‘‘औस्कर’’ के लिए भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में भेजी जाने वाली रीमा दास की फिल्म ‘विलेज रौक स्टार्स’ न सिर्फ पहली असमी भाषा की फिल्म है,बल्कि पहली पूर्वोत्तर भारत के किसी फिल्मकार की फिल्म है,जो कि पूर्णतः पूर्वोत्तर भारत में ही फिल्मायी गयी है. रीमा दास इस फिल्म की निर्माता होने के साथ साथ निर्देशक, लेखक, कैमरामैन व एडिटर भी है. फिल्म में अभिनय करने वाले बच्चे व बड़े सभी असम के चायगांव के हैं, जिन्होंने पहली बार अभिनय किया है. रीमा दास की इस फिल्म को इसी वर्ष ‘सर्वश्रेष्ठ फिल्म’, ‘सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार’ और सर्वश्रेष्ठ लोकेशन साउंड’’ सहित तीन राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. (ज्ञातव्य है कि 1988 में जहान बरूआ की फिल्म के बाद ‘स्वर्ण कमल’ पाने वाली यह दूसरी असमी फिल्म है.) इससे पहले यह फिल्म 80 अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में धूम मचाने के साथ ही 44 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी बटोर चुकी थी. इतना ही नहीं यह फिल्म भारतीय सिनेमा घरों में 28 सितंबर 2018 को पहुंची है.

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37 वर्षीय फिल्मकार रीमा दास के हौसले को सलाम किया जाना चाहिए, जिन्होंने असम में गौहाटी से 50 किलोमीटर दूर स्थित चायगांव से निकलकर 2003 में मुंबई पहुंची.

15 वर्ष के संघर्ष के बाद अपने बुलंद हौसले, अपनी मेहनत व लगन के बल पर उन्होने अंतरराष्ट्रीय सिनेमा जगत को अपनी प्रतिभा का अहसास कराते हुए अपनी दूसरी फिल्म ‘विलेज रौक स्टार्स’ के लिए लगभग पचास पुरस्कार हासिल कर लिए. इतना ही नहीं ‘‘भारतीय फिल्म फेडरेशन’’ को भी अहसास कराया कि 91वें औस्कर में ‘‘विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म’’ खंड में भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के तौर पर उनकी फिल्म ‘‘विलेज रौक स्टार्स’’ को ही भेजा जाना चाहिए. जबकि इस प्रतिस्पर्धा में बौलीवुड की कई बड़े बजट की चर्चित फिल्में भी थीं.

‘‘फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया’’ द्वारा असमी फिल्म ‘‘विलेज रौक स्टार्स’’ को औस्कर में भेजने के लिए चुने जाने के निर्णय के तीसरे दिन व ‘‘बुसान अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’’ में जाने से एक दिन पहले मुंबई में रीमा दास से लंबी एक्सक्लूसिव बातचीत हुई, जो कि इस प्रकार रही…

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लगता है आपको बचपन से ही कला का माहौल मिला, जिसके चलते आपने फिल्मों से जुड़ने का निर्णय लिया?

हकीकत में मेरी नियति मुझे यहां ले आयी. अन्यथा 2003 में मुंबई आने तक मैने ऐसा कुछ नहीं सोचा था. मैं असम से हूं. हमारे असम में कला का बहुत अच्छा माहौल है. फिर चाहे वह संगीत हो या अभिनय हो या नृत्य हो या कला का कोई भी फार्म हो. असम के लोग भले ही कला यानी कि संगीत या अभिनय को प्रोफेशन न बनाएं, पर वह कुछ हद तक कला से जुड़े रहते हैं. लोग अपने प्रोफेशन के अलावा हर माह कम से कम एक बार किसी न किसी कला को भी अपना वक्त देते ही हैं. असम का हर इंसान सेलीब्रेशन में यकीन करता है. तो हमें बचपन से यही सीख मिलती है. कला तो हमारी रगों में है.

मेरे परिवार में मेरे पिता शिक्षक हैं. मेरी मां किताब की दुकान चलाने के साथ साथ प्रिटिंग प्रेस भी संभालती हैं. मेरे परिवार ने हमें कला के क्षेत्र में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया, तो साथ में पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए भी जोर दिया.

मैंने छह वर्ष की उम्र से ही अभिनय करना शुरू कर दिया था. हमारे यहां सिर्फ स्कूलों में ही नहीं हर गांव में नाटकों का मंचन हुआ करता है. हमारे गांव में एक नाटक हो रहा था ‘‘सोमाय’ यानी कि ‘समय’, जिसमें एक छोटे लड़के की जरूरत थी. कोई लड़का मिला नहीं, तो मुझे ही लड़के के किरदार के लिए खड़ा कर दिया गया था. तो पहली बार अभिनय में मेरी शुरूआत एक लड़के का किरदार निभाकर हुई थी. उसके बाद तो नाटकों में अभिनय का सिलसिला चलता रहा. पढ़ाई भी चलती रही. पर असम के दूसरे लोगों की ही तरह मैंने भी अभिनय को प्रोफेशन की तरह नहीं लिया था. हमारे यहां मोबाइल थिएटर ज्यादा हैं. हमारे यहां लोग नाटकों में अभिनय करते हैं या संगीत के कार्यक्रम में गीत गाते रहते हैं. तो गांव के अलावा स्कूल में व कौलेज में भी मैं नाटकों में अभिनय करती रही. मैंने सोशियोलौजी विषय में एमए किया. यहां तक कि जब 2003 में मैं मुंबई आयी, उस समय भी मैं अभिनेत्री बनने के लिए नहीं आयी थी. बल्कि इस मकसद से आयी थी कि मुझे भविष्य के लिए नयी राह बनानी है. तो मैं मुंबई में माहौल देखने व कुछ नया सीखने के मकसद से आयी थी. सोचा था कि उसके बाद वापस अपने गांव असम चली जाउंगी. लेकिन मुंबई नगरी ने मुझे यहीं का बनाकर रख दिया.

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2003 में मुंबई पहुंचने के बाद ऐसा क्या हुआ कि आपने फिल्में बनाना शुरू कर दिया?

मुंबई पहुंचने के बाद भी मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मुंबई में कहां जाना है या क्या करना है? काफी दिक्कतें आ रही थी. इसी बीच एक दो दोस्त बन गए जिनके साथ मैने पृथ्वी थिएटर में जाकर नाटक देखना शुरू कर दिया. नाटक देखते देखते मैं खुद नाटकों में अभिनय करने लगी. मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित ‘गोदान’ सहित कई नाटकों में अभिनय किया. फिर फिल्में देखना शुरू किया. फिल्में देखते हुए मुझे लगा कि मुझे भी फिल्मों में अभिनय करना चाहिए. लेकिन उस वक्त मुझे हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाएं अच्छी तरह से नहीं आती थीं. इस समस्या के चलते मैं थोड़ा डिप्रेशन में भी आ गयी थी कि आखिर मैं क्या करूंगी? तब मैने हिंदी व अंग्रेजी भाषा सीखते हुए विश्व सिनेमा देखना शुरू किया. फिर तो फिल्म देखने का ऐसा नशा सवार हुआ कि मैं नई नई डीवीडी की तलाश करती रहती थी. फिल्में देखते देखते मेरे अंदर बेचैनी बढ़ी और मुझे लगा कि मुझे भी कुछ बनाना चाहिए. तब 2009 में वापस आसाम जाकर मैंने लघु फिल्म ‘‘प्रथा’’ बनायी, जिसे कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में काफी सराहा गया. इससे मुझे लगा कि अब मुझे यही काम करना चाहिए. फिर मैं वापस आसाम गयी. वहां सात-आठ लघु फिल्में बनायीं. पर फिर मुंबई वापस आ गयी. मैं अब मुंबई में रहती हूं, लेकिन फिल्में बनाने के लिए मैं अपने गांव ही जाती हूं. मेरे लिए वहां फिल्म बनाना आसान है. कम खर्च में मैं फिल्म बना लेती हूं. 10-12 लघु फिल्म बनाने के बाद 2011 में मैंने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘‘अंर्तदृष्टि’’ की पटकथा लिखनी शुरू की. नवंबर 2013 में मैंने अपनी पहली फीचर फिल्म की शुटिंग शुरू की. इस फिल्म को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में मेरी उम्मीद से कम सम्मान मिला. तब मैंने अपनी दूसरी फिल्म ‘‘विलेज रौक स्टार’’ पर काफी मेहनत की. पूरे चार वर्ष की मेरी मेहनत का परिणाम है मेरी फिल्म ‘विलेज रौक स्टार’ जिसे 80 इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सराहा गया. तीन राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा 44 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले.

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पर आपने पहले अभिनय करने के बारे में सोचा था?

जब मैंने फिल्म ‘पथेर पांचाली’ देखी, तो पहली बार मेरे दिल ने कहा कि मुझे अभिनेत्री नहीं फिल्म निर्देशक बनना चाहिए. उसके बाद इरानी फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म ‘चिल्ड्रेन आफ हैवेन’ देखकर मैंने तय कर लिया कि मैं फिल्म निर्देशक बनूंगी. इन फिल्मों से मैंने सीखा कि हम बहुत साधारण व छोटी बातों पर भी गहराई से असर करने वाली व दिल को छू लेने वाली वाली फिल्म बना सकते हैं. इसके लिए हमें ऐसी कहानी की भी जरुरत नहीं है जिसके लिए हमें बड़े बजट की जरुरत पड़े.

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इन फिल्मों में बच्चे नायक हैं, इसलिए आपकी फिल्म….?

मेरी बात पूरी होने से पहले ही रीमा दास ने कहा – मेरी पहली लघु फिल्म ‘प्रथा’ से लेकर अब तक मेरी हर फिल्म के मुख्य प्रोटोगौनिस्ट बच्चे ही रहे हैं. बच्चों के साथ काम करते हुए मैं खुद को बहुत सहज पाती हूं. बच्चे सवाल करने की बजाय हमारे विजन के अनुसार ही काम करते हैं.

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फिल्मकार के तौर पर आपको किस सिनेमा ने इंसपायर किया?

मुझे रियलिस्टिक सिनेमा ने इंस्पायर किया. लेकिन ऐसा नहीं है कि मुझे ‘बैटमैन’ या ‘स्पाइडरमैन’ जैसी फिल्में पसंद नहीं हैं. मुझे वह भी पसंद हैं. मेरी राय में दर्शक यह जानता है कि वह नकली दुनिया यानी कि सिनेमा देख रहा है, पर निर्देशक की जादूगरी के चलते वह सिनेमा को ही सच मान लेता है.

मसलन, स्पाइडर मैन इस दुनिया में है या नहीं, किसी को नहीं पता. पर सिनेमा का दर्शक निर्देशक द्वारा बताए गए स्पाइडरमैन को ही स्पाइडरमैन मान लेता है. वही निर्देशक सफल होता है, जो अपनी जादूगरी से लोगों को सिनेमा में वास्तविकता का यकीन दिला सके. मुझे तो हर हाल में सिर्फ रियलिस्टिक सिनेमा ही बनाना है. मैं अलग तरह के प्रयोग करते हुए सिनेमा बनाती रहूंगी.

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आपकी फिल्म ‘‘विलेज रौक स्टार्स’’ को ‘‘विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म खंड में औस्कर के लिए भेजे जाने के लिए चुनी जाने की खबर मिलने पर आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या रही?

उस वक्त मैं अपने परिवार के साथ असम के गांव के अपने घर पर ही थी, इसलिए खुशी से झूम उठी. यदि सड़क पर या कहीं दूसरी जगह होती तो शायद इतना खुलकर मैं न अपनी खुशी का इजहार न कर पाती. मेरी इस खुशी का हिस्सा मेरा पूरा परिवार बना.

आपको फिल्म के लिए कहानियां कहां से मिलती हैं?

आम लोगों से. मैं आम लोगों से बहुत मिलती हूं, उनसे बहुत बातें करती हूं. मैं लोगों के मुंह से उनकी जिंदगी की कहानियां सुनती हूं और वह सब मेरे दिमाग में संचित होता रहता है. फिर किसी इंसान की कहानी से प्रेरित होकर मैं अपनी लघु फिल्म या फीचर फिल्म की पटकथा लिखती हूं. लोगों के इमोशंस, उनके हावभाव को आब्जर्व करना मुझे पसंद है. मैं लोगों की सायकोलौजी को भी जानने की कोशिश करती हूं.

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फिल्म ‘‘विलेज रौक स्टार्स’’ की कहानी का प्रेरणा स्रोत क्या रहा?

जब मैं अपनी पहली फिल्म ‘‘मैन विद बाइनाकुलर्स’’(अंर्तदृष्टि) की शूटिंग असम में कर रही थी, तब एक दिन बिहू समारोह में नकली वाद्ययंत्र यानी कि कार्डबोर्ड के बने गिटार के साथ कुछ बच्चों को गाते देखा, तो मुझे ‘विलेज रौक स्टार्स’ की कहानी का बीज मिल गया. गरीबी में पल रहे बच्चों को पता था कि उन्हें अपनी जिंदगी का जश्न कैसे मनाना है. मुंबई में हम बहुत ही ज्यादा मैटेरियलिस्टिक व बनावटी जिंदगी जीते हैं. हम सुबह उठते ही क्या काम करना हैं, कहां दौड़भाग करनी है, इसी में व्यस्त हो जाते हैं और पूरा दिन भागते भागते बीत जाता हैं. पर मुझे अपने गांव में अहसास हुआ कि वास्तव में जिंदगी क्या है? खुशियां क्या हैं? गांव के उन बच्चों ने उस दिन मुझे अहसास कराया कि जिंदगी का जश्न क्या होता है? जीवन में छोटी छोटी खुशियां ही हमें आनंद प्रदान करती हैं. मैंने पाया कि मुंबई जैसे शहरों में बच्चों के खेलने की कोई जगह नही है, पर हमारे गांव में बच्चे प्रकृति के बीच खेलते हैं. पेड़ों पर चढ़ते व झूलते हैं. नदी तलाब में नहाते हैं. मैंने पाया कि हमारे गांव के बच्चे गरीब हैं, पर वह प्रकृति के साथ घुल मिलकर सर्वाधिक खुशियां पा रहे हैं.

आपने फिल्म की नायिका धुनू को गिटार वादक के रूप में ही क्यों पेश किया?

सबसे पहली बात तो गिटार मेरा पंसदीदा वाद्ययंत्र है. दूसरी बात गिटार मौडर्न इंस्ट्रूमेंट होने के बावजूद लोगों की भावनाओं के साथ बहुत जल्द जुड़ता है. गिटार से आजादी का अहसास होता है. मैंने अपनी इस फिल्म के माध्यम से लड़कियों की आजादी की बात की है. क्योंकि हमारे असम में अभी भी लड़कियों पर बहुत ज्यादा बंदिशें हैं. हमने फिल्म में नारी सशक्तिकरण और लैंगिक समानता की बात की है.

असम में लड़कियों पर किस तरह की बंदिशें हैं?

मुंबई की तरह हमारे यहां लड़कियों को आजादी नहीं है. जब लड़कियां सयानी हो जाती हैं, तब समस्या ज्यादा हो जाती है. अंधेरा होने के बाद लड़कियों को घर से बाहर निकलने नहीं दिया जाता. वहां हम लोगों के लिए दिक्कतें बहुत हैं. कुछ प्राकृतिक दिक्कतें भी हैं. पर हम लोग जी रहे हैं. अब तो आसाम में भी फिल्में बनने लगी हैं.

फिल्म ‘‘विलेज रौक स्टार्स’’ के निर्माण के लिए धन कहां से जुटाया?

इस फिल्म के निर्माण में मेरे पारिवारिक सदस्यों व रिश्तेदारों का ही योगदान है. हमने पूरी फिल्म अपने घर व अपने गांव असम के चयगांव, जो कि गौहाटी से 50 किलोमीटर दूर है, में फिल्मायी है. तो लोकेशन का पैसा नही लगा. घर में अपनी मां के साथ रहती थी. मेरे पास अपना कैमरा ‘कैनन 5 डी’ है, जिससे मैंने फिल्म की शूटिंग की. खाना मां बनाकर देती थी. फिल्म में मुख्य किरदार मेरी भतीजी भनिता दास व कजिन बसंती दास ने निभाया है. बाकी कलाकार भी गांव के बच्चे ही हैं. तो कलाकारों को पैसा नहीं देना पड़ा. मेरी चचेरी बहन मल्लिका मेरी सहायक थी. वही लोकेशन साउंड का ध्यान रख रही थी, जिसे पुरस्कार भी मिला. बाकी कोई क्रू मेंबर नहीं था. सारा काम मैं खुद ही कर रही थी. हमने चार वर्ष में यह फिल्म पूरी की. इसलिए फिल्म की शूटिंग पूरी होने तक कोई ज्यादा खर्च नहीं आया. पोस्ट प्रोड्क्शन में खर्च आया. मुझे हौन्ग्कौंग से ग्रांट मिली, जिसके चलते बैंकाक में फिल्म का कलर ग्रेड करवाया. साउंड के लिए अपनी जेब से पैसे डाले.

धन के अभाव के चलते आपने धुनु के किरदार के लिए अपनी भतीजी भनिता दास को चुना?

हमने पूरी फिल्म अपने पैसे से बनायी है. मेरी भनिता दास ने अब तक अभिनय नही किया था, वही नहीं फिल्म में जितने कलाकार हैं, सभी ने पहली बार काम किया है, पर उसने इतना बेहतरीन काम किया कि उसे इस फिल्म के लिए ‘सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार’ मिला. अब वह आगे अभिनय करेगी या नहीं, यह तो मुझे नहीं पता. फिलहाल वह 9वीं कक्षा में पढ़ रही है. मुझे लगता है कि वैसे भी हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बच्चों के लिए करियर कुछ खास नही है. मैं चाहती हूं कि वह अभी पढ़ाई करे. उसकी अपनी जिंदगी है, उसकी यात्रा है. नियति ने उसके बारे में क्या लिखा है? किसी को नहीं पता. पर मैं चाहती हूं कि वह पढ़ाई पर ध्यान दे. यदि मैंने पढ़ाई न की होती, तो मैं यहां तक नही पहुंच पाती. यदि मैं आज आपसे हिंदी में बात कर रही हूं या पूरी दुनिया घूमते हुए अंग्रेजी में बात करती हूं, तो यह सब मेरी अपनी पढ़ाई की वजह से ही संभव हुआ.

औस्कर में आपकी फिल्म भेजी गयी है.अब आपकी क्या योजना है?

मेरा संघर्ष बहुत बड़ा है. क्योंकि मैं एक इंडीपेंडेंट छोटी फिल्मकार हूं. औस्कर में हमारा मुकाबला बडे़ बड़े स्टूडियो की फिल्मों से है. पर मेरे अंदर डर नही है. हमें उम्मीद है कि हम औस्कर भी ले आएंगे. मैं खुद को खुशनसीब समझती हूं कि पिछले 3 वर्ष से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तमाम दोस्त बनाए हैं, जिन पर मैं भरोसा कर सकती हूं. मेरे लिए यह बहुत खर्चीला है. कम से कम 4 से 5 करोड़ रूपए खर्च होनेवाले हैं और मेरे पास पैसे नही हैं. आसाम सरकार ने पचास लाख रूपए देने की बात कही है. इसके अलावा जब से फिल्म को औस्कर में भेजने की घोषणा हुई है, तब से तमाम लोग आर्थिक मदद करने का प्रस्ताव भेज रहे हैं. मैं अभी दो तीन दिन इंतजार करने वाली हूं कि शायद सरकार की तरफ रकम बढ़ा दी जाए. उसके बाद जिन लोगों ने पैसे देने का प्रस्ताव दिया है, उनसे पैसे लूंगी. अब लोग तो ‘विलेज रौक स्टार’ को अपनी फिल्म मान रहे हैं.

पहले फिल्में रील में बना करती थीं. अब डिजिटल में बन रही हैं. इससे क्या फर्क आया?

जब रील में फिल्में बनती थीं यानी कि सेल्यूलाइड सिनेमा ज्यादा वास्तविक और प्योर होता था. पर उनकी लागत बहुत आती थी. डिजिटल सिनेमा में प्योरिटी का अभाव है, पर लागत कम आती है. सेल्यूलाइड सिनेमा का लुक बहुत अलग होता है. पर मुझे लगता है कि आप रील या डिजिटल में सिनेमा बनाएं, पर कहानी सही ढंग से कही जानी चाहिए. फिर अब जब लोग फिल्में मोबाइल पर देखते हैं, तो उन्हें गुणवत्ता से कोई फर्क नहीं पड़ता.

मिजोरम में एक भी सिनेमाघर नहीं है. वहां बौलीवुड फिल्में प्रदर्शित नहीं होतीं. असम में क्या स्थिति है?

असम में 80 स्क्रीन्स हैं. इसके अलावा असम में चलते फिरते सिनेमाघर काफी हैं. हर दूसरे सप्ताह कोई न कोई बड़ी बौलीवुड फिल्म वहां पर प्रदर्शित होती है.असम में असमी भाषा में कई फिल्मेंं बन चुकी हैं.असम में 1935 से फिल्में बनती आ रही हैं. 1935 में सबसे पहले ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने पहली असमी फिल्म ‘‘जोयमौटी’’ का निर्माण किया था. फिर प्र्रामथेस बरूआ ने ‘देवदास’ बनायी. मगर आसामी सिनेमा को राष्ट्रीय पहचान पाने में 53 वर्ष लगे. 1988 मे जहानू बरूआ निर्देशित फिल्म ‘‘हलोधिया चोरैये बौधन खाए’’ (द कातास्तोफे) को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजते हुए ‘‘स्वर्ण कमल’’ प्रदान किया गया था. उसके 30 वर्ष बाद ‘‘सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार व स्वर्ण कमल’ जीतने वाली दूसरी असमी फिल्म बनी है ‘विलेज रौक स्टार्स’’. आदिल हुसेन जैसे कई चर्चित कलाकार हैं. पर फिल्म वितरण की समस्या वहां भी है.

आपको लिखने का भी शौक है?

इस मामले में बहुत आलसी हो गयी हूं. पहले मैंने कविताएं बहुत लिखी हैं. दो तीन कहानियां भी लिखी हैं. पर अब तो बहुत आलसी हो गयी हूं. फिलहाल फिल्म देखने और बनाने में मजा आता है. पर भविष्य को लेकर कुछ नहीं कह सकती.

भविष्य की योजना क्या है?

फिलहाल दो मोर्चों पर काम कर रही हूं. मैंने असम में ही अपनी तीसरी फिल्म ‘‘बुलबुल कैन सिंग’’ भी बनायी है जो कि एक टीनएज प्रेम कहानी है. इसका विश्व प्रीमियर 6 सितंबर को ‘टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में हो चुका है. टोरंटों से वापस आते ही ‘‘विलेज रौक स्टार्स’’ के औस्कर में भेजने की खुशखबरी मिल गयी. अब कम से कम फरवरी 2019 तक इस फिल्म के प्रचार आदि पर वक्त देना पड़ेगा. इसी बीच ‘‘बुलबुल कैन सिंग’’ 4 अक्टूबर से 13 अक्टूबर के बीच ‘‘बुसान अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव’’ के अलावा मुंबई में 25 अक्टूबर से आयोजित होने वाले ‘‘मामी’’ फेस्टिवल में ‘‘बुलबुल कैन सिंग’’ दिखायी जाएगी, तो उसके लिए भी वक्त देना है.

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