सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस मार्कन्डेय काटजू के बारे में अब हर कोई समझने लगा है कि वे जब भी कुछ बोलेंगे वह लगभग बेतुका ही होगा, लेकिन वह दिलचस्प होगा और उसमें कोई न कोई संदेश होगा इस बात की गारंटी भी उनमे दिलचस्पी रखने वाले लोगों को रहती है जो संख्या में बहुत कम हैं. काटजू ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली है जिसमें उन्होंने अमिताभ बच्चन को बिना दिमाग वाला इंसान करार दिया है.

बक़ौल काटजू अमिताभ बच्चन में एक अच्छा एक्टर होने के अलावा और क्या है? क्या उन्होंने कभी देश की किसी समस्या को सुलझाया है? कभी नहीं. जब अमिताभ बच्चन मीडिया चैनलों पर आते हैं तो अच्छी बातें करते हैं और उपदेश देते नजर आते हैं. कभी कभी वह पैसा लेकर अच्छी बातें करते नजर आते हैं. सीधे सीधे कहा जाए तो काटजू अमिताभ बच्चन की तुलना उन ब्रांडेड धर्म गुरुओं से कर रहे हैं, जो प्रवचन कर पैसा बटोरते हैं. कुछ और हो न हो पर देश में प्रवचन वाकई सनातनी और शाश्वत धंधा है, फर्क इतना है कि अमिताभ भगवा, गेरुए वस्त्र नहीं पहनते, लेकिन अपनी नैतिकता की चाशनी में लिपटी बातों से आम लोगों को बेवकूफ बनाते हैं ऐसा काटजू मानते हैं, लेकिन देश उनके मानने न माने से प्रभावित नहीं होता तो वे और झल्ला उठते हैं.

काटजू की बातों में कोई संदर्भ प्रसंग नहीं होता, व्यवस्था और आस पास पसरी बिखरी उदासीनता और सुस्ती के प्रति भड़ास भर होती है. यह हर्ज की  बात कतई नहीं. हर्ज की बात है चर्चित लोकप्रिय और अपने क्षेत्र के कामयाब लोगों से बेवजह चिढ़ना और उनके प्रति अपने भीतर मकड़ी सा जाल बुन रही ईर्ष्या को तार्किक तरीके से व्यक्त करने की असफल कोशिश करना. दरअसल में काटजू का गुस्सा शासकों पर यह कहते था कि कार्ल मार्क्स धर्म को जनता के लिए अफीम की तरह मानता था, जिसका इस्तेमाल सत्ता धारी दवा की तरह करते थे, जिससे जनता को शांत रखा जा सके और वह विद्रोह न कर सके, लेकिन भारतीय जनता को शांत रखने के लिए कई तरह की ड्रग्स की जरूरत होती है.

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