एक सीरियल में मैने चार सौ एपीसोड किए थे. सीरियल शक्तिमान के साढ़े तीन सौ एपीसोड में मैं डा. जकाल के किरदार में नजर आया था. मैंने दीप्ति नवल के साथ सहारा टीवी के लिए एक सीरियल कर रहा था. अशोक पंडित निर्देशित इस सीरियल के तब तक दस एपीसोड फिल्माए गए थे और दीप्ति नवल ने मुझसे कहा.

ललित आपने इस सीरियल के दस एपीसोड में जितनी लाइनें बोली हैं. उतनी अपनी जिंदगी में नही बोली होगी. फिर हमने अनुमान लगाया कि हम सभी हार्ड कोर टीवी आर्टिस्ट जितनी लाइनें संवाद बोलते हैं अथवा जितने लंबे समय तक हम कैमरे का सामना करते हैं. उतना मौका फिल्म कलाकार को नहीं मिलता. हम लोग हर दिन दस घंटे की शूटिंग में आठ से नौ सीन पूरा कर लेते थेण्कहने का अर्थ कि हम टीवी कलाकारों का बहुत ज्यादा समय तक काम करना पड़ता था और आज भी है.

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आप अभी भी थिएटर से जुड़े हुए हैं

जी हां, मैं नए नए कलाकारों को अभिनय सिखाता था और आज भी सिखा रहा हूं खुद ही एक्टिंग के वर्कशॉप करता था. मैं अपने नाट्यग्रुप समाज के माध्यम से खुद को पॉलिश करने का काम करता था. मैंने कभी भी समय बर्बाद नहीं किया. मैं आज कल एक्टिंग क्लासेस में अभिनय पढ़ा रहा हॅूं और मैं सभी को एक ही बात समझाता हॅूं कि कलाकार को अपना वक्त बर्बाद नहीं करना चाहिए. वहह शूटिंग करे अथवा थिएटर करे अथवा अकेले बैठकर भी कुछ नया सीखे. दो तीन दोस्त मिलकर अभिनय का रियाज करें जैसा कि हर इंसान करता है. ण्सरोद वादक हर दिन सरोद का रियाज करता है. हरमोनियम वादक भी हर दिन रियाज करता है. सितार वादक ऐसा करते हैं. हर डांसर व गायक भी हर दिन रियाज करता है अपने आपको पॉलिश करता रहता है. मगर हमारा कलाकार कुछ नही करता. हर कलाकार खुद को अपनी अफेयरबाजी की ही खबरों में रखता है. यह दुखद पक्ष है. इस मसले पर मुझे कुछ कहने का हक तो नहीं है. मुझे पता है कि इसमें जल्दी बदलाव नहीं आ सकता. पर यह सब हौलीवुड की नकल कर रहे हैं. आखिर क्यों हमें कलाकारों के अफेयर की चर्चा करनी पड़ती है. एक अच्छे गायक के अफयेर की चर्चा क्यों नही होती.

फिल्म नार का सुर को लेकर क्या कहेंगे?

कुलदीप कौशिक के निर्देशन में बनी यह फिल्म समाज के पुरुष प्रधान सोच पर एक प्रहार हैण्हम सभी की तरफ से फिल्म नार का सुर नारी को उचित सम्मान दिलाने का प्रयास है. इसमें भी बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानी है. यह फिल्म बेहतर समाज के निर्माण की उम्मीद जगाती है. फिल्म ष्नार का सुर एक संपूर्ण जीवन दर्शन है. हमारी इस फिल्म की कहानी नारी को उनकी शक्ति का एहसास दिलाती है कि अगर वह चाहें तो पलभर में समाज को सुधार सकती हैं. उन्हें अपनी ताकत को कम नही आंकना चाहिए. पांच अगस्त को प्रदर्शित होने वाली इस फिल्म में महिला सशक्तिकरण का मजबूत संदेश भी है. यह एक गांव की कहानी है जहां 12 नारियां शोषित होती हैंण्सभी नारियों के पति निकम्मे हैं पर सभी अपनी पत्नियों का शोषण कर रहे हैं. उन्हें सता रहे हैं पुरूष शराब पीते रहते हैं और अपनी औरतों से काम करवाते हैं गांव का जमींदार भैरो सिंह चालाकी व जालसाजी से सभी की जमीन अपने नाम करवा लेता है जब इसका विरोध होता है तो भैरो सिंह शर्त रखता है कि गांव की औरत में हमारे पुरूषों के साथ कबड्डी खेले और उन्हें हरा दें तो हम सभी की जमीन वापस कर देंगें उसके बाद किस तरह औरतों के जुझारूं पन सामने आता है वह किस तरह से कबड्डी के खेल के सीखती हैं अंततः सकारात्मक मोड़ पर फिल्म खत्म होती है फिल्म नार का सुर यही है कि जब नारी किसी काम को करने की ठान ले तो उसे कोई पराजित नहीं कर सकता.

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आपने फिल्म नार का सुर में किस तरह का किरदार निभाया है?

फिल्म नार का सुर का मैं खलनायक हॅूं इसमें मैने गांव के काइयां व धूर्त किस्म के जमींदार भैरो सिंह का किरदार निभाया है. बहुत कमीना है मैंने इसे खलनायक की तरह ही निभाया है. भैरों सिह क गुण अवगुण की बात करें तो वह घमंडी है. उच्च महत्वाकांक्षी और घृणा से युक्त है. पावर की भूख है. वह गांव के हर इंसान की जमीन हथियाना चाहता है.गुंडे पाल रखे हैं. जरा जरा सी बात पर मारा मारी करता है. लोगों से किसी न किसी बहाने पैसे एंठता रहता है.

क्या आपके किरदार भैरो सिंह को कुछ नया गेटअप दिया गया है?

गेटअप लगभग ऐसा ही है. जैसा कि मैं नजर आ रहा हॅूं. कुछ दृश्यों में निर्देशक ने मेरी आंखों में कुछ लगाया है. इसे कोई पौराणिक खलनायक नहीं बनाया है. इसकी पटकथा कमाल की है. इसमें घूंघट वाली नारी का जबरदस्त संघर्ष है. बहुत ही स्ट्रांग किरदार है. फिल्म अच्छी बनी है और आम दर्शक इसे पसंद करेंगें. इसके गाने अच्छे हैं. इसमें शुद्ध व कर्णप्रिय भारतीय संगीत है.

कुछ वर्ष पहले मध्यप्रदेश में औरतों ने शोषण से निपटने के लिए एक दल बनाया था जो कि गुलाबी गैंग के नाम से काफी लोकप्रिय हुआ था. इसके अलावा 2001 में आमीर खान की फिल्म लगान आयी थी.

क्या आपकी फिल्म नार का सुर इन दोनों का मिश्रण है?

ऐसा हो सकता है,  मगर सच कहॅूं तो मुझे गुलाबी गैंग के बारे में जानकारी नही है. हां फिल्म लगान के बारे में मुझे जानकारी है. लगान या ष्चक देष् जैसी फिल्मों का कुछ हिस्सा है. यह नारी प्रधान लगान है. इसमें नारी पुरूषों को पुरूष वाले खेल यानी कि कबड्डी के खेल में मात देती हैं. इसमें अंडरडॉग के विजेता बनने की कहानी है. फिल्म में औरतें कमजोर हैं और जब कमजोर जीतता है तो इसे सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है.

इन दिनों हर तरफ नारी उत्थान की ही बातें की जा रही हैं. क्या वास्तव में नारियों का उत्थान हो रहा है?

देखिए इसके दो पक्ष हैं  कई जगह नारियों का शोषण होता है तो कई जगह खुद नारी पुरूष का शोषण करती हैं जिन घरों में हिंसात्मक व्यवहार होता है वहां तो नारियां दब जाती हैं मैं मानता हॅूं कि डोमैस्टिक वायलेंस काफी होता है. कई बार औरतें भी हिंसात्मक वायलेंस का हिस्सा बन जाती हैं वह अपने पतियों के साथ गाली गलौज व मारपीट करती हैं. पहले नारियों के साथ डोमैस्टिक वायलेंस की घटनाएं ज्यादा होती थी. मगर अब पुरूष डोमैस्टिक वायलेंस की पीड़ा सह रहा है.

जहां तक नारी उत्थान का सवाल है तो शहरों में सही मायनों मे नारी उत्थान हुआ है. शहरों में नारियां शिक्षा से लेकर नौकरी तक हर जगह बहुत बढ़िया काम कर रही है. नारियां कई कारपोरेट कंपनियों में सीअईओ के पद पर कार्यरत हैं. डॉक्टर व नर्स के रूप में काबिले तारीफ काम कर रही हैं. कोविड के दौरान मैं भी कोविड का षिकार हुआण्उस वक्त मैने महसूस किया कि डाक्टर व नर्स के रूप में कार्यरत हर नारी कितनी कर्मठता समर्पण व मेहनत से मरीज को बचाने में जुटी हुई हैं. मैंने उनके अंदर सेवा भाव भी देखा. इसे हम उनका विकासए या उनका उत्थान कह सकते हैं.

फिल्म नार का सुर को कहां कहां फिल्माया गया है ?

इस फिल्म को मथुरा में फिल्माया गया है. इसका फिल्मांकन कोविड के वक्त हुआ है . हर कलाकार व तकनीशियन ने बहुत कठिनाई के साथ इस फिल्म का बेहतर बनाने का प्रयास किया है फिल्म का बजट काफी कम है. इसलिए निर्माता कलाकारों को वैनिटी वैन वगैरह की सुविधा नही दे पाया. हमने छोटे छोटे टंटों में गर्मी में समय बिताया. फिर भी इसफिल्म से जुड़े किसी भी इंसान को कोई शिकायत नहीं रही.

अपने लंबे कैरियर में आपने कई किरदार निभाए हैं किसी किरदार को निभाने का कोई खास अनुभव

ऐसे कई किरदार रहे. फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल पर सीरियल मैला आंचल बना था जिसमें मैंने अभिनय किया. उन दिनों मैं थिएटर से दूरदर्शन पर आया था. अच्छा अभिनय करने का एक जुनून था तो मेरे अंदर किरदार में घुसने की बात दिमाग में थी. इसलिए मैंने सबसे पहले मैला आंचल उपन्यास को चार पांच बार पढ़ा.

आपने डा. प्रशांत के किरदार में घुसने का प्रयास करता रहा. मैं एक टेबल पर किताबें वगैरह जमाकर बैठ जाता था. गांव के गरीब लोगों की नब्ज देखना उनकी आंख का चेकअप करना यह सब किया करता था मैंने पूरी तरह से अपने आपको डॉक्टर के रूप में तब्दील किया था. जिस गांव में इस सीरियल को फिल्माया जा रहा था वहां इतना प्यार मिला कि हर दिन किसी न किसी घर पर मुझे भोजन का निमंत्रण मिला करता था दो माह की शूटिंग के बाद जब हम उस गांव से निकलेए तो सभी की आंखों में आंसू थे. गांव के लोग मुझे असली डॉक्टर प्रशांत ही समझते थे उनके लिए मैं अभिनेता ललित पारिमू नहीं था इसी तरह सीरियल हिमालय दर्शन का अनुभव रहा इसमें मैने शेफर्ड का किरदार निभाया है इस किरदार को भी मैंने पूरी आत्मा से निभाया था हिमालय पर शैफर्ड कई दिनों तक नहाते नही थे तो मैंने भी शेफर्ड

के किरदार के साथ नयाय करने के लिए अपने बाल काफी लंबे रखे कई दिनों तक नहाया नही डोगरी भाषा सीखी मवेशी चराता था जिस दिन शूटिंग नहीं होती उस दिन ऐसे ही घूमा करता था कहानी के अनुसार शेफर्ड को सपने में भगवान शिवजी दिखायी देते हैं और वह एक दिन उनके पीछे जाते जाते पहाड़ी के उपर से नीचे खायी में छलांग लगा देता है यह हिमाचल की एक लोकगाथा है. मैं इस किरदार में अंदर से इस तरह से घुस चुका था कि प्रकृति के स्वाभाविक प्रभाव के वशीभूत होकर मैं भी अपने प्राण देने चल पड़ा था पहाड़ी के किनारे पहुंचने के बाद मुझे अंदर से लगा कि मैं मां प्रकृति की गोद में समा जाउंगा.

आपकी राय के अनुसार हर कलाकार को बीच बीच में थिएटर करते रहना चाहिए क्या लगातार फिल्में करते हुए कलाकार के अभिनय में जो मोनोटोनस आ जाता है उससे अलग होकर नई ताजगी लाने में थिएटर मदद करता है

अगर कलाकार इमानदारी से थिएटर करे तो निश्चित रूप से उसके अभिनय का मोनोटोनस खत्म होगा थिएटर में समय देना पड़ता  है देखिए एक वक्त के बाद अच्छे से अच्छा कलाकार भी पैसे के लिए काम करने लगता है. हर कलाकार के पास अभिनय के दो चार फार्मूले ही होते हैं अन्यथा वह पोषाक व मेकअप बदलते रहते हैं. लेकिन कलाकार की आवाज व इमोशन तो वही रहते हैं.

हमारे देश में फिलहाल उतने अच्छे कलाकार नही हैं जो कि अपनी आवाज बदल दें अपने शरीर का ढांचा ही बदल दें थिएटर में तो ऐसा करने की संभावनाएं होती हैं मगर सिनेमा में ऐसा लोग नहीं कर पाते यदि सिनेमा का कलाकार कुछ समय के अंतराल में सिनेमा से ब्रेक लेकर थिएटर करे तो इससे उसके अभिनय में निखार आना तय है. थिएटर में जो तीस से चालिस दिन की रिहर्सल होती है. वह आत्मा से जुड़ता है. इससे उसकी परफार्मेंस नेचुरल ज्यादा होने लगती है. वह अपने इमोशन व भावों को ज्यादा इमानदारी से पेश कर सकता है अन्यथा कलाकार मेकेनिकल हो जाता है और मेकेनिकल अभिनय में कोई रस नहीं होता सिनेमा में कलाकार के अभिनय को लाइटिंग एकैमरा आदि से सजाया जाता है जबकि थिएटर में ऐसा नहीं किया जाता नाटक में अभिनय करने से याददाश्त तेज होती है.

पिछले बीस पच्चीस वर्षों में टीवी व फिल्मों की स्थिति में जो बदलाव आया है उसे आप किस तरह से देखते हैं

गिरावट महज टीवी या फिल्म में नहींएबल्कि समाज में भी आयी है. यही है कि सबसे पहले सामाजिक ढांचा में गिरावट आती है उसके बाद कला व संस्कृति का ह्रास होता है. कभी गांधी या समाजवाद या साम्यवाद का आदर्श था तब उसी तरह के नाटक व फिल्में थीं. पर अब नही है. आदर्श ही टूट गए अब जो आदर्श हैं जो जीवन शैली है वही तो टीवी सीरियल व फिल्मों में भी नजर आएगा. आदर्श विहीन समाज की कला व समाज का दर्शन भी वैसा ही होगा.

आज अच्छे लेखक व निर्देशक का अभाव है, फिल्म नार का सुर के अलावा भी कोई फिल्म कर रहे हैं

जी हां, दो तीन फिल्में कर रहा हूं. रोहित शेट्टी निर्देशित वेब सीरीज कर रहा हूं.cs

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