‘‘ब्लू’’ जैसी असफल फिल्म के निर्देशक टोनी डिसूजा से बहुत ज्यादा उम्मीद करना सही भी नहीं था. टोनी डिसूजा निर्देषित फिल्म ‘‘अजहर’’कहीं से भी एक फीचर फिल्म नहीं बल्कि एक घटिया टीवी सीरियल या घटिया डॉक्यूमेंटरी फिल्म ज्यादा लगती है. फिल्म के निर्देका टोनी डिसूजा का दावा है कि उनकी फिल्म ‘अजहर’ मशहूर क्रिकेटर मो.अजहरुद्दीन की बायोपिक फिल्म नही है, बल्कि उनकी जिंदगी पर आधारित नाटकीय फिल्म है. तो फिल्म को नाटकीय बनाने के चक्कर में टोनी डिसूजा ने पूरी फिल्म व इसके पात्र व तमाम दृष्यों को ही अविष्वसनीय बना दिया है. फिल्म की कहानी नब्बे के दशक की है. मो.अजहरूद्दीन ने 2002 के बाद क्र्रिकेट नहीं खेला. लेकिन क्रिकेट मैच के मैदान पर या अजहर के पहनावे में मैचो ’बनियाइन, डॉ.आथ्रो, गितांजली ज्वेलर्स के विज्ञापन दिखाए गए है. यह सारे वह प्रोडक्ट है,जिनकी पैदाइश 2002 के बाद की है. यानी कि निर्माता ने ‘इन फिल्म मेंकिंग एड’इकट्ठा करके अपनी फिल्म की लागत वसूल कर ली, पर वह यह भूल गए कि उनकी फिल्म की कहानी का काल क्या है. फिल्म देखकर दर्शक किसी अच्छी समझ के साथ सिनेमा घर से बाहर नही निकलता.

फिल्म की कहानी क्रिकेटर मो.अजहरूद्दीन पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगने के बाद अजहरुद्दीन की जबानी शुरू होती है. बीच बीच में अदालती प्रक्रिया भी चलती रहती है. यह कहानी है हैदराबाद के मो.अजहरुद्दीन(इमरान हाषमी)की. जिनके नाना (कुलभूषण खरबंदा) को अजहर के बचपन में ही देश के लिए सौ क्रिकेट मैच खेलने की क्षमता नजर आ जाती है. अपने नाना के सपनो को पूरा करने के लिए मो.अजहरुद्दीन मुंबई पहुॅच जाते हैं. करियर के शुरूआती तीन मैचों में लगातार शतक बनाकर वह शोहरत बटोरते हैं और उन्हे वरिष्ठ खिलाड़ियो की अवहेलना कर भारतीय क्रिकेट टीम का कैप्टन बना दिया जाता है. वह कई मैच जीतते हैं. इसी बीच वह नौरीन(प्राची देसाई)से शदी भी कर लेते हैं. जब वह सफल भारतीय क्रिकेट कैप्टन के रूप में शोहरत बटोर रहे थे, तभी लंदन में अजहर की नजर बौलीवुड स्टार संगीता बिजलानी (नरगिस फाखरी )पर पड़ती है और अजहर, संगीता को अपना दिल दे बैठते है. अपनी पत्नी नौरीन से इस सच को बयां करने की बजाय एक क्रिकेट मैच जीतने पर ट्रॉफी लेते समय अजहर खुलेआम ऐलान कर देते हैं कि इस ट्रॉफी हकदार उनके दिल के करीब रहने वाली संगीता बिजलानी है. बहरहाल,जब उन पर आरोप लगता है कि उन्होने बुकी एम के शर्मा(राजेश शर्मा)से मैच फिक्सिंग के लिए एक करोड़ रूपए लिए है,तो उन्हे क्रिकेट खेलने से मना कर दिया जाता है. तब अजहर अदालत पहुॅचते हैं. अजहर के दोस्त व वकील रेड्डी (कुणाल कपूर)लड़ते है. जबकि क्रिकेट एसोसिएशन की तरफ से मीरा (लारा दत्ता)केस लड़ती हैं. 12 साल तक मुकदमा चलता है.अंत में अदालत उन्हे मैच फिक्सिंग के इल्जाम  से बरी कर देती है.

फिल्म में अजहर के किरदार में इमरान हाषमी कहीं से भी फिट नहीं बैठते. पूरी फिल्म में उनके चेहरे पर सही भाव नही आए. अजहर की जिंदगी में जो उतार चढ़ाव रहे हैं या उन्होने जिस तरह से दो दो शदियां की, उसे लेकर भी अजहर की भावनाएं दर्शकों के दिलो तक नहीं पहुॅच पाती. फिल्म के पटकथा लेखक व संवाद लेखक रजत अरोड़ा बहुत बुरी तरह से असफल रहे हैं. कई जगह पर पटकथा के स्तर पर कन्फ्यूजन नजर आता है. संवाद भी स्तरीय नही है. संवाद लेखक के तौर पर अजहर के मुँह से ‘देश’ के साथ साथ बार ‘कौम’की बात करके वह क्या कहना चाहते हैं, यह तो वही जाने. पूरी फिल्म देखकर यही लगता है कि लेखक व निर्देशक का सारा ध्यान सिर्फ मो.अजहरुद्दीन को सही इंसान दिखाने पर ही केंद्रित रहा,जिसके चलते फिल्म की ऐसी की तैसी हो गयी.
फिल्म निर्देशक का दायित्व होता है कि वह फिल्म की कहानी व पटकथा के मद्दे नजर सभी पात्रों के लिए उपयुक्त कलाकारों का चयन करे,पर इस कसौटी पर वह असफल रहे है. अजहर ही नही किसी भी पात्र के लिए वह कलाकारो का सही चुनाव नहीं कर पाए. अजहर के किरदार में इमरान हाषमी ,कपिल देव के किरदार में वरूण वडोला, रवि शस्त्री के किरदार में गौतम गुलाटी भी अपने किरदारां के साथ न्याय करने में असफल रहे हैं. प्राची देसाई एक अच्छी अदाकारा है. इसमें कोई दो राय नहीं. नरगिस फाखरी भी संगीता बिजलानी के किरदार में नहीं जम पायी.व कील रेड्डी के किरदार में कुणाल रॉय कपूर प्रभाव डालने में अफसल रहे हैं. फिल्म के अदालती दृष्य भी बहुत घटिया बने हैं. फिल्म में एक दो गाने ठीक बने हैं.
एकता कपूर की कंपनी ‘‘बालाजी मोशन पिक्चर्स’’और सोनी पिक्चर्स द्वारा निर्मित दो घंटे साढ़े ग्यारह मिनट की फिल्म‘‘अजहर’’के लेखक रजत अरोड़ा, निर्देशक टोनी डिसूजा,संगीतकार प्रीतम व अमाल तथा कलाकार हैं- इमरान हाशमी, प्राची देसाई,नरगिस फाखरी, लारा दत्ता,कुणाल रॉय कपूर,गौतम गुलाटी,वरूण वडोला आदि.

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