अपने अच्छे दिनों यानि सियासी कैरियर के शबाब के दौर में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्गज कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने कितनों की ज़िंदगी बनाई और बिगाड़ी है इसकी सही  संख्या तो वे खुद भी नहीं बता सकते इसलिए नहीं कि पकी उम्र के चलते उनकी याददाश्त कमजोर हो चली है बल्कि इसलिए कि इसकी जरूरत अब खत्म हो चली है. दिग्विजय सिंह को कांग्रेस ने उस लोकसभा सीट भोपाल से अपना उम्मीदवार घोषित किया है, जहां से वह पिछले  30 सालों से जीत के लिए तरस रही है. भोपाल देश की उन इनी गिनी सीटों में से एक है जहां खुद कांग्रेस आलाकमान ने लाल निशान लगा रखा है और भाजपा ने भगवा झण्डा गाड़ रखा है.

दिग्विजय सिंह की उम्मीदवारी के साथ ही भोपाल भी देश की चुनिन्दा हौट सीटों में शुमार होने लगी है जिस पर तस्वीर बदले न बदले पर खासा हंगामा जरूर कांग्रेस ने खड़ा करने में कामयाबी पा ली है. यह हंगामा दरअसल में जानबूझकर खड़ा किया गया ज्यादा लगता है जिसके जड़ में वही सियासी साजिश है जिसे रचते कुछ दिनों पहले तक दिग्विजय सिंह शिकार किया करते थे. बात कुछ कुछ प्रकाश मेहरा निर्देशित नमक हलाल फिल्म के गाने जवान जानेमन हसीन दिलरुबा…. गाने जैसी है जिसकी एक लाइन यह भी है कि चलाया तीर जो खुदी पे चल गया, शिकारी खुद यहां शिकार हो गया …

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राज्य की 230 में से 114 सीटें जीतकर सरकार बना ली थी तो इसकी एक बड़ी वजह कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जुगल जोड़ी की मेहनत और आपसी तालमेल था. तब दिग्विजय सिंह की अलोकप्रियता और बिगड़ी इमेज के चलते कांग्रेस आलाकमान यानि राहुल गांधी ने दिग्विजय सिंह को चुनाव प्रचार अभियान से दूर रहने कहा था तो यह आम लोगों की उस इच्छा का सम्मान करना था कि यदि दिग्विजय सिंह कांग्रेसी चेहरे के रूप में दिखे तो कांग्रेस वोटों की उम्मीद न रखे. दिग्विजय सिंह ने भी आज्ञाकारी छात्र की तरह आलाकमान के हुक्म का पालन किया तो एवज में उनके छोटे भाई लक्ष्मण सिंह और बेटे जयवर्धन सिंह को विधानसभा टिकिट दे दिया गया और जयवर्धन को केबिनेट में भी जगह दी गई .

देखा जाये तो एक तरह से हिसाब किताब बराबर हो गया था लेकिन दिग्विजय सिंह से खुद की दयनीयता बर्दाश्त नहीं हो रही थी. गुटबाजी और खेमेबाजी के इस विशेषज्ञ नेता से राहुल गांधी ने उसकी यह पहचान छीन ली थी. इधर अल्पमत में होने के बाद भी कमलनाथ सफलतापूर्वक और दमदारी से सरकार चलाने लगे और ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रियंका गांधी के बराबर कद देते पश्चिमी उत्तरप्रदेश का प्रभारी बना दिया गया तो दिग्विजय सिंह पर पहचान और अस्तित्व का संकट मंडराने लगा. प्रदेश के सबसे बड़े और नामी इस गुटबाज नेता जिसे राजनैतिक पंडित घोषित तौर पर 2003, 2008 और 2014 के विधानसभा चुनावों की हार का जिम्मेदार मानते हैं को बरगद से बोनसाई बना दिया गया तो सियासी हलक़ों में फिर चर्चा गरमाने लगी कि दिग्विजय सिंह यूं हथियार डालने बालों में से नहीं है वे जरूर कोई नई खुराफात करेंगे .

कभी माधवराव सिंधिया के साथ साथ कमलनाथ और शुक्ला बंधुओं को भोपाल से दूर रखने में कामयाब रहे दिग्विजय बिलाशक एक बड़े कांग्रेसी गुट के मालिक हैं लेकिन उनका मालिकाना हक हस्तांतरित हो गया है. कमलनाथ ने सधे तरीके से उनके चहेतों को मंत्रिमंडल में जगह दी लेकिन अपनी शर्तों पर कि ज्यादा उछलकूद की तो बाहर कर दूंगा. अब भला 15 सालों से सूखे की मार झेल रहे दिग्विजय धडे के सैनिकों के लिए इस शर्त पर क्या एतराज होता लिहाजा छोटे मोटे विवादों और मनमुटावों के साथ वे कमलनाथ के पीछे हो लिए हैं .

इसके बाद भी दिग्विजय सिंह नाम का पुराना नासूर कब कैसे रिसने लगे इसे लेकर कमलनाथ और राहुल गांधी भी पूरी तरह बेफिक्र नहीं थे लिहाजा पूरी बेफिक्री के लिए उन्होने दिग्विजय सिंह को भोपाल की गारंटेड हार का दूल्हा बना दिया. दिग्विजय सिंह अपनी घरेलू सीट राजगढ़ से टिकिट चाहते थे जहां से उनकी जीत में शायद ही कोई शक करता. जब उन्होंने तरह तरह से जिद्दी बच्चे की तरह लोकसभा चुनाव लड़ने की बात की तो कमलनाथ ने कहा दिग्गज नेताओं को कठिन सीट से लड़ना चाहिए. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस प्रस्ताव का समर्थन कर डाला तो वे बलि का बकरा बनने तैयार हो गए. उनके लिए तो इतना ही बहुत था कि पार्टी उन्हें अभी भी लोकसभा चुनाव लड़ने लायक समझती है. हालांकि उनके भाजपाई दोस्तों खासतौर से पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने उन्हें भोपाल से न लड़ने का मशवरा दिया था .

बलि का बकरा इसलिए कि दिग्विजय सिंह की इमेज एक हिन्दुत्व विरोधी नेता की है सनातन धर्म के उनके अपने अलग माने हैं, दूसरे दलित हितेषी छवि बन जाने के चलते सवर्ण उनके नाम से भी नाक भों सिकोड़ते हैं. भोपाल सीट ब्राह्मण – कायस्थ बाहुल्य है जो भाजपा के परंपरागत वोटर हैं. कांग्रेस कभी इन्हें अपने पाले में नहीं ला पाई इसलिए भाजपा यहां हर चुनाव इतमीनान से जीतती रही. अब दिग्विजय सिंह की उम्मीदवारी से ये वर्ग महज 3 दिनों में फिर एक जुट हो गए हैं कि कुछ भी हो जाये दिग्विजय सिंह को नहीं जीतने देना है .

अभी भाजपा ने अपना उम्मीदवार भी घोषित नहीं किया था कि दिग्विजय का सोशल मीडिया पर स्वस्फूर्त विरोध होने लगा. कहा यह जा रहा है कि इन्हें सबूत दे दो कि एयर स्ट्राइक कैसे हुई थी. गौरतलब है कि बालाकोट एयर स्ट्राइक पर सबसे पहले उंगली उठाने बालों में से दिग्विजय सिंह एक थे. जातीय समीकरणों के लिहाज से देखें तो उन्हें साढ़े चार लाख मुस्लिम वोट मिलना तो तय हैं पर बाकी जातियों के कोई 15 लाख वोटों के बारे में कोई उन्हें आश्वस्त नहीं कर सकता. बसपा का कोई खास वोट बैंक भोपाल में नहीं बचा है लेकिन विधानसभा चुनाव के वक्त गठबंधन के मुद्दे पर मायावती द्वारा दिग्विजय को लगाई लताड़ भोपाल में रंग दिखा सकती है .

दिग्विजय सिंह की उम्मीदवारी में कमलनाथ ने अपना और पार्टी का दोहरा फायदा देखा है . भाजपा किसी भी कीमत पर दिग्विजय सिंह को कम आंकने की भूल नहीं करेगी और अपने उम्मीदवार को जिताने जी जान लगा देगी इसका फायदा कांग्रेस दूसरी सीटों पर उठाएगी कि देखो भड़ास निकालने दिग्विजय सिंह को तो परोस दिया है जिनहोने एयर स्ट्राइक पर सवाल उठाए थे. दिग्विजय सिंह अगर हारे जिसकी कि संभावना ज्यादा है तो उनकी राजनीति खत्म हो जाएगी और अगर खुदा न खास्ता जीते तो श्रेय कमलनाथ और राहुल गांधी को जाएगा .

भाजपा की तरफ से शिवराज सिंह चौहान लड़ें या फिर साध्वी प्रज्ञा भारती या फिर महापौर आलोक शर्मा या कोई और उससे इस सीट के स्वभाव पर कोई खास फर्क नहीं पड़ना है. खुद कांग्रेसियों में ही खास उत्साह नहीं है. दिग्विजय गुट जरूर स्वभाविक उत्साह में है लेकिन जीत को लेकर संशय में है जिसकी वजह भोपाल की हिंदूवादी आबोहवा और दिग्विजय सिंह के पुराने रिकौर्ड हैं. अब देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा कोई भारी भरकम उम्मीदवार लाती है या टिकिट के मौजूदा उम्मीदवारों में से ही किसी एक को मौका देती है.

दिग्विजय सिंह की उम्मीदवारी से मौजूदा सांसद आलोक संजर भी दौबारा टिकिट मांगने लगे हैं जो साल 2014 में कई दूसरे उम्मीदवारों की तरह गुमनाम से थे और मोदी लहर पर सवार होकर दिल्ली पहुंचे थे. कल तक शांत बैठे आलोक संजर को लग रहा है कि वे इस बार भी आसानी से जीत सकते हैं तो भोपाल सीट और दिग्विजय सिंह के उससे उम्मीदवार होने के सारे समीकरण उधड़ कर बाहर आ रहे हैं .

दिग्विजय को कठिन सीट से लड़ने के लिए उकसाने बाले कमलनाथ अपने बेटे नकुल नाथ को छिंदवाड़ा से भोपाल लाकर लड़ाते या फिर सिंधिया ही गुना सीट छोडकर इस कठिन सीट से लड़ते तो समझ आता कि ये लोग वाकई पार्टी का भला चाहते हैं लेकिन मकसद कुछ और ही है तो कोई क्या कर लेगा.

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