गली में पहरा देते चौकीदार के डंडे की खटखट और सन्नाटे को चीरती हुई राघव के खर्राटों की आवाज के बीच कब रात का तीसरा प्रहर भी सरक गया, पता ही न चला. पलपल उधेड़बुन में डूबा दिमाग और आने वाले कल होने वाली संभावनाओं से आशंकित मन पर काबू रखना मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा था. मैं लाख कोशिश करती, फिर भी 2 दिनों पहले वाला प्रसंग आंखों के सामने उभर ही आता था. उन तल्ख तेजाबी बहसों और तर्ककुतर्क के पैने, कंटीले झाड़ की चुभन से खुद को मुक्त करने का प्रयास करती तो एक ही प्रश्न मेरे सामने अपना विकराल रूप धारण कर के खड़ा हो जाता, ‘क्या खूनी रिश्तों के तारतार होने का सिलसिला उम्र के किसी भी पड़ाव पर शुरू हो सकता है?’
कभी न बोलने वाली वसुधा भाभी, तभी तो गेहुंएं सांप की तरह फुंफकारती हुई बोली थीं, ‘सुमि, अब और बरदाश्त नहीं कर सकती. इस बार आई हो तो मां, बाऊजी को समझा कर जाओ. उन्हें रहना है तो ठीक से रहें, वरना कोई और ठिकाना ढूंढ़ लें.’
‘कोई और ठिकाना? बाऊजी के पास तो न प्लौट है न ही कोई फ्लैट. बैंक में भी मुट्ठीभर रकम होगी. बस, इतनी जिस से 1-2 महीने पैंशन न मिलने पर भी गुजरबसर हो सके. कहां जाएंगे बेचारे?’ भाभी के शब्द सुन कर कुछ क्षणों के लिए जैसे रक्तप्रवाह थम सा गया था. जिस बहू का आंचल कितनी ही व्यस्तताओं के बावजूद कभी सिर से सरका न हो, जिस ने ससुर से तो क्या, घर के किसी भी सदस्य से खुल कर बात न की हो, वह यों अचानक अपनी ननद से मुंहजोरी करने का दुसाहस भी कर सकती है?
मैं पलट कर भाभी के प्रश्न का मुंहतोड़ जवाब देने ही वाली थी कि मां ने बीचबचाव सा किया था, ‘बहू, ठीक ढंग से तुम्हारा क्या मतलब है?’
‘मकान का पिछला हिस्सा खाली कर के इन्हें हमारे साथ रहना होगा,’ भाभी ने अपना फैसला सुनाया.
‘उस हिस्से का क्या करोगे?’ अपनी ऊंची आवाज से मैं ने भाभी के स्वर को दबाने की पुरजोर कोशिश की तो जोरजोर से चप्पल फटकारते हुए वे कमरे से बाहर चली गईं.
मैं ने एक नजर विवेक भैया पर डाली कि शायद पत्नी की ऐसी हरकत उन्हें शर्मनाक लगी हो. पर वह मेरा कोरा भ्रम था. भैया की आवाज तो भाभी से भी बुलंद थी, ‘किराए पर देंगे और क्या करेंगे? इस मकान को बनवाने के लिए बैंक से इतना कर्जा लिया है, उसे भी तो उतारना है. कोई पुरखों की जमीनजायदाद तो है नहीं.’
‘किराए पर ही देना है तो हम से किराया ले लो. मैं अपना चौका ऊपर ही समेट लूंगी,’ अपने घुटनों को सहलाती हुई मां, बेटे के मोह में इस कदर फंसी हुई थीं कि इस बात की तह तक पहुंच ही नहीं पा रही थीं कि उन्हें घर से बेघर करने में भाभी को भैया का पूरा साथ मिला हुआ है. पथराए से बाऊजी चुपचाप पलंग के एक कोने पर बैठे बेमकसद एक ही तरफ देख रहे थे.
‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तो पैंशन के मिलते हैं. उतना तो आप का निजी खर्चा है. मकान के उस हिस्से से तो 3 हजार रुपए की उगाही होगी,’ भैया ने भाभी की आवाज में आवाज मिलाई तो बाऊजी अपने बेटे का चेहरा देखते रह गए थे. उन का पूरा शरीर कांप रहा था.
‘जब पूत ही कपूत बन जाए तो उस पराए घर की बेटी को क्या कहा जा सकता है?’ फुसफुसाती हुई मां की आवाज भीग गई. वे रोतरोते भी बाऊजी से उलझ पड़ीं, ‘इसलिए तो तुम से कहती थी, चार पैसे बुढ़ापे के लिए संभाल कर रखो. पर तुम ने कब सुनी मेरी? अब देख लिया, अपनी औलाद भी किस तरह मुंह फेरती है.’
मैं मां की बात और नहीं सुन पाई थी. पूरा माहौल तनावभरा हो गया था. अगले दिन चुपचाप अपने घर लौट आई थी. अब वहां कहनेसुनने के लिए बचा ही क्या था. अब तो सारे रिश्ते ही झूठे लग रहे थे.
शाम को मैं चौके में चाय बनाने के लिए घुस गई थी. मन, मस्तिष्क जैसे बस में ही नहीं थे. काफी समय बीत जाने के बाद भी जब चाय नहीं बन पाई तो राघव खुद ही चौके में आ गए थे, एक प्याली मुझे दे कर दूसरी प्याली हाथ में ले कर अम्मा के पास जा कर अखबार खोल कर बैठ गए. सुबह के कुछ घंटे अम्मा के साथ बिताना उन की आदत में है. इसीलिए तो मैं ने उन्हें श्रवण कुमार का नाम दिया था.
चौके से बाहर निकल कर मैं कुछ काम निबटाने के लिए यहांवहां घूम रही थी. पर मन तनाव की गिरफ्त में था. भाभी के बरताव का डंक मेरे मन में बुरी तरह चुभा हुआ था. भाभी तो पराए घर की है, पर भैया को क्या हुआ? वे तो सब की इज्जत करते थे, फिर यह बदलाव क्यों आया? न जाने कब आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं गश खा कर गिर पड़ी. आंख खुली तो अम्मा मेरी पेशानी सहला रही थीं. बदहवास से राघव मेरी आंखों पर पानी के छींटे डाल रहे थे.
‘क्या बात है सुमि, कुछ परेशान दिख रही हो?’ इन्होंने पूछा.
‘नहीं, कुछ भी तो नहीं,’ चालाकी से मैं ने अपना दुख छिपाने की नाकाम सी कोशिश की. पर पूरे शरीर का तो खून ही जैसे किसी ने निचोड़ लिया था.
राघव आश्वस्त नहीं हुए थे, ‘देखो सुमि, सुख बांटने से बढ़ता है, दुख बांटने से कम होता है. हम तुम्हारे अपने ही तो हैं…कुछ कहती क्यों नहीं?’
मैं सोचने लगी कि राघव जैसे लोग कितने सुखी रहते हैं. बिना किसी गिलेशिवे के जिंदगी में आए उतारचढ़ावों को स्वीकार करते चले जाते हैं. लेकिन हमारे जैसे लोग हर रिश्ते को कसौटी पर ही परखते रह जाते हैं. जिंदगी में जो पाया है, उस से संतुष्ट नहीं होते. कुछ और पाने की लालसा में जो कुछ पाया है, उसे भी खो देते हैं.
अपराधबोध मन पर हावी हो उठा था. राघव के कसे हुए तेवरों में दोस्ती की परछाईं थी. फिर भी विश्वास करने को जी नहीं चाह रहा था.
अपने अभिभावकों के पक्षधर बने रहने वाले राघव को भला मेरे मायके वालों से क्यों सहानुभूति होने लगी. आज भी यदि अम्मा और मुझे एक ही तुला पर रख कर तोला जाए तो शायद राघव की नजरों में अम्मा का ही पलड़ा भारी होगा.
एक नजर अम्मा को देखा था. कहते हैं, औरत ही औरत की पीड़ा को समझ सकती है. पर उन आंखों में भी जो भाव थे, उन्हें अपनेपन की संज्ञा देना गलत था.
मौकेबेमौके अम्मा कितनी बार तो सुना चुकी थीं, ‘अपने मायके का दुख डंक की तरह चुभता है.’
‘जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई’ की दुहाई समयसमय पर देने वाली अम्मा इस समय मेरे मर्म पर निशाना लगाने से नहीं चूकेंगी, इतना तो इस घर में इतने बरसों से रहतेरहते जान ही गईर् थी. शादी के बाद हर 2 दिनों में मेरे मायके में संदेश भिजवाने वाली अम्मा की नजरें मेरे ही मां, बाऊजी में खोट निकालेंगी.
प्याज के छिलकों की तरह अतीत के दृश्य परतदरपरत मेरी आंखों के सामने खुलते चले गए थे. जब भी अम्मा, पिताजी इकट्ठे बैठते, अम्मा आंखें नम कर लेतीं, ‘संस्कार बड़ों से मिलते हैं. मैं तो पहले ही कहती थी, किसी अच्छे परिवार से नाता जोड़ो. मेरा राघव एकलौता बेटा है, उस की तो गृहस्थी ही नहीं बसी.’
‘ऐसी बात नहीं है,’ पिताजी भीगे स्वर में कहते, ‘बहू के मायके वाले तो बहुत अच्छे हैं. रमेश चंद्र प्रोफैसर थे. शीला बहन तो परायों को भी अपना बनाने वालों में हैं. भाई कितना मिलनसार है…और भाभी अमीर खानदान की एकलौती वारिस है, पर घमंड तो छू तक नहीं गया. हां, बहू का स्वभाव विचित्र है. संवेदनशीलता, भावुकता नाम को भी नहीं. मैं तो हीरा समझ कर लाया था. अब यह कांच का टुकड़ा निकली तो जख्म तो बरदाश्त करने ही पड़ेंगे.’
पिताजी मेरे मायके का जुगराफिया खींचतेखींचते जब मुझे कोसते तो अम्मा के जख्मों की कुरेदन और बढ़ जाती. वे मेरे मातापिता को बुलवा भेजतीं. शिकायतों की फेहरिस्त काफी लंबी होती थी. जैसे, मुझे बड़ों का सम्मान करना नहीं आता, पति को कुछ समझती नहीं, कोई काम करीने से कर नहीं सकती, ‘बेहद नकचढ़ी है आप की बेटी,’ कहतेकहते अम्मा बहस का सारांश पेश करतीं. मां सजायाफ्ता मुजरिम की तरह गरदन लटका कर मेरा एकएक गुनाह कुबूल करती जातीं. बाऊजी कभी उन के आरोपों का खंडन करना चाहते भी, तो मां आंख के इशारे से रोक देतीं. समधियाने में तर्कवितर्क करना उन्हें जरा नहीं भाता था. फिर राघव तो उन के दामाद थे. उन्हें कुछ बुरा न लगे, इसलिए वे चुप ही रहना पसंद करती थीं. बेचारी मां को देख कर ससुराल के लोगों पर गुस्सा आता और मां पर दया. निम्नमध्यवर्गीय परिवार में 2 बच्चों की मां से अधिक निरीह जीव शायद और कोई नहीं होता.
इधर मेरे मातापिता के घर से बाहर निकलते ही माहौल बिलकुल बदल जाता. अम्मा, पिताजी किसी न किसी बहाने से घर के बाहर निकल जाते थे, ताकि हम दोनों पतिपत्नी आपस में बातचीत कर के ‘इस मसले’ को हल कर सकें. पर मुझे तो उस समय राघव की शक्ल से भी चिढ़ हो जाती थी. उन्हीं के सामने मेरे मातापिता की बेइज्जती होती रहती, पर वे मेरे पक्ष में एक भी शब्द कहने के बजाय उपदेश ही देते रहते.
अम्मा घर लौट कर बड़े प्यार से एक थाली में छप्पनभोग परोस कर मुझे समझातीं, ‘बहू, कमरे में जा, राघव अकेला बैठा है, खुद भी खा, उसे भी खिला.’
‘मेमने की खाल में भेडि़या,’ मैं मन ही मन बुदबुदाती. इसी को तो तिरिया चरित्तर कहते हैं. मन में दबा गुस्सा मुंह पर आ ही जाता था और मैं चिढ़ कर जवाब देती थी, ‘कोई नन्हे बालक हैं, जो मुंह में निवाला दूंगी? अपने लाड़ले की खुद ही देखभाल कीजिए.’
कमरे में जाने के बजाय मैं घर से निकल पड़ती और सामने वाले पार्क में जा कर बैठ जाती. कालोनी के लोग अकसर पार्क में चलहकदमी करते रहते थे. मेरी पनीली आंखें और उतरा हुआ चेहरा देख कर आसपास खड़े लोगों में जिज्ञासा पैदा हो जाती थी. वे तरहतरह की अटकलें लगाते. कोई कुछ कहता, कोई कुछ पूछता.
मैं घर में घटने वाले छोटे से छोटे प्रसंग का बढ़चढ़ कर बयान करती. ससुराल पक्ष के हर सदस्य को खूब बदनाम करती. घर लौटने का मन न करता था. ऐसा लगता, सभी मेरे दुश्मन हैं. यहां तक कि मां, बाऊजी भी दुश्मन लगते थे. इन लोगों को कुछ कहने के बजाय वे यों मुंह लटका कर चले जाते हैं जैसे बेटी दे कर कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो.
2-4 दिन शांति से बीतते और फिर वही किस्सा शुरू हो जाता. गलती राघव की थी, उस के अभिभावकों की थी या मेरी, नहीं जानती, पर पेशी के लिए मेरे मांबाऊजी को ही आना पड़ता था. कुछ ही समय में मां तंग आ गई थीं. तब विवेक भैया ही आ कर मुझे ले जाते थे.
मायके में भी मेरे लिए उपदेशों की कमी नहीं थी, ‘राघव एकलौता बेटा है, सर्वगुण संपन्न. न देवर न कोई ननद, जमीनजायदाद का एकलौता वारिस है. तू थोड़ा झुक कर चले तो घर खुशियों से भर जाए.’
‘मां, अगर तुम चाहती हो कि बेजबान गाय की तरह खूंटे से बंधी जुगाली करती रहूं तो तुम गलत समझती हो.’
यहांवहां डोलती भाभी, मेरे मुख से निकले हर शब्द को चुपचाप सुन रही होगी, इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया, क्योंकि उन के हावभाव देख कर जरा भी एहसास नहीं होता था कि मेरे शब्दों ने उन पर कोई प्रभाव भी छोड़ा होगा. मां अकेले में मुझे समझातीं, ‘पगली, समझौता करना औरत की जरूरत है. अपनी भाभी को देख, लाखों का दहेज लाई है. हम ने तो तुझे 4 चूडि़यों और लाल जोड़े में ही विदा कर दिया था.’
तब मैं दांत पीस कर रह जाती, ‘कैसी मां है, बेटी के प्रति जरा भी सहानुभूति नहीं.’
मां जातीं तो बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ जाते. मेरे सिर पर हाथ रख कर कहते, ‘चिंता मत कर सुमि, मैं जब तक जिंदा हूं, तेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. न जाने कैसे लोगों से पाला पड़ा है. लोग बहू को बेटी की तरह रखते हैं, और ये लोग…’
बाऊजी के शब्दों से ऐसा लगता था जैसे डूबते को एक सहारा मिला हो. ‘कोई तो है, जो मेरा अपना है,’ सोचते हुए मैं समर्पित भाव से चौके में जा कर बाऊजी की पसंद के पकवान बना कर उन्हें आग्रहपूर्वक खिलाती. राघव की कमाई से जोड़ी हुई रकम से मैं भाभी के साथ बाजार जा कर उन के लिए कोई अच्छा सा उपहार ले आती थी. बाऊजी तब मुझे खूब दुलारते, ‘कितना अंतर है बेटी और बेटे में? सुमि मुझे कितना मान देती है.’
अप्रत्यक्ष रूप से दिया गया वह उपालंभ भैयाभाभी हम सब से नजरें चुराते हुए यों झेलते थे, जैसे उन्होंने कोई कठोर अपराध किया हो. मुझे लगता, मां भी बाऊजी की तरह ही क्यों नहीं सोचतीं? वे तो मेरी जननी हैं, उन्हें तो बेटी के प्रति और भी संवेदनशील होना चाहिए था.
अपरिपक्वता की दहलीज पर कुलांचें भरता मन सोच ही नहीं पाया कि मां की भी तब अपनी मजबूरी रही होगी. महंगाई के जमाने में पति की सीमित आमदनी में से 2 बच्चों की परवरिश करना कोई हंसीखेल तो था नहीं. घर के खर्चों में से इतना बचता ही कहां था, जो अपनी बीए पास बेटी के लिए दहेज की रकम जुटा पातीं. एकएक पैसा सोचसमझ कर खर्च करने वाली मां कभीकभी एक रूमाल और चप्पल लेने के लिए भी तरसा देती थीं.
फैशनेबल पोशाकों में लिपटी हुई अपनी सहपाठिनों को देख कर मेरा मन तड़पता तो जरूर था, पर कर कुछ भी नहीं पाता था. अभावों के शिलाखंड तले दबाकुचला बचपन धीरेधीरे सरकता चला गया और मुझे यौवन की सौगात थमा गया. बचपन में मिले अभावों ने मेरे मन में कुंठा की जगह ऊंची इच्छाओं को जन्म देना शुरू कर दिया था.
मैं बेहद महत्त्वाकांक्षी हो उठी थी. कल्पनाओं के संसार में मैं ने रेशमी परिधानों से सजेसंवरे ऐसे धनवान पति की छवि को संजोया था, जिस के पास देशीविदेशी डिगरियों के अंबार हों, नौकरों की फौज हो, आलीशान बंगला हो, गाडि़यां हों. सास के रूप में ऐसी चुस्तदुरुस्त महिला की कल्पना की थी जो क्लबों में जाती हो, किटी पार्टियों में रुचि लेती हो. सिगार के कश लेते हुए ससुर पार्टियों में ही बिजी रहते हों.
कुल मिला कर मैं ने बेहद संभ्रांत ससुराल की कल्पना की थी. कहते हैं, जीवन में जब कुछ भी नहीं मिलता, तो बहुत कुछ पाने की लालसा मन में इतनी तेज हो उठती है कि इंसान अपनी औकात, अपनी सीमाओं तक को भूल जाता है. तभी तो साधारण से व्यक्तित्व वाले बीए पास राघव, जिन के पास ओहदे के नाम पर लोअर डिवीजन क्लर्क के लेबल के अलावा कुछ भी न था, मुझे जरा भी आकर्षित नहीं कर पाए थे. उस पर उन का एकलौता होना मुझे इस बात के लिए हमेशा आशंकित करता रहा था कि हो न हो, इन लोगों की उम्मीदें मुझ से बहुत अधिक होंगी.
मेरे विरोध के बावजूद मां, बाऊजी ने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी और मैं राघव की दुलहन बन कर इस घर में आ गई. यों कमी इस घर में भी कोई न थी. शिक्षित परिवार न सही, जमीनजायदाद सबकुछ था, यहां तक कि मुंहदिखाई की रस्म पर पिताजी ने गाड़ी की चाबी मुझे दे दी थी. पर मेरा मन परेशान था. हीरे, चांदी की चकाचौंध और सोने, नगीने की खनक तो राघव के पिता की दी हुई है, उस का अपना क्या है? वेतन भी इतना कि ऐशोआराम के साधन तो दूर की बात, मेरे लिए अपनी जरूरतें पूरी करना भी मुश्किल था.
मैं हर समय चिढ़तीकुढ़ती रहती. सासससुर को बेइज्जत करना और पति की अनदेखी करना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया था. शुरू में तो राघव कुछ नहीं कहते थे, पर जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा तो फट पड़े थे, ‘तुम कोई महारानी हो, जो हमेशा लेटी रहो और मां सेवा करती रहें?’
‘क्या मतलब?’ मैं तन गई थी.
‘मतलब यह कि घर की बहू हो, घर के कामकाज में मां की मदद करो.’
‘क्यों, क्या मेरे आने से पहले तुम्हारी मां काम नहीं करती थीं?’ मैं ने ‘महाभारत’ शुरू होने की पूर्वसूचना सी दी थी.
‘तब और अब में फर्क है. जब कोई सामने होता है तो उम्मीद होती ही है.’
‘मेरी मां तो मेरी भाभी से जरा भी उम्मीद नहीं करतीं. तुम्हारे घर के रिवाज इतने विचित्र क्यों हैं?’
‘तुम्हारी भाभी नौकरी करती है, आर्थिक रूप से तुम्हारे परिवार की सहायता करती है,’ राघव ने गुस्से से मेरी ओर देखा तो मैं समझ गई कि काम तो मुझे करना ही पड़ेगा, पर इतनी जल्दी मैं झुकने को तैयार न थी. खामोश नदी में पत्थर फेंकना मुझे भी आता था. मैं मुस्तैदी से काम में जुट गई. सास चाय बनातीं, मैं चीनी उड़ेल देती. पिताजी या राघव मीनमेख निकालते तो मैं अम्मा का नाम लगा देती.
एक दिन मैं ने सब्जी को इतने छोटेछोटे टुकड़ों में काट दिया कि अम्मा परेशान हो उठीं. फिर तो आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया. मैं ने हर आरोप का मुंहतोड़ जवाब दिया. घात लगा कर हर समय आक्रमण की तैयारी में मैं लगी रहती. क्या मजाल जो कोई थोड़ी सी भी चूंचपड़ कर ले.
राघव को बुरा तो लगता था, पर मेरे अशिष्ट स्वभाव को देख कर चुप हो जाते थे. जल्द ही सास समझ गईं कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं. सासससुर दोनों ने खुद को एक कमरे में समेट लिया. घर में अब मेरा एकछत्र राज था. अपनी मरजी से पकाती, घूमतीफिरती. घर में खूब मित्रमंडली जमती थी. कुल मिला कर आनंद ही आनंद था.
अपने रणक्षेत्र में विजयपताका फहरा कर मैं ने भाभी को फोन किया. मजे लेले कर खूब किस्से सुनाए. भाभी तब तो चुपचाप सुनती रही थीं, पर जब मैं मां के पास गई तो उन्होंने जरूर कुरेदा था, ‘क्या बात है सुमि, बहुत खुश दिखाई दे रही हो?’
‘भाभी, घर का हर आदमी अब मेरे इशारों पर नाचता है. क्या मजाल जो कोई उफ भी कर जाए.’
‘घर का खर्चा भी तुम्हारे ही हाथ में होगा?’ उन की जिज्ञासा और बढ़ गईर् थी.
‘ससुरजी पूरी पैंशन मेरे हाथ पर रख देते हैं. तुम तो जानती ही हो, राघव की तनख्वाह तो इतनी कम है कि राशन का खर्चा भी नहीं निकल सकता.’
अपनी पूरी तनख्वाह मां की हथेली पर रखने वाली भाभी के मन में ईर्ष्या के बीज अंकुरित हो चुके हैं, मैं तब भला कहां जान पाईर् थी.
‘भाभी, बस एक ही बात खटकती है,’ मैं ने मुंह लटका लिया.
‘वह क्या?’
‘राघव की मुंहबोली बहन जबतब आ टपकती है.’
‘अपने सगेसंबंधी भी कभी बुरे लगते हैं, उन से तो घर भराभरा लगता है,’ अपने सुखी संसार पर कलह के बादलों का पूर्वानुमान होते देख मां ने जैसे मुझे आगाह किया था, पर सीख तो उसी को दी जाती है जो सीखना चाहे. मैं तो सिखाना चाहती थी.
‘घर तो भरा रहता है, पर आवभगत भी तो करनी पड़ती है. खर्चा होता है सो अलग.’
मां जैसे सकते में आ गई थीं. हर सगेसंबंधी का आदरसत्कार करने वाली मां को बेटी के कथन में पराएपन की बू आ रही थी. अपना मत व्यक्त कर के मैं तो लौट आई थी.
मेरे विवाह को 3 वर्ष हो गए थे. घर में नया मेहमान आने वाला था. सभी खुश थे. अम्मा (राघव की मां) मेरी खूब देखभाल करती थीं. जीजान से वे नन्हे शिशु के आगमन की तैयारियों में जुटी हुई थीं. किस समय किस चीज की जरूरत होगी, इसी उधेड़बुन में उन का पूरा समय निकल जाता था.
‘कहीं ऐसा न हो, मेरे करीब आ कर वे मेरे साम्राज्य में हस्तक्षेप करना शुरू कर दें,’ आशंका के बादल मेरे मन के इर्दगिर्द मंडराने लगे थे. एक दिन मैं ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया, ‘अम्मा, आप ज्यादा परेशान न हों, प्रसव मैं अपनी मां के घर पर करूंगी.’
‘पहली जचगी, वह भी मायके में?’ वे चौंकी थीं.
‘जी हां, क्योंकि आप से ज्यादा मुझे अपनी मां पर भरोसा है,’ बहुत दिनों बाद मैं ने खाली प्याले में तूफान उठाया था. सहसा सामने खड़े राघव का पौरुष जाग गया था. उन्होंने खींच कर एक तमाचा मेरे गाल पर जड़ दिया था, ‘इस घर में तुम ने नागफनी रोपी है. पूरे घर को नरक बना कर रख दिया. अब तो इस घर की दीवारें भी काटने को दौड़ती हैं.’
‘मेरा अपमान करने की तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई. अब मैं एक पल भी यहां नहीं रुकूंगी.’
मैं ने बैग में कपड़े ठूंसे और मां के पास चली आई. वैसे भी 8वां महीना चल रहा था, आना तो था ही. मुझे किसी ने रोका नहीं था और अगर कोई रोकता भी तो मैं रुकने वाली नहीं थी.
मां के ड्राइंगरूम में काफी हलचल थी. भाभी के मातापिता बेटी की ‘गोद भराई’ की रस्म पर रंगीन टीवी और फ्रिज लाए थे. छोटेछोटे कई उपहारों से कमरा भरा हुआ था. घर के सभी सदस्य समधियों की सेवा में बिछे हुए थे.
मां ने उड़ती सी नजर मुझ पर डाली थी. उन की अनुभवी आंखों को यह समझते जरा भी देर न लगी कि मेरे घर में जरूर कुछ न कुछ घटना घटी है. पर पाहुनों के सामने पूछतीं कैसे? अपने साथ मेरी ससुराल भी तो बदनाम होती, जो उन की जैसी समझदार महिला को कतई मंजूर न था.
मेहमान चले गए तो मां व बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ गए. भैया के कमरे से छन कर आ रही रोशनी से साफ था कि वे लोग अभी तक सोए नहीं है. मां धीरेधीरे मुझे कुरेदती रहीं और मैं सब कुछ उगलती चली गई, ‘मां, तुम नहीं जानती, वे कैसेकैसे संबोधन मुझे देते हैं…उन्होंने मुझे ‘नागफनी’ कहा है,’ मैं रोंआसी हो उठी थी.
‘ठीक ही तो कहा है, गलत क्या, कहा है?’ भैया की गुस्से से भरी आवाज थी. आपे से बाहर हो कर न जाने कब से वे दरवाजे पर खड़े हुए मेरी और मां की बातें सुन रहे थे. मां कभी मेरा मुंह देखतीं कभी भैया का.
‘सुमि, आखिर भावनाओं का भी कुछ मोल होता है. राघव एकलौते हैं… न जाने कैसीकैसी उम्मीदें रखते हैं लोग अपने बेटे और बहू से, पर तू तो कहीं भी खरी नहीं उतरी. तुझे तो खामोश नदी में पत्थर फेंकना ही आता है.’
मां भैया को चुप करवाना चाहती थीं, पर उन का गुस्सा सारी सीमाएं पार कर चुका था, ‘इस लड़की को सबकुछ तो मिला…पैसा, प्यार, मान, इज्जत…इसी में सबकुछ पचाने की सामर्थ्य नहीं है. जब सबकुछ मिल जाए तो उस की अवमानना, उस के तिरस्कार में ही सुख मिलता है,’ कहते हुए भैया उठे और कमरे से बाहर निकल गए.
उस के बाद भैयाभाभी की बातचीत काफी देर तक चलती रही. इधर मां मुझे पूरी रात समझाती रहीं कि मैं अपना फैसला बदल लूं. एक तो खर्च का अतिरिक्त भार वहन करने की क्षमता उन में नहीं थी. जो कुछ करना था, भैयाभाभी को ही करना था. दूसरे, बढ़े हुए काम का बोझ उठाने की हिम्मत भी उन के कमजोर शरीर में नहीं थीं. भैयाभाभी के बदले हुए तेवरों में उन्हें आने वाले तूफान की संभावना साफ दिखाई दे रही थी.
पर मैं टस से मस न हुई. राघव की मां से कुछ भी अपने लिए करवाने का मतलब था अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारना. दूसरे ही दिन राघव के पिता का फोन आया था, ‘बच्चे हैं…नोकझोंक तो आपस में चलती ही रहती है. बहू से कहिए, सामान बांध ले और घर लौट आए.’
पर मैं तो विष की बेल बनी हुई थी. न जाना था, न ही गई. पूरा दिन आराम करती, न हिलती, न डुलती. मां की भी उम्र हो चली थी, कितना कर पातीं? भाभी पूरा दिन दफ्तर में काम करतीं और लौट कर मां का हाथ बंटातीं. मैं भाभी को सुना कर मां का पक्ष लेती, ‘मां बेचारी कितना काम करती हैं. एक मेरी सास हैं, राजरानी की तरह पलंग पर बैठी रहती है.’
मां से सहानुभूति जताते हुए मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ती थी. मां मुझे दुलारती रहतीं, पर इस बीच भाभी मैदान छोड़ कर चली जाती थीं. काफी दिनों तक उन का मूड उखड़ा रहता था.
नन्हें अभिनव के आगमन पर सभी मौजूद थे. उसे देखते ही राघव की मां निहाल हो उठी थीं, ‘हूबहू राघव की तसवीर है. वैसे ही नाकनक्श, उतना ही उन्नत मस्तक, वही गेहुंआं रंग.’
‘सूरत चाहे राघव से मिले, पर सीरत मुझ से ही मिलनी चाहिए,’ मैं ने बेवकूफीभरा उत्तर दिया और अपने गंदे तरीके पर राघव की नाराजगी की प्रतीक्षा करने लगी. पर उन्होंने कुछ नहीं कहा था.
पोते को दुलारने के लिए बढ़े अम्मा के हाथ खुदबखुद पीछे हट गए थे. मैं मन ही मन विजयपताका लहरा कर मुसकरा रही थी. 2 महीने तक मां और भाभी मेरी सेवा करती रहीं. राघव की मां खूब सारे मेवे, पंजीरी और फल भिजवाती रही थीं, पर मैं किसी भी चीज को हाथ न लगाती थी.
एक दिन मां के हाथ की बनी हुई खीर खा रही थी कि भाभी ने करारी चोट की. ‘दीदी, तुम्हारी सास ने इतने प्रेम से कलेवा भेजा है, उस का भी तो भोग लगाओ.’
‘अपनी समझ अपने ही पास रखो तो बेहतर होगा. मेरे घर के मामलों में ज्यादा हस्तक्षेप न करो.’
‘तुम्हारा घर…’ मुंह बिचकाते हुए भाभी कमरा छोड़ कर चली गईं तो मैं कट कर रह गई. आखिरकार मैं अपशब्दों पर उतर आईर् थी.
उन्हीं दिनों भैयाभाभी ने दफ्तर से कर्जा ले कर मेरी ही ससुराल के पास मकान खरीद लिया था. 4 कमरों के इस मकान में आने से पहले ही मां ने यह फैसला ले लिया था कि मां और बाऊजी, पिछवाड़े के हिस्से में रहेंगे. यह मशवरा उन्हें मैं ने ही दिया था और भैया मान भी गए थे.
नए मकान में आने की तैयारी जोरशोर से चल रही थी. उठापटक और परेशानी से बचने के लिए मैं ससुराल लौट आई थी.
घर लौटी तो खुशी के बादल छा गए थे. सास ने भावावेश में आ कर अभिनव को गोद में ले लिया और लगीं उस का मुंह चूमने.
‘नन्हा, फूल सा बालक, कहीं कोई संक्रमण हो गया तो?’ मैं ने उसे अपनी गोद में समेट लिया और साथ ही सुना भी दिया, ‘बच्चे की देखभाल मैं खुद करूंगी. आप सब को चिंता करने की जरूरत नहीं है.’
पिताजी अब कुछ भी नहीं कहते थे, जैसे समझ गए थे कि बहू के सामने कुछ भी कहना पत्थर पर सिर पटकने जैसा ही है. पासपड़ोस के लोग अम्माजी से सवाल करते कि बहू मायके से क्या लाई है तो मैं बढ़चढ़ कर मायके की समृद्धि और दरियादली का गुणगान करती. भाभी के मायके से आई हुई चूडि़यां मां ने मुझे उपहारस्वरूप दी थीं. बाकी सब के लिए उपहार मैं राघव की कमाई से बचाई हुई रकम से ही ले आई थी. सास की एक सहेली ने उलटपलट कर चूडि़यां देखीं, फिर प्रतिक्रिया दी, ‘मोटे कंगन होते तो ठीक रहता, मजबूती भी बनी रहती.’
मैं उस दिन खूब रोई थी, ‘आप लोग दहेज के लालची हैं. कोई और बहू होती तो थाने की राह दिखा देती.’
उस दिन के बाद से मैं ने उन लोगों को अभिनव को छूने न दिया. कोई परेशानी होती तो रिकशा करती और मां के पास पहुंच जाती. मायका तो अब कुछ ही गज के फासले पर था.
राघव के पिता का स्वास्थ्य अब गिरने लगा था. घर का वातारण देख कर वे अंदर ही अंदर घुलने लगे थे. डाक्टर ने दिल का रोग बताया था. जिस वृक्ष की जड़ें खोखली हो गई हों वह कब तक अंधड़ों का मुकाबला कर सकता है? और एक रात ससुरजी सोए तो उठे ही नहीं. पूरे घर का वातावरण ही बदल गया. शोक में डूबी अम्मा का रहासहा दर्प भी जाता रहा. साम्राज्य तो उन का पहले ही छिन गया था.
राघव ने मुझे विश्वास में ले कर सलाह दी ‘अम्मा बहुत अकेलापन महसूस करती हैं, कुछ देर अभिनव को उन के पास छोड़ दिया करो.’
दुख का माहौल था. तब कुछ भी कहना ठीक न जान पड़ा था, पर मैं ने मन ही मन एक फैसला ले लिया था, ‘अभिनव को अम्मा से दूर ही रखूंगी.’
मायके के पड़ोस वाले स्कूल में अभिनव का दाखिला करवा दिया. स्कूल बंद होने के बाद बाऊजी अभिनव को अपने घर ले जाते थे. मां उसे नहलाधुला कर होमवर्क करवातीं और सुला देतीं. शाम को मैं जा कर उसे ले आती थी. एक तो सैर हो जाती थी, दूसरे, इसी बहाने से मैं मां से भी मिल लेती थी. बाऊजी की देखरेख में अभिनव तो कक्षा में प्रथम आने लगा था, पर मां इस अतिरिक्त कार्यभार से टूट सी गई थीं. एकाध बार दबे शब्दों में उन्होंने कहा भी था, ‘शतांक को भी देखना पड़ता है. बहू तो नौकरी करती है.’
पर मैं अभिनव को अपने घर के वातावरण से दूर ही रखना चाहती थी.
धीरेधीरे भाभी ने उलाहने देने शुरू कर दिए थे, ‘पहले बेटी घर पर अधिकार जमाए रखती थी, अब नाती भी आ जाता है. मेरा शतांक बीमार हो या स्वस्थ रहे, पढ़े न पढ़े, इन्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता है. एक को सिर पर चढ़ाया हुआ है, दूसरा जैसे पैरों की धूल है.’
भाभी ने साफ तौर पर अभिनव की तुलना शतांक से कर के जैसे सब का अपमान करने की हिम्मत जुटा ली थी. अपने सामने अपने ही मातापिता की झुकी हुई गरदन देखने की पीड़ा कितनी असहनीय होती है, उस दिन मैं ने पहली बार जाना था.
फिर भी हिम्मत जुटा कर कहा था मैं ने, ‘घर तो मेरे बाऊजी और मां का है. हम तो आएंगे ही.’
‘भूल कर रही हो, यह घर मेरे और तुम्हारे भैया के अथक परिश्रम से बना है. तुम्हारे सासससुर की तरह किसी ने हमें उपहार में नहीं दिया. यह अलग बात है कि तुम्हारी तरह नातेरिश्तेदारों से संबंध तोड़ कर नहीं बैठे हैं. यही गनीमत समझो.’
वसुधा भाभी के शब्दों ने बारूद के ढेर में चिनगारी लगाने का काम किया था. उस दिन के बाद से स्थिति बिगड़ती चली गई. कभी मांबाऊजी का अपमान होता, कभी मेरा और कभी अभिनव का. ऐसे माहौल में मांबाऊजी पिछवाड़े का हिस्सा छोड़ कर भैयाभाभी के साथ समायोजन कैसे स्थापित कर सकते थे? अपने पास इतने साधन नहीं थे कि अलग से गृहस्थी बसा सकें. कहां जाएंगे मांबाऊजी, यही प्रश्न मन को बारबार कटोचता है.
आत्मविवेचन करती हूं तो मां की मौन आंखों के बोलते प्रश्नों का जवाब ढूंढ़ नहीं पाती. कभी लगता है, शायद मैं ही दोषी हूं, अपनी ससुराल और पति से दूर भाग कर मायके में सुख ढूंढ़ने की कोशिश करती रही. पर सुख पाना तो दूर, मां व बाऊजी को ही दरदर भटकने को मजबूर कर दिया.
‘कितनी सुखी हैं राघव की मां? संस्कारी बेटा है, सिर पर छत है और पिताजी की छोड़ी हुई संपदा, जिसे जब तक जीएंगी, भोगेंगी. सिर्फ मेरी ही स्थिति परकटे पक्षी सी हो गई है, जिस में उड़ने की तमन्ना तो है, पर पंख ही नहीं हैं. कहां ढूंढ़ूं इन पंखों को? मायके की देहरी पर या ससुराल के आंगन में?’ यही सोचतेसोचते आंखें एक बार फिर नम हो आई हैं. द्य