एक दिन दुकान पर जाने से पहले सुहास सागर के घर पहुंच गया. बेला उसे देख कर चकित हो बोली, ‘‘क्या हुआ, देवरजी, आज दुकान जाने की जगह हम लोग कैसे याद आ गए?’’

मुसकरा कर सोफे पर बैठते हुए सुहास बोला, ‘‘बहुत दिनों से आप के हाथ की चाय नहीं पी थी भाभी, इसीलिए.’’

सागर ने तौलिए से चेहरा पोंछते हुए कहा, ‘‘हां भई, चाय तो मुझे भी चाहिए,’’ फिर सुहास की बगल में बैठते हुए बोले, ‘‘तुम्हारी बहन की शादी बहुत शानदार रही.’’

सुहास कुछ बोलता कि बेला ने रसोई से चुटकी ली, ‘‘श्वेता तो गई सुहास, अब हमारी देवरानी कब आ रही है?’’

यह सुनते ही सुहास का मन गुदगुदा उठा. वह यहां बात करने ही तो आया है. झट से बोला, ‘‘जब आप जैसी भाभियां कोशिश करेंगी तभी तो आएगी.’’

‘‘ऐसा है तो कल ही मैं वहां जा कर बात छेड़ देती हूं,’’ बेला ने कहा.

‘‘भाभी हों तो ऐसी,’’ सुहास चहक उठा, इतनी सरलता से बात बन जाएगी यह उस ने सोचा भी नहीं था. इसीलिए तो उसे हर छोटीबड़ी समस्या के साथ बेला की याद आ जाती है.

बेला के सुझाव पर ही सुहास ने अपनी दुकान पर मन लगा कर काम करना शुरू कर दिया था और सलाह लेने के बहाने वह जबतब पुरवा के घर पहुंच जाता था. सहाय साहब उसे देखते ही प्रसन्न हो जाते. उसे व्यापार बढ़ाने के नए गुर सिखाते. आखिर उस की लगन रंग लाई और एक दिन सहाय साहब रिश्ते की बात ले कर वर्मा साहब के घर पहुंच गए.

वर्मा दंपती ने सहाय साहब का खूब स्वागतसत्कार किया. एकदूसरे का हाल पूछा गया. श्वेता के विवाह पर हुए भव्य आयोजन की सहाय साहब ने प्रशंसा की और अंत में बोले, ‘‘वर्मा साहब, मैं भी अब अपनी जिम्मेदारी जल्दी पूरी करना चाहता हूं. आप ने तो पुरवा को देखा ही है.’’

वर्मा साहब और रजनीबाला एक स्वर में बोले, ‘‘आप की बेटी तो बहुत सुंदर और सुशील है. हम दोनों को बहुत पसंद है.’’

सहाय दंपती को मनचाहा वरदान मिल गया. प्रसन्नता से गद्गद होते हुए सहाय साहब बोले, ‘‘वर्मा साहब, हमें भी आप का बेटा बहुत पसंद है. जब से वह हम लोगों से मिला है, हम अपने बेटे की दूरी भूल गए हैं. और इसी उम्मीद पर आए हैं कि…’’

वर्मा साहब ने उन की बात पूरी होने से पहले ही कहा, ‘‘आप की बेटी हमारी हुई सहाय साहब, हमारा बेटा आप शौक से ले जा सकते हैं.’’

रजनीबाला सहित सभी की खुशी ठहाकों में गूंज उठी. मिठाई मंगाई गई और विवाह तय हो गया. मुंह मीठा कर के सहाय साहब जब घर को वापस लौटे तो उन के कदम मारे खुशी के जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

देखते ही देखते सुहास और पुरवा की सगाई का दिन भी तय हो गया. दोनों जब भी मिलते, कल्पनाओं की उड़ान भरते. उन्हें लगता जैसे वे किसी स्वप्नलोक में घूम रहे हों.

पुरवा कहती, ‘‘सुहास, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है कि हम दोनों अब विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं.’’

‘‘हां, सच, अभी तो हम मिले ही थे और एकदूसरे के हो जाने की चाहत में तड़प ही रहे थे कि हमारे मातापिता ने सारे रास्ते आसान कर दिए.’’

पुरवा कुछ पल सोचती और कहती, ‘‘सुहास, पता नहीं क्यों अब डर सा लगता है.’’

‘‘अरे, यह क्या बात हुई.’’

‘‘हां, सच, अभी तक लगता था कि हम प्यार का खेल खेल रहे हैं, पर सुहास, शादी खेल तो नहीं है न,’’ पुरवा की सोच गहरी हो जाती.

‘‘कहती तो ठीक हो, पुरवा. देखो न, तुम से विवाह के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने पड़ गए, वरना मैं और दुकान…’’

सुहास की बातें भले ही हंसी में टल जातीं पर यह भी सच था कि दोनों अपने आने वाले कल के लिए जहां बहुत खुश थे, वहीं एक भय भी उन में समाया हुआ था.

दोनों की सगाई वाले दिन श्वेता अपने पति व ससुराल वालों के साथ आई थी. उस का रूप खिलाखिला जा रहा था और चेहरा उल्लास से दमक रहा था.

बहुत से नए चेहरों से पुरवा को परिचित कराया गया. बेला ने हंसते हुए कहा, ‘‘देवरानीजी, मेरे देवर को बहुत संभाल कर रखना. अपनी धड़कनों में कैद कर के.’’

पुरवा मुसकरा दी. उस की आंखों में भविष्य के सुनहरे सपने तैर रहे थे. वह उस दिन के बारे में सोचने लगी जब वह सुहास से मिली थी. सच, कैसीकैसी घटनाओं से जुड़ कर जीवन के दिन गुजरते हैं.

और वह घड़ी भी आ गई जब दोनों का विवाह धूमधाम से संपन्न हो गया. पुरवा वर्मा परिवार की बहू बन कर आ गई. जिन लोगों ने पहले से उसे देख रखा था वह तो खुश थे ही, पर जो पहली बार उसे देख रहे थे, वे सब भी बारबार उस की सुंदरता की तारीफ कर रहे थे. महिलाएं रजनीबाला से कह रही थीं, ‘‘मिसेज वर्मा, आप बहू बहुत सुंदर ढूंढ़ कर लाई हैं.’’

एक ने टोका, ‘‘सुना है दोनों पहले से एकदूसरे को जानते हैं.’’

रजनीबाला हंस दीं, ‘‘हां भई, आजकल बच्चे पहले पसंद कर लेते हैं, मांबाप तो बाद में मिलते हैं. इस में नया क्या है?’’

रजनीबाला के जाने के बाद एक महिला बोली, ‘‘तभी तो इतनी अच्छी बहू मिल गई है. सुना है लड़की के पिता ने ही इन के बेटे को काम पर रखवाया है.’’

दूसरी ने उसे और सुधारते हुए कहा, ‘‘अरे, काम पर नहीं, व्यापार शुरू करवाया है. दुकान खुलवा दी है.’’

पुरवा सारी बातें सुन रही थी. विचित्र सी कड़वाहट से उस का मन भर उठा कि उस के सुहास के बारे में कैसीकैसी चर्चा है. उस ने मन ही मन सोचा कि पापा यदि व्यापार नहीं करवाते तो क्या सुहास कुछ और नहीं कर सकता था. तभी एक और दबादबा सा स्वर पुरवा के कानों तक पहुंचा, ‘‘वैसे तो सुहास का मन किसी काम में नहीं लगता है. बस, इधरउधर बैठक करवा लो…’’ इस के आगे पुरवा और नहीं सुन सकी. उस ने अपने दोनों कान बंद कर लिए क्योंकि वह अपने सुहास के लिए कोई अपशब्द नहीं सुन सकती.

सुहाग की सेज सजी हुई थी. श्वेता और अन्य लड़कियां पुरवा को निरंतर छेड़ रही थीं. पुरवा को सजाने का कार्य बेला ने किया था. सजा कर जब बेला ने पुरवा का चेहरा देखा तो बोली, ‘‘बस, एक काले टीके की और जरूरत है. लगता है, चांद धरती पर उतर आया है.’’

पुरवा कितनी बार इन लोगों से मिल चुकी थी, पर उस समय लग रहा था, सबकुछ नयानया है. एक तरफ मन उमंगों से भरा हुआ है तो दूसरी तरफ जाने उस में कैसा भय समाया है जो हृदय की धड़कनों को निरंतर तेज कर रहा है. सारा वातावरण और सभी चेहरे नएनए से लग रहे थे. हालांकि वे सभी लोग अब उस से पूर्णतया जुड़ गए थे, फिर भी जाने कैसी सिहरन थी.

पुरवा ने अपना विचलित मन संभालने का प्रयास किया. उस ने लोगों की खिल- खिलाहटों के बीच उस पूरे कमरे पर नजर दौड़ाई जो उस के लिए ही सजाया गया था. आज उस की सुहागरात है यह सोचते ही उस की सिहरन फिर बढ़ गई. रंगबिरंगे फूलों की मालाओं से पूरा पलंग सजा हुआ था. आज तक जहां रहती आई है वहां से एकदम अलग यह स्वप्नों का संसार आज उस के सामने है.

रात 11 बजे भाभी सुहास को धकेलते हुए कमरे में लाईं और सब लड़कियों को कमरे से बाहर कर दरवाजा बाहर से बंद कर दिया.

वही सुहास था, वही पुरवा पर पुरवा की दृष्टि लाज से झुकी जा रही थी.

‘‘पुरवा…’’ इस संबोधन के साथ उस के नजदीक बैठ कर सुहास ने उस का घूंघट उठाया तो उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. सुहास के मन में भी हलकी- हलकी सिहरन थी, जीवन का हर नया मोड़ एक अनुभव होता है, यह वह जानता है, फिर भी जब वह मोड़ सामने आ जाए तब मन में उमंगों के साथसाथ उद्वेलन भी होता है, यह उसे पहली बार अनुभव हो रहा था. सुहास बोला, ‘‘पुरवा, आज आंखें मूंदने की नहीं, जागने की रात है,’’ और बंद आंखों के साथ पुरवा मुसकरा दी. धीरेधीरे आंखें खोलीं और मधुर स्वर में बोली, ‘‘मैं विश्वास करना चाह रही थी कि हम दोनों सचमुच एक हो गए हैं. समाज जिसे पतिपत्नी कहता है, आज हम वही बन चुके हैं.’’

सुहास ने आहिस्ता से उसे बांहों में भर लिया और बोला, ‘‘हां पुरवा, आज हमारी प्रतीक्षा पूरी हो गई है.’’

उस रात हवाओं में भी सुगंध भर गई थी. पूरा कमरा फूलों की सुगंध से महक रहा था. पुरवा और सुहास को जैसे सपनों का साम्राज्य मिल गया था. वह सपना जो अचानक कभी राह में मिल गया था, तब कुछ सोचा नहीं था, समझा भी नहीं था. बस, उसी सपने को डोर समझ कर दोनों कहीं खिंचे चले जा रहे थे. उस स्वप्न में विचित्र चाहत और अनोखा आकर्षण था. कुछ पाने से पहले बहुत कुछ करना और समझना था और दोनों ने ही अपनी चाहत को पाने के लिए भरपूर प्रयास किया था.

सुहाग सेज पर दोनों के मन किसी भी प्रश्न से उलझना नहीं चाह रहे थे. हालांकि अब उन के स्वप्नों का आकार और भी विस्तृत हो गया था फिर भी उस पल को वह दोनों केवल अपनेआप में आत्मसात कर लेना चाहते थे.

अगली सुबह पुरवा एकदम नईनई लग रही थी. एक तरफ सुहास के प्यार से तनमन भीगा हुआ था और दूसरी तरफ एकदम नए वातावरण में उसे अपनेआप को स्थापित करना पड़ रहा था.

उस की वह सुबह मातापिता के घर की हर सुबह से एकदम अलग सी थी. पहले सी अल्हड़ मस्ती और निश्चिंतता नहीं थी. कहीं कोई भूल न हो जाए यह डर तो मन में समाया ही था. हर एक की खुशी का उसे ध्यान भी रखना था. देखते ही देखते घर मेहमानों से खाली होने लगा. फिर वही वर्मा साहब, रजनीबाला, सुहास रह गए. बस, पुरवा ही उस घर में एक नया चेहरा था लेकिन अपनी व्यवहार- कुशलता से वह भी जल्दी ही सब के बीच में घुलतीमिलती जा रही थी.

सुहास दुकान जाने से पहले रोज कहता, ‘‘आज घर पर ही रह जाऊं?’’

‘‘क्यों?’’ पुरवा क्रोध करने का नाटक करते हुए कहती, ‘‘घर पर रहोगे तो व्यापार बढ़ना तो दूर, समाप्त ही हो जाएगा,’’ लेकिन उस के मन में इस बात को ले कर खुशी होती कि उस का पति उसे कितना चाहता है कि एक पल को भी छोड़ने को तैयार नहीं है.

‘‘अच्छा है न, तुम्हें छोड़ कर कहीं जाने का बहाना ही नहीं रह जाएगा,’’ सुहास यह कहते हुए हंस कर उसे बांहों में भर लेता.

पुरवा को लगता, जाने कहां से यह कुछ पलों का सुख उस की झोली में आ गिरा है, इतना प्यार करने वाला पति, उस का मान रखने वाले और दुलार करने वाले सासससुर, प्यारी सी ननद व भैयाभाभी जैसे जेठजेठानी.

मेहमानों के चले जाने के बाद दोनों हनीमून के लिए ऊटी चल पड़े. दोनों के मन उत्साह से भरे हुए थे. जिस होटल में दोनों ठहरे थे उसी में एक और नव दंपती भी ठहरा हुआ था. युवक फौज में आफिसर था और पत्नी बहुत सुंदर व चुस्त दिखने वाली युवती थी. रात को बिस्तर में दुबक कर आपस में लाड़ करते हुए सुहास ने कहा, ‘‘ये जो दूसरा जोड़ा है पुरवा, वह हम दोनों जितना खूबसूरत तो नहीं है न?’’

सुहास की हथेली अपने अधरों से चूमते हुए पुरवा बोली, ‘‘हम से अधिक सुंदर है या नहीं, यह तो नहीं पता, पर हमारे प्यार से अधिक सुंदर किसी और का प्यार हो ही नहीं सकता है.’’

‘‘सच?’’ सुहास ने उसे बांहों में भर कर उस के अधरों पर चुंबन जड़ दिया. पुरवा कुछ पल बाद बोली, ‘‘पर हम दोनों उन्हें क्यों याद कर रहे हैं?’’

‘‘अरे हां, यह भी ठीक है, हम यहां जी भर कर प्यार करने आए हैं. कोई दूसरा हमारे बीच क्यों?’’

उस दूसरे जोड़े से इन की दोस्ती बहुत जल्दी हो गई थी. उस रात अचानक ऊटी में बहुत बर्फ पड़ी थी. पुरवा तो ठंड से जकड़ी जा रही थी और उसे छींक पर छींक आ रही थी. सुहास ने उस के लिए चाय बनाते हुए कहा, ‘‘यह बहुत अच्छा हुआ जो हमें यहां बर्फ भी देखने को मिल रही है.’’

‘‘लेकिन यह ठंड तो मुझ से सहन नहीं हो रही है,’’ पुरवा ने कांपते हुए कहा.

‘‘मैं बाहर के काउंटर से विक्स खरीद कर लाता हूं. तुम्हें नींद अच्छी आ जाएगी,’’ सुहास बोला.

‘‘पर तुम्हें क्या ठंड नहीं लग जाएगी,’’ पुरवा ने चिंता जाहिर की.

‘‘वह कैसा पुरुष जो इतनी सी बर्फ से पिघल जाए,’’ सुहास ने शरारत के साथ कहा और बाहर चला गया. कारीडोर में वह दंपती मिल गया. सुहास को देखते ही पुरभव बोल पड़ा, ‘‘आप… अकेले?’’

‘‘हां, भाई, मेम साहब को ठंड लग गई है, विक्स लेने जा रहा हूं.’’

मित्रता होने पर दोनों एकदूसरे के नाम से परिचित हो गए थे. सुहास आगे बढ़ गया तो पुरभव की पत्नी वसुधा ने कहा, ‘‘प्यार कर के शादी करने का यही आनंद है. पति बेचारा पत्नी की सेवा में भागाभागा फिर रहा है.’’

‘‘सेवा में तो यह बंदा भी हर समय हाजिर है मलिका साहिबा,’’ पुरभव ने भी शरारत से झुक कर कहा तो वसुधा खिलखिला कर हंस पड़ी. सुहास ने जाते- जाते उन की बातें सुन लीं और हंस पड़ा. अपने नए जीवन की एक मधुर सी आलोचना को वह प्यार की उपलब्धि मान कारीडोर से बाहर निकल गया.

ऊटी में घूमतेटहलते दोनों जोड़े कहीं न कहीं टकरा ही जाते थे. कभी बर्फीली घाटियों में, कभी जगमगाती वादियों के सुंदर से पर्यटन स्थल पर या होटल की लाबी में. एक दिन सुहास ने पुरवा से कहा, ‘‘ये साथ वाला जोड़ा भी खासा दिलचस्प दिखाई देता है.’’

‘‘कोई खास बात?’’ पुरवा ने बालों में ब्रश करते हुए कहा.

‘‘नहीं, खास नहीं, पर दोनों बोलते बहुत हैं,’’ सुहास ने पुरवा द्वारा निकाले सूट को देखते हुए कहा, ‘‘पुरवा, तुम ने नोट किया, यह दूसरा जोड़ा हमेशा एक सा रंग पहन कर निकलता है.’’

सुहास ने पैंट उठाते हुए अचानक यह बात कही तो पुरवा ने ब्रश रख कर पहले तो सुहास को देखा और फिर हंस दी.

‘‘क्या तुम भी मैचिंग बन कर चलना चाहते हो?’’ पुरवा के अधरों पर शरारत देखी तो सुहास घबरा गया. नईनवेली दुलहन बुरा तो नहीं मान गई.

पुरवा बोली, ‘‘पहनने में तो कोई हर्ज नहीं है, पर कहीं वह लोग यह न समझ लें कि हम ने उन की नकल की है.’’

‘‘हां, वह तो है ही, हमें उन की नकल थोड़े ही करनी है,’’ सुहास ने स्वयं को बचाने का प्रयास किया.

पुरवा ने साड़ी की प्लेट ठीक करते हुए कहा, ‘‘वैसे कल तुम्हें वसुधा का स्कर्ट भी बहुत पसंद आ रहा था. बारबार तारीफ कर रहे थे.’’

‘‘अरे, नहीं यार,’’ सुहास थोड़ा लज्जित सा हो कर बोला, ‘‘वह तो साथ चलने वालों का मन रखने के लिए इस तरह की प्रशंसा करनी पड़ती है.’’

‘‘हां, सो तो है, तभी कल से कई बार मुझ से कह चुके हो कि स्कर्ट क्यों नहीं पहनती हो.’’

अब सुहास पैंट छोड़ कर उस के निकट आ गया और उसे बांहों में भर कर बोला, ‘‘तुम्हें बुरा लगा तो मुझे क्षमा कर दो.’’

पुरवा मुसकरा पड़ी, सुहास के आलिंगन में पहुंचते ही वह पलक झपकते अपने सारे गिलेशिकवे भूल जाती थी.

एक दिन घूमते हुए सुहास ने पुरवा से कहा, ‘‘पुरु, मुझे नए लोगों से दोस्ती करने में बहुत आनंद आता है. अभी तुम्हें मालूम नहीं है कि अपने घर के आसपास के लोगों में मेरी कितनी इज्जत है. मेरे बिना सब के जरूरी काम रुक जाते हैं.’’

‘‘अच्छा,’’ पुरवा हंस दी, ‘‘जो नहीं  देखा वह सब भी देखने को मिल ही जाएगा पर मैं सोचती हूं कि यहां हम दोनों दोस्ती करने नहीं, हनीमून पर आए हैं, जिस में केवल पतिपत्नी ही एकदूसरे को समझते और दोस्ती करते हैं.’’

‘‘तुम्हारा भी जवाब नहीं,’’ सुहास उस के तर्क पर हंसने लगा. पुरवा को

पा कर जैसे अब उसे कोई चिंता ही

नहीं रह गई थी. उस की गुनगुनाहट में मस्ती थी.

यह सब देख कर पुरवा को लगता कि सुहास अपना इच्छित फल पा कर मन की खुशी छिपा नहीं पा रहा है, इसीलिए अपना उल्लास चारों ओर बिखेरता फिर रहा है.

जब वापस लौटने की घड़ी आई तो दोनों उदास हो गए. सुहास बोला, ‘‘कैसा आनंद आ रहा था इस अजनबी जगह पर, किसी की चिंता नहीं, कोई डर या जिम्मेदारी नहीं.’’

‘‘जिम्मेदारी तो है,’’ पुरवा ने शरारत से कहा, ‘‘मुझे सहीसलामत साथ ले जाने की.’’

पुरवा के इस शरारती अंदाज पर सुहास हंस दिया. पुरभव और वसुधा से उन के घर का पता लिया और पत्र लिखने के वादे के साथ दोनों अपनेअपने ठिकानों पर लौट चले.

घर पर बहुत गहमागहमी थी. दोनों के स्वागत में श्वेता व गौरव भी घर पर मौजूद थे. पुरवा को देखते ही श्वेता गले लग गई और धीरे से बोली, ‘‘कैसा रहा हनीमून.’’

पुरवा ने मुसकरा कर दृष्टि झुका ली. वर्मा साहब व रजनी ने कहा, ‘‘आज सब हैं तो कितना अच्छा लग रहा है, नहीं तो घर सूनासूना हो गया था.’’

एकांत मिलते ही पुरवा ने श्वेता से पूछा, ‘‘और तुम कैसी हो ननद रानी?’’

‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ श्वेता ने हंसने की चेष्टा की.

‘‘सब प्यार तो करते हैं न?’’ पुरवा ने यों ही भाभी होने का दुलार दिखाया था पर श्वेता एकदम उदास हो गई.

‘‘क्या बात है श्वेता, गौरव तो बहुत भला लड़का है?’’ पुरवा ने उस की उदासी से चिंतित हो कर पूछा.

‘‘हां, वह तो बहुत प्यार करते हैं भाभी पर उस घर में इतने लोग हैं और सब अपने अलगअलग तेवर दिखाते हैं. मुझे इस तरह झुंड में रहने की आदत नहीं थी.’’

‘‘ऐसा मत कहो श्वेता, तुम्हारा भरापूरा परिवार है, उसे भेड़बकरी के झुंड की संज्ञा मत दो,’’ पुरवा ने समझाया तो श्वेता तुनक गई.

‘‘तुम क्या समझोगी भाभी, मेरी परेशानी. अकेले भैया व मम्मीपापा हैं न बस यहां.’’

पुरवा को लगा कि इस समय श्वेता से कोई भी बहस व्यर्थ होगी. इसलिए खामोश हो गई.

सुहास और पुरवा ने सब के उपहार निकाल कर दिए तो रजनी ने खुश होते हुए कहा, ‘‘कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन इस छोटे बेटे की कमाई का उपहार मिलेगा.’’

‘‘क्यों मम्मी,’’ पुरवा ने आश्चर्य से पूछा.

वर्मा साहब और श्वेता ने एकसाथ कहा, ‘‘कमाने का शौक ही कहां था. बस, जगत सेवा करने का शौक था इसे.’’

‘‘क्यों बदनाम कर रहे हो तुम दोनों मेरे बेटे को,’’ रजनी ने कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए कहा, ‘‘वह भी तो पुण्य का काम ही करता है. किसी के काम आना कोई बुरी बात है क्या?’’

पुरवा मुसकरा दी और बोली, ‘‘आप के बेटे के जीवन में मैं भी तो उसी पुण्य लाभ के फलस्वरूप आई हूं. मेरी सहायता करने ही तो दौड़ पड़े थे चोर के पीछे,’’ पुरवा की बात पर एक मिलाजुला ठहाका वातावरण में गूंज उठा.

‘‘कुछ भी हो बेटा, तुम्हारे प्यार ने इसे एक जिम्मेदार इनसान बना दिया, वरना तो इस का बचपना जाता ही नहीं था,’’ रजनी ने पुरवा को प्यार से देखते हुए कहा.

पुरवा हंस कर सोचने लगी, मैं सचमुच मैं कितने अच्छे घर में आई हूं जो सब इतना प्यार और मानसम्मान देते हैं.

-क्रमश:

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