राष्ट्रीय स्तर के तैराक से राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्मकार बने राकेश ओम प्रकाश मेहरा ‘अक्स’, ‘रंग दे बसंती’, ‘दिल्ली 6’ और ‘‘भाग मिल्खा भाग’’ जैसी फिल्में निर्देशित कर अपनी छवि अलग सोच वाले निर्देशक की बना चुके हैं. फिल्म ‘रंग दे बसंती’ के प्रदर्शन के बाद ही संसद में एक कानून में बदलाव किया गया था. युवा वर्ग में एक जागरूकता आयी. यानी कि फिलमें समाज पर असर डालती हैं. यह बात उभर कर आयी. अब वही फिल्मकार एक रोमांटिक फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ को लेकर चर्चा में है. तो दूसरी तरफ राकेश ओम प्रकाश मेहरा लड़कियों के लिए ‘टॉयलेट मुहीम’ की वजह से भी सुर्खियों में हैं. राकेश ओम प्रकाश मेहरा की गिनती चंद बेहतरीन सोच वाले उत्कृष्ट फिल्म निर्देशकों में होती है. मगर उनकी ख्वाहिश है कि लोग उन्हे फिल्म निर्देशक की बजाय ‘‘टॉयलेट मैन’’ के रूप में याद करें. आखिर उनके मन में यह ख्याल क्यों आया?
वास्तव में राकेश को यह बात व्यथित करती है कि हमारे देश की लड़कियां ग्यारह साल की उम्र में महज स्कूल में ‘टॉयलेट’ के अभाव में पढ़ाई छोड़ देती हैं. उन्होंने अपने मन के दर्द को बयां करते हुए ‘‘सरिता’’ पत्रिका से खास बातचीत में कहा-‘‘हमारे देश में लड़कियों का बहुत बुरा हाल हो रहा है. शोषण बढ़ता जा रहा है. आप देखिए, स्कूलों में भी लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है. जिसकी वजह से तमाम लड़कियां ग्यारह बारह साल की उम्र में पहुंचते ही पढ़ाई छोड़ देती हैं. इसलिए मैं एक मुहीम से जुड़ा हूं. जिसके तहत हम स्कूलों में लड़कियों के लिए खासतौर पर टायलेट बनवा रहे हैं.
यह मुहीम दो साल पहले शुरू हुई है. वास्तव में हमारी फिल्म ‘रंग दे बसंती’ के बाद कुछ युवको ने मुझसे संपर्क किया कि वह समाज में बदलाव लाने के लिए कुछ काम करना चाहते हैं. कुछ युवक दो साल पहले विदेश की अपनी नौकरी छोड़कर आ गए. हमने योजना बनायी और पिछले एक साल से हम टॉयलेट बनाने का काम कर रहे हैं. हमने गुजरात के अहमदाबाद के म्यूनिसिपल स्कूल से शुरूआत की. फिर बरोडा के स्कूल को लिया. पहले पचास टॉयलेट बने. फिर सौ और अब तीन सौ टॉयलेट बना चुके हैं. मैने अभी सारे टॉयलेट लड़कियों के लिए बनवाए हैं. हमने देखा कि म्यूनीसिपल स्कूल में लड़कियों के लिए टॉयलेट नहीं है. यदि किसी स्कूल में हैं, तो वह इस हालात में हैं कि उनका उपयोग नहीं किया जा सकता. मुझसे लड़कियां, उनके माता पिता अब मिलते हैं और अपने हालात बताते हैं.’’
‘‘टॉयलेट मुहीम’’ से जुड़ने की चर्चा करते हुए राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने आगे कहा-‘‘वास्तव में दो साल पहले पहली बार मैं गांधीधाम, साबरमती के आश्रम गया था. बहुत बड़ी इमारत है. बीच में दो छोटी सी कुटिया यानी कि कोठरी है. एक में गांधी जी रहते थे. दूसरे में विनोबा भावे रहते थे. पास में ही एक अलग छोटी सी कुटिया है, जिसमें कस्तूरबा गांधी सोती थी. बीच में आंगन है. चौका है. एक पेड़ है. मेरे दिमाग मे आया कि हद कर दी, उस इंसान ने तो. चार सौ स्क्वायर फुट की जगह में रहते हुए चरखा पकड़कर गांधी जी ने देश को आजादी दिलायी. आखिर यह क्या इंसान था. फिर मैं एक दूसरे कमरे में गया, तो उनका टॉयलेट देखा. उसके बाद मेरे मन में आया कि मुझे इस मुहीम की शुरूआत करनी चाहिए. मेरे दिमाग में आया कि मैं तो फिल्मकार हूं, किसी उद्योगपति को फोन करुंगा, तो पांच करोड़ रूपए मिल जाएंगे. एक टॉयलेट को बनाने और उसकी एक साल तक देखभाल करने के लिए सफाई कर्मी को रखने का खर्च पांच लाख रूपए आते हैं. यानी कि पांच करोड़ में सौ टॉयलेट बन जाएंगे. मेरी कोशिश रंग लायी. कारपोरेट कंपनियों ने इन टॉयलेट को गोद लेना शुरू किया. जिसके चलते गुजरात में अब तक साढ़े तीन सौ टॉयलेट बन गए.’’
वह आगे कहते हैं-‘‘हम महाराष्ट् में भी इस काम को अंजाम दे रहे हैं. मुंबई से सटे थाणे में हमारे पहले टॉयलेट का उद्घाटन आगामी छह अगस्त को होने वाला है. राजस्थान में हमने बाड़मेर में 50 और जोधपुर में 50 टॉयलेट बनाए हैं. अब वहां भी हमारी रिसर्च के आधार पर कुछ कारपोरेट कंपनियां आगे आ रही हैं. महाराष्ट् के मराठवाडा क्षेत्र में सबसे अधिक टॉयलेट की जरूरत है. मैं तो चाहता हूं कि ज्यादा से ज्यादा टॉयलेट बन जाएं, जिससे लड़कियों की तकलीफ कम हो. जब लड़कियां बाहर मैदान में शौच के लिए जाती हैं, तो उनके साथ तमाम हादसे होते रहते हैं. दो चार दिन पहले ही मैंने पढ़ा कि मेरठ में एक महिला शौच के लिए गयी थी. पर लोगों ने बलात्कार कर उसका शव पेड़ पर लटका दिया. कितनी दुःखद स्थिति हमारे देश में हैं. महिला शौच के लिए जाती है और बलात्कार करा कर वापस आती है.’
राकेश ओम प्रकाश मेहरा इतने पर ही नहीं रूकते हैं. वह कहते हैं-‘‘हम लोग लिंग भेद को लेकर भाषणबाजी करते हैं. हम एक टीवी के रियालिटी शो में एक एपीसोड में इसकी चर्चा कर लेते हैं और अपने आपको महान बताने लगते हैं. दो चार अंग्रेज आते हैं, भाषणबाजी करके चले जाते हैं. ऐसे लोगों को हमारे देश के ऐसे क्षेत्रों में भेजना चाहिए, तब इन्हें असलियत पता चलेगी.’’
आपकी इस मुहीम का नाम क्या है? इस सवाल पर राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने कहा-‘‘हमारी यह मुहीम ‘युवा अनस्टापेबल’ संस्था का ही हिस्सा है. ‘युवा अनस्टेपबल’ का अर्थ हुआ, ऐसा युवा जिसे रोका ना जा सके. (फिर वह हमें इस वेबसाइट को दिखाते हैं और पुराने टॉयलेट की स्थिति तथा नए बनाए गए टॉयलेट के फोटोग्राफ दिखाते हुए कहते हैं) मैं तो दिल्ली के स्कूल में पढ़ा हूं. मैंने बहुत देखा है. अब हमारी मुहीम तेजी से आगे बढ़ने वाली है. अमेरिका से भी कुछ पैसा आने वाला है. इससे हमारे टॉयलेट कुछ ज्यादा बन जाएंगे. ‘युवा अनस्टापेबल’ का केंद्र अहमदाबाद में है. कई युवा काम कर रहे हैं. मैं उनका मेंटर बना हुआ हूं. सच कह रहा हूं. मैं बौलीवुड से जुड़ा हुआ हूं. मैंने कुछ अच्छी फिल्में बनायी हैं, उसका फायदा मुझे मिल रहा है. हमने जो काम कर रहे है, वह सभी के सामने है. हमने ‘केपीएमजी’ को इस मुहीम का पूरा एकाउंट संभालने के लिए कहा है. आईआईएम अहमदाबाद से कहा है कि इसका जो असर है, उसे स्टडी करें. इस तरह अच्छा काम लोग कर रहे हैं. जो पैसा आ रहा है, जो खर्च हो रहा है, उसका हिसाब एक अलग स्वतंत्र संस्था रख रही है. जो टॉयलेट/ शौचालय बनाए जा रहे हैं, वह किस तरह का काम है, वह सब लोगों के सामने हैं, जिसे लोग कभी भी देख सकते हैं. हमारी मुहीम पूरी पारदर्शिता के साथ चल रही हैं. यह काम होना ही है.’’
राकेश ओमप्रकाश मेहरा का मानना है कि ‘टॉलयलेट’ तो होना ही है. वह कहते हैं-‘‘सच कहूं तो मुझे नहीं लगता कि मैं कोई अच्छा काम कर रहा हूं. मुझे लगता है कि यह काम होना ही है. जिस तरह से हम भोजन करते हैं. रात में सोते हैं. उसी तरह से सुबह शौच जाने के लिए टॉयलेट होना ही है. अब आप सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं रह सकते. सरकार तो अपना काम कर रही है.’’
वह आगे कहते हैं-‘‘टॉयलेट मुहीम को शुरू करने के बाद मेरी मुलाकात कई अच्छे लोगों से हुई. महिंद्रा ग्रुप से मेरी बात हुई. तो पता चला कि उनकी कंपनी ने भी इसी तरह की मुहीम शुरू कर रखी हैं और कई करोड़ रूपए खर्च कर चुकी है. इसी तरह श्रीमती मूर्ती ‘अक्षरधाम’ के नाम से बहुत कुछ कर रही हैं. तो मैं खुश हूं कि मेरी टॉयलेट की मुहीम तेजी से आगे बढ़ रही है.’’
अपनी ख्वाहिश की चर्चा करते हुए राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने कहा-‘‘मुझे लोग ‘टॉयलेट मैन’ कहें , तो खुशी होगी. मेरी ख्वाहिश है कि लोग मुझे फिल्म निर्देशक भले ना कहें, पर ‘टॉयलेट मैन’ जरूर कहें. यदि मुझसे कोई पूछे कि मरते समय तुझे क्या कहा जाए? एक फिल्म निर्देशक या टॉयलेट मैन. तो मैं चाहूंगा कि लोग मुझे ‘टॉयलेट मैन’ के रूप में याद करें. मेरे लिए यह बहुत महत्व रखता है. यही मेरी ख्वाहिश है. मैं तो चाहता हूं कि हर स्कूल में इतने टॉयलेट बनाए जाएं कि किसी भी लड़की को स्कूल में टॉयलेट ना होने की वजह से पढ़ाई ना छोड़नी पड़े. मैं चाहता हूं कि हर घर में टॉयलेट हो. फिर वह घर चाहे गांव का हो या शहर का. जिससे किसी लड़की को घर से बाहर सड़क पर या जंगल में या खेतों में षौच के लिए ना जाना पडे़’’