डोनेशन के नाम पर मोटी रकम वसूल कर और मैडिकल सीटों की खरीदफरोख्त से डाक्टर बनाए जा रहे हों तो देश के स्वास्थ्य का क्या होगा? ऐसी हालत में स्वाभाविक है कि इंसानी जिंदगियों के साथ खिलवाड़ किया जाता रहेगा. कुछ मेहनती छात्र अपने बलबूते पर एमबीबीएस और एमडी, एमएस पीजी की पढ़ाई के लिए सीटें प्राप्त तो कर लेते हैं लेकिन वे सरकारी अस्पतालों में बिना उचित व्यवस्था, बिना उचित साधनों के सही रूप से प्रशिक्षित नहीं किए जा पाते. ऐसे डाक्टरों की संख्या भी अस्पतालों की जरूरतों के मद्देनजर बहुत कम होती है. इस कारण उन पर वर्कलोड अधिक होता है, जिस का सीधा असर उन के कार्य पर पड़ता है. फलस्वरूप, वे अपनी शतप्रतिशत कार्यक्षमता नहीं दे पाते.

भारत की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था चरमरा गई है, परंतु देश की सरकार द्वारा इस दिशा में पारदर्शी कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. एक रोगी इलाज करवाने जाए तो कहां जाए. प्राइवेट अस्पताल में जाइए तो ऐसे डाक्टर हैं जिन्होंने रुतबे और पैसे के लिए मोटा डोनेशन दे कर मैडिकल सीट खरीदी थी, ऐसे छात्र अब डाक्टर बन भारी फीस वसूलने के बाद भी क्या सही इलाज कर सकेंगे? इस में संदेह ही है. दूसरी ओर सरकारी अस्पताल हैं जहां की व्यवस्था, कम साधनसुविधा, कम वेतन व डाक्टरों की कम संख्या के चलते थकेहारे, खीझे हुए डाक्टर हैं जिन से सटीक इलाज की कितनी अपेक्षा रखी जानी चाहिए. आईआईटी या सिविल सेवा संगठनों में सीटें दिलवाने के लिए एजेंटों के विज्ञापन नहीं दिखते जबकि एमबीबीएस, एमडी, एसएस पीजी की कन्फर्म सीटों के लिए पूरे भारत में एजेंटों के विज्ञापनों की भरमार रहती है.

डोनेशन की महामारी

टीओआई की एक विज्ञप्ति के अनुसार प्राइवेट कालेज मैनेजमैंट का इन एजेंटों के साथ मिल कर प्रतिवर्ष एमबीबीएस की 30 हजार और एमडी/एमएस पीजी की 9,600 सीटों के लिए करीब 12 करोड़ रुपयों का आदानप्रदान होता है. भारत में 422 मैडिकल कालेज हैं, जिन में 224 प्राइवेट हैं. यानी 53 फीसदी सीटें उन के पास हैं. इन में बहुत से ऐसे कालेज हैं जिन में छात्रों के लिए उचित सुविधासाधन नहीं, सीखनेसमझने के लिए मरीज भी नहीं. इतना ही नहीं, कई मैडिकल कालेजों ने झूठी फैकल्टीज भी दिखा रखी हैं. एमबीबीएस की एक सीट बेंगलुरु में 1 करोड़ रुपए की तो उत्तर प्रदेश में 25 से 35 लाख रुपए तक की है. पिछले वर्षों में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और गुजरात में इन की कीमत 75 लाख रुपयों तक पहुंच गई. डर्मेटोलौजी और रेडियोलौजी पीजी सीटों के तो कहने ही क्या, कीमत 1.5 से 3 करोड़ रुपए तक है.

प्रवेश परीक्षा परिणाम घोषित होने से पूर्व ही सीटें बुक की जाती हैं. मोटी रकम इकट्ठा करने के साथ अभिभावकों को बुकिंग के लिए काफी जद्दोजेहद करनी पड़ती है. पहले आओ पहले पाओ का खेल है. पहले आने पर कुछ छूट मिलती है जबकि परिणाम आने के बाद रकम दोगुनी हो जाती है. गुजरात में 2,780 यूजी सीट हैं जिन में 1,080 सीटें 6 सरकारी कालेजों के पास हैं और 1,700 सीटें 12 प्राइवेट कालेजों में हैं. एक डीम्ड यूनिवर्सिटी है जिस में एजुकेशन कमेटी का अपना मैनेजमैंट कोटा व एनआरआई कोटा है. इस का एनआरआई छात्रों को कम बल्कि रिश्तेदारों व प्रभावी लोगों को अधिक फायदा मिलता है. सभी संस्थान प्रवेश परीक्षा इस दावे पर आयोजित करते हैं कि छात्रों का चयन मैरिट के आधार पर होता है. हालांकि कई राज्यों में इस बात का खुलासा हो चुका है कि पैसे वाले और कम अंक प्राप्त अथवा परीक्षा में न बैठने वाले छात्रों को भी सीटें मिल जाती हैं. प्रति वर्ष घोटाले सामने आ जाते हैं. मैनेजमैंट और एनआरआई कोटा 30 फीसदी कहा जाता है पर वास्तविकता इस से कहीं ज्यादा है.

उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में प्राइवेट मैडिकल कालेजों में 15 फीसदी एनआरआई तो 44 फीसदी मैनेजमैंट कोटा, मिला कर कुल 60 फीसदी बिकने वाली सीटें हो जाती हैं जो ऐडमिशन रैकेट द्वारा फर्जी स्कोरर से भर दी गई थीं, जिन्हें खाली कराने के लिए बाद में पैसे देने पड़े.

सीटों की खरीदफरोख्त

कर्नाटक में भी कुछ ऐसा हुआ. वहां प्राइवेट कालेजों को भारी संख्या में सीटें दे दी गई थीं. परिणाम घोषित होने से पूर्व पीजी रेडियोलौजी की 3 करोड़ रुपए और डर्मेटोलौजी की सीटें 1.5 से 2 करोड़ रुपए में बिक गईं उन्हीं एजेंटों और बिचौलियों के माध्यम से. आंध्र प्रदेश के एमसीआई सदस्य डा. रमेश रेड्डी  के अनुसार, अगर सरकार इस मुद्दे पर गंभीर थी तो फीस चाहे 3 करोड़ रुपए रख देती पर छात्रों को मैरिट के आधार पर ही लिया जाता. उस में सारा एकत्रित धन काला नहीं, सफेद और टैक्स देने योग्य होता. महाराष्ट्र में 43 फीसदी मैनेजमैंट कोटा, 17 फीसदी एनआरआई मिला कर 60 फीसदी बिकने वाली सीटें हैं. यहां पीजी सीटों की संख्या 23,600 है जिस में से 9,400 प्राइवेट सैक्टर को दे दी गईं हैं. आकलन के अनुसार,लगभग 9,300 करोड़ रुपए यानी 1.5 बिलियन डौलर कालाधन सीटों की खरीदफरोख्त से आता है जो भारतीयों द्वारा स्विस अकाउंट में जमा किया जाता है.

मजे की बात तो यह है कि यहां ये सारा पैसा कैश में लिया जाता है बिना किसी रसीद के. इतना सब कुछ होने के बावजूद सरकार न तो इन का भांडा फोड़ती है, न रोक लगाती है और न ही मैडिकल एजुकेशन सिस्टम को सही करने की दिशा में ठोस कदम ही उठा रही है. ऐसे में एनईईटी को रद्द करने का अपना फैसला वापस ले कर कोर्ट ने सिस्टम में बेहतरी की उम्मीद जगाई है. जिस से पूरे भारत के मैडिकल कालेजों के लिए एक ही कौमन एंट्रैंस टैस्ट होगा और मैरिट से छात्रों का चुनाव भी संभव हो सकेगा.  अभी एनईईटी फिर से लागू हो गया है. एक मई को पूरे भारत में एक ही कौमन एंट्रैंस टैस्ट लिया गया. स्वास्थ्य सेवा संस्थाओं में भ्रष्टाचार रोकने के लिए हमें यहां डोनेशन और सीटों की खरीदफरोख्त का जम कर विरोध करना चाहिए या यों कहें, एकजुट हो एकमत से नकार देना चाहिए. इस से नुकसान हम सब का ही है. आज अगर हम अपने बच्चों को डोनेशन या खरीदफरोख्त का फायदा उठाते हुए सीट दिला कर भले ही खुश हो लें परंतु कल को हम अपने इलाज के लिए ऐसे ही डाक्टर तैयार कर रहे हैं जो हमें उचित और सटीक उपचार नहीं दे सकते. सोचने का विषय है कि परीक्षा में अपनी बुद्धि क्षमता से अच्छे प्रतिशत लाने वाला मेधावी छात्र ही अच्छा डाक्टर बन सही इलाज करेगा अथवा डोनेशन या खरीद से बना न्यूनतम प्रतिशत पाने वाला छात्र डाक्टर.

डोनेशन की महामारी फैलाने वाले, उन के हिमायती यह भूल जाते हैं कि उन्हें भी इस की चपेट में एक दिन आना पड़ेगा. उन्हें अपना अथवा अपने प्रियजनों का इलाज कम ज्ञान और कम बुद्धिक्षमता वाले डाक्टर के हाथों से कराना पड़ेगा. बहुमूल्य जीवन और स्वास्थ्य उन के अधकचरे ज्ञान के हवाले होगा. डोनेशन या खरीदफरोख्त द्वारा अपने बच्चे को डाक्टर बनाने और पैसा पीटने की होड़ में लगने वाले मांबाप आखिरकार पूरे देश के साथ अपने बच्चों की जिंदगियों से भी खेल रहे हैं.

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