यह फिल्म लव स्टोरी पर बनी है, पर इस में लव कम, रोमांस कम, रोनाधोना ज्यादा है. निर्देशक ने दर्दभरी कहानी को पेश किया है. फिल्म का अंत भी दुखांत है. अंत में नायिका मर जाती है. इतनी दर्दभरी प्रेम कहानी को अढ़ाई घंटे तक झेल पाना मुश्किल सा हो जाता है.
वैसे फिल्म विजुअली कुछ अच्छी लगती है. पाकिस्तान की उभरती नायिका मावरा होकेन ने अपने दर्दभरे अभिनय से कमजोर कहानी को संभालने की काफी कोशिश की है. लेकिन जब कहानी ही पुरानी हो तो कोई क्या कर सकता है. पुराने जमाने की नायिकाओं की तरह इस फिल्म की नायिका को सीधीसादी दिखाया गया है जो सलवारकमीज पहनती है, कमीज भी पूरी बांह की, चोटी करती है, आंखों पर मोटा चश्मा लगाती है. माथे पर पूजा का टीका लगाती है, ठीक वैसे जैसे दक्षिण भारतीय लगाते हैं. वह बहनजी टाइप की लगती है. रोनेधोने वाली फिल्में पसंद करने वालों को भले ही यह फिल्म पसंद आए परंतु आज की युवा पीढ़ी को यह बिलकुल भी नहीं भाएगी. इस फिल्म का निर्देशन 2 निर्देशकों-राधिका राव और विनय सप्रू ने किया है.
फिल्म की कहानी एक दक्षिण भारतीय परिवार की है, जो एक सोसायटी के फ्लैट में रहता है. उस परिवार का मुखिया है जयराम (मनीष शर्मा) जो हद से ज्यादा रूढि़वादी है. परिवार में उस की पत्नी व 2 बेटियां सरस्वती उर्फ सरु (मावरा होकेन) और कावेरी हैं. उसी सोसायटी के एक फ्लैट में एक नौजवान इंदर (हर्षवर्धन राणे) भी रहता है, जो दिनभर अपने बंद फ्लैट में कसरत करता है और बियर पीता रहता है.
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