बरसों पहले वह अपने दोनों बेटों रौनक और रौशन व पति नरेश को ले कर भारत से अमेरिका चली गई थी. नरेश पास ही बैठे धीरेधीरे निशा के हाथों को सहला रहे थे. सीट से सिर टिका कर निशा ने आंखें बंद कर लीं. जेहन में बादलों की तरह यह सवाल उमड़घुमड़ रहा था कि आखिर क्यों पलट कर वह वापस भारत जा रही थी. जिस ममत्व, प्यार, अपनेपन को वह महज दिखावा व ढकोसला मानती थी, उन्हीं मानवीय भावनाओं की कद्र अब उसे क्यों महसूस हुई? वह भी तब, जब वह अमेरिका के एक प्रतिष्ठित फर्म में जनसंपर्क अधिकारी के पद पर थी.
साल के लाखों डालर, आलीशान बंगला, चमचमाती कार, स्वतंत्र जिंदगी, यानी जो कुछ वह चाहती थी वह सबकुछ तो उसे मिला हुआ था, फिर यह विरक्ति क्यों? जिस के लिए निशा ससुराल को छोड़ कर आत्मविश्वास और उत्साह से भर कर सात समंदर पार गई थी, वही निशा लुटेपिटे कदमों से मन के किसी कोने में पछतावे का भाव लिए अपने देश लौट रही थी.
उद्घोषिका की आवाज सुन कर नरेश ने निशा की सीटबेल्ट बांध दी. आंखें खोल कर निशा ने देखा तो पाया कि नरेश कुछ अधिक ही उत्साही नजर आ रहे थे. एकदम बच्चों की तरह बारबार किलक कर हंस रहे थे. इतने खुश इन 20 सालों में वह पहले कभी नहीं दिखे.
अमेरिका की धरती पर तो नरेश ने एक लंबी चुप्पी ही साध ली थी. और उन की चुप्पी को कमजोरी समझ कर निशा अब तक अपनी मनमानी करती रही थी.
आंखों ही आंखों में नरेश बारबार निशा को भरोसा दिला रहे थे कि देखना हवाईअड्डे पर हमें लेने बाबूजी जरूर आएंगे. मेरे रिश्तों की नींव इतनी कमजोर नहीं कि जरा से भूकंप से हिल जाए.
सामान ले कर बाहर आने के बाद भी जब कोई घर का सदस्य नजर नहीं आया तो नरेश थोड़ा परेशान हो गए पर तभी पीछे से आवाज आई, ‘‘मुन्ना.’’ पलट कर देखा तो शीतल, गरिमामय व्यक्तित्व के स्वामी बाबूजी खडे़ थे. मां के अंतिम संस्कार में न आ सकने के कारण शरम से गडे़ जा रहे नरेश को आगे बढ़ कर बाबूजी ने हृदय से लगा लिया. बहू निशा, जो भारत की धरती पर उतरने से पहले तक चरणस्पर्श को ‘अति विनम्रता प्रदर्शन’ मानती थी, अनायास ही अपने ससुर के कदमों में झुक गई. बाबूजी की खुशी का कोई ठिकाना न रहा. बचपन और बुढ़ापा एक जैसा होता है, बालक और बूढे़ जितनी जल्दी रूठते हैं, उतनी ही जल्दी मान भी जाते हैं. बाबूजी से स्नेह पाते ही निशा और नरेश दोनों की आंखों से अविरल आंसू बहने लगे और एक पिता के रूप में चौधरी निरंजन दास की अनुभवी आंखें ताड़ गईं कि दाल में जरूर कहीं कुछ काला है. पर वह यह सोच कर खामोश रहे कि बच्चे कितने भी बडे़ क्यों न हो जाएं मांबाप की गोद में अपने को हमेशा महफूज समझते हैं.
इस के बाद 2 सुंदर, सजीले, मजबूत कदकाठी के नौजवान आए और चट से निशा के पैरों में झुक गए. दोनों में से एक ने आंख दबा कर पूछा, ‘‘क्यों चाची, पहचान रही हो कि नहीं?’’ और फिर जोर से ठहाका मार कर हंसने लगा. निशा अपलक दोनों को देखती रह गई.
तो ये बडे़ जेठ के बेटे केशव और यश हैं, सुंदर, सुशील, विनम्र और रोबीले, बिलकुल अपने दादा की प्रतिकृति. जिन्हें कभी निशा देहाती, गंवार और उजड्ड कहा करती थी, जो धूल सने हाथों से कच्ची अमियां तोड़ कर खाते थे और जिन की नाक हमेशा बहती रहती थी, ऐसे दोनों बच्चों के चेहरों से अब विद्वता और शालीनता टपक रही थी. यह सोच कर निशा को शक भी हुआ कि हमेशा घरेलू कामों में व्यस्त रहने वाली जेठानी के हाथों ने कौन से सांचे में ढाल कर इन्हें इतना योग्य बनाया है.
निशा के विचारों की कड़ी अपनी जेठानी रमा की आवाज सुन कर टूटी. साधारण रूपरंग, थुलथुल बदन, चौडे़ किनारे की साड़ी पहने रमा ने भौंहों के बीच बड़ी बिंदिया लगाई थी. बडे़ प्रेम से वह निशा के गले मिली और कान में धीरे से फुसफुसा कर बोली, ‘‘देवरानीजी, कम से कम बिंदिया तो लगाया करो.’’
पहले निशा उन के इस तरह टोकने पर चिढ़ती थी क्योंकि वह उन्हें एक औसत सोच वाली घरेलू महिला भर समझती थी पर आज इस बात पर मन में कोई भाव नहीं आया. रमा के चेहरे पर परम संतुष्टि के भाव, असीम तेज और आत्मत्याग की पवित्र आभा के दर्शन हुए.
गाड़ी में बैठने के बाद बाबूजी ने कहा कि रौनक और रौशन भी साथ आ जाते तो उन्हें भी नजर भर कर देख लेता और गीली पड़ गई आंखों की कोर को वे कंधे पर पडे़ सफेद गमछे से पोंछने लगे.
रौनक और रौशन का नाम सुनते ही निशा और नरेश दोनों के चेहरों से चमक गायब हो गई. क्या कहे निशा? कैसी परवरिश दे सकी वह अपने बेटों को. एक आज फ्लोरिडा की जेल में बंद है तो दूसरा आजाद जिंदगी के फैशन की तर्ज पर किसी पैसे वाली अमेरिकी महिला के साथ होटल में रह रहा है.
किस गर्व से अभिमानित हो कर वह अपने दोनों बेटों को ससुराल के सामने रखती और कहती कि देखो, तुम लोगों से दूर ले जा कर, उस नई दुनिया का नवीन चलन अपना कर किस कदर मैं ने इन की ंिजंदगी संवारी है.
गाड़ी रुकी तो देखा ससुराल आ गई थी. पुरखों की हवेली 2 हिस्सों में बांट दी गई थी. अंदर कदम रखते ही निशा ने देखा सामने सास की बड़ी तसवीर टंगी थी. तसवीर पर चढ़ाए ताजे फूल इस बात के गवाह थे कि उन के प्रति घर में रहने वालों की संवेदनाएं अभी बासी नहीं हुई थीं.
अतीत के चलचित्र परत दर परत निशा के सामने खुलने लगे. अमेरिका में उस का बड़़ा सा घर, पैसे को ले कर मां और बेटे के बीच बहस, फिर हाथ में हथौड़ा ले कर रौनक का उस के सिर पर वार करना और पैसे ले कर घर से भागना, फिर पुलिस, हथकड़ी और इस के आगे वह कुछ नहीं सोच सकी और बेहोश हो गई.
होश में आई तो देखा केशव उस के पैरों के तलवे सहला रहा था. यश डाक्टर को लेने गया हुआ था और बाबूजी सिरहाने बैठे थे. वह फूटफूट कर रो पड़ी. बाबूजी उन बहते आंसुओं को देख कर सोच में पड़ गए. बडे़ प्रेम से निशा के सिर पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘बिटिया, तू हमेशा मुझ से लड़ती रही पर रोई नहीं, आज विदेश से ऐसा कौन सा दुख हृदय में बसा कर लाई है जो पलकों पर आंसू हैं कि सूखते नहीं.’’
निशा सूनी आंखें लिए बाबूजी को देखती रही.
दूसरे दिन जब निशा की नींद खुली तो देखा नरेश परिवार के साथ बैठ कर हंसहंस कर नाश्ता कर रहे हैं. मक्के की रोटी और सरसों का साग ऐसे उंगली चाटचाट कर खा रहे हैं जैसे इतने सालों तक अमेरिका में ये भूखे ही रहे. अमेरिका में गुमसुम से अकेले मेज पर बैठ कर टोस्ट चबाते थे. आफिस में भी ठंडागरम जैसा भी मिलता था खा लेते थे. तब निशा को ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि वह महज पेट भरने के लिए खा रहे हैं. अपने बच्चे थे फिर भी उन से बात इंटरनेट या ईमेल के जरिए होती थी. पैसों की जरूरत क्रेडिट कार्ड पूरी कर देता था. इस अकेलेपन से नरेश अंदर ही अंदर घुटते रहे और मुरझा गए.
निशा को लगा कि नरेश एक ऐसे पौधे की तरह थे जो खुली हवा और स्वतंत्र वातावरण में सांस लेना चाहता था, पर उस ने उस पौधे को सजावट बढ़ाने के लिए फैशनेबल ढंग से ट्रिम किया और गमले में सजा दिया, जिस से वह पौधा खिलने के बजाय मुरझा गया.
वह बिस्तर से उठी और फे्रश होने के बाद जा कर टेबल पर बैठ गई. यश और केशव उस से हंसहंस कर अपने बारे में बताने लगे. पता चला यश कुछ दिन हुए कंप्यूटर विज्ञान में स्नातक हो कर लौटा है और केशव खानदानी कामधंधे में पिता का हाथ बंटा रहा है. रमा रसोई और खाने की मेज के बीच आ जा रही थी और दोनों बच्चे अपनेअपने सामान के लिए मांमां करते हुए उन के आगेपीछे घूम रहे थे.
यह सब देख कर निशा को लगा, रमा दी ने त्याग, समर्पण और अपनत्व भरे स्वाभिमान के जो बीज कूटकूट कर दोनों बेटों में भरे थे, फलित हो रहे थे.
वहीं निशा ने अपने दोनों बेटों रौनक और रौशन में भर दिया था, अहंकार से भरा लबालब आत्म अभिमान, किसी भी वस्तु को अपनी शर्तों पर पा लेने की लालसा, चाहे कुछ भी दांव पर लग जाए. अमेरिका के एक बहुत बडे़ फर्म की जनसंपर्क अधिकारी भारत की एक साधारण सी गृहस्थ महिला से तीव्र ईर्ष्या का अनुभव करने लगी.
रमा दी को एक बड़ी सी तश्तरी में बाबूजी के लिए गुड़, चना और दूध का गिलास रख ले जाते हुए निशा ने देखा. धीरेधीरे कलेवा लेते हुए ससुर और बहू आज के राजनीतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक मामलों पर चर्चा कर रहे थे.
निशा ने रमा को इस बात के लिए कभी चिंतित व असुरक्षित नहीं देखा कि इस अटूट निष्ठा का उसे कैसा प्रतिफल या प्रतिदान मिलेगा, जबकि वह खुद इतनी असुरक्षित थी कि हर पल उसे अपने किए गए हर काम का सीधासीधा फल मिलना बहुत जरूरी था.
निशा व नरेश को अब पूरी तरह से एहसास हो गया कि अंगरेजियत का लबादा ओढे़ उन लोगों के शरीर में एक भारतीय दिल भी है, जो प्रेम व आस्था के प्रति श्रद्घा रखता है. दोनों पतिपत्नी मानसिक रूप से टूट चुके थे. तन से वे कितने ही धनी हो गए पर मन तो प्रेम व प्यार का कंगाल हो गया था.
सुबह ही नरेश और निशा हवेली के पश्चिमी हिस्से की तरफ टहलने निकल पडे़. नरेश उंगली से एक स्थान की ओर इशारा करते हुए निशा से बोले, ‘‘यह वह बैठक है जहां कभी बाबूजी आसन लगा कर बैठते थे और देहातियों की तमाम छोटीबड़ी समस्याओं का निबटारा करते थे. गांव वालों के मेहनत से कमाए धन को बिना किसी लिखापढ़ी के जमा करते और वक्त पड़ने पर उन्हें सूद समेत वापस भी करते थे.’’
किंतु वह बैठक अब एक सहकारी बैंक में बदल गई थी जिस का नाम था, ‘निरंजन दास सहकारी बैंक.’ बैंक में बहीखातों का स्थान कंप्यूटर ने ले लिया था. पास में ही एक निर्माणाधीन ई-सेवा केंद्र था, जहां गांव वाले अपनी शिकायतें दर्ज कराने के साथसाथ, बिजली, टेलीफोन, पानी आदि का बिल भी भर सकते थे. इस प्रगति का श्रेय वे छोटे चौधरी यानी यशराज चौधरी को देते थे, जो कंप्यूटर में उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने गांव वापस लौटा था.
दोनों कृतज्ञता से गद्गद गांव वालों के चेहरे देखते रह गए. नरेश कहने लगे, ‘‘ठीक है, अपने देश में अमीर देशों की तरह जगमगाहट तो नहीं पर अंधेरा भी तो नहीं है.’’
पति की बातें सुन कर निशा बोली, ‘‘चंद सर्वेक्षणों के आधार पर विकासशील देशों को भ्रष्ट, पिछड़ा हुआ, लाचार और गरीब करार देना अन्याय है. इस से देश के युवावर्ग में देशभक्ति के बदले नफरत और वितृष्णा बढ़ती है और वे अपने देश से पलायन करने में ही अपनी भलाई समझते हैं.’’
तब तक दोनों के आसपास गांव वाले जमा हो गए. सामने से बाबूजी के साथ केशव, यश, रमा दी और बडे़ भाई साहब भी चले आ रहे थे. नरेश ने बाबूजी की ओर चमकती आंखों से देख कर कहा, ‘‘बाबूजी, इस हिस्से में मैं उभरती युवा प्रतिभाओं के लिए एक रिसर्च सेंटर का निर्माण करूंगा. यही मेरी स्वदेश के प्रति सच्ची श्रद्घांजलि होगी.’’
निशा ने बाबूजी की आंखों में खुशी के आंसू देखे. सभी ने इस निर्णय का स्वागत किया. निशा, नरेश के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही थी क्योंकि इस बार वह पश्चात्ताप की आग में नहीं जलना चाहती थी.