पूर्व कथा

पुरवा कालिज जाने के लिए बस में जाती है कि एक चोर उस का पर्स छीन कर चलती बस से कूद जाता है. पुरवा के चिल्लाने पर एक युवक तुरंत बस से कूद कर उस चोर को पकड़ लेता है और पर्स पुरवा को लौटा देता है. इस घटना के बाद वे दोनों अकसर बस में मिलते रहते हैं. युवक का नाम सुहास है जो उच्च सरकारी पद से रिटायर हुए मकरंद वर्मा का तीसरा बेटा है. पुरवा और सुहास की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता जाता है और  दोनों के मन में प्यार की कोंपल फूटने लगती है.

अब आगे…

कौफी हाउस से निकल कर दोनों काफी देर साथसाथ टहलते रहे. सबकुछ बहुत आनंदित करने वाला था. सुहास ने कहा, ‘‘पुरवा, हम दोनों ऐसे ही सदा के लिए साथसाथ नहीं चल सकते?’’

पुरवा हंस कर बोली, ‘‘शादी कर लो न. फिर सदा साथसाथ चलते रहेंगे.’’

‘‘अरे हां,’’ सुहास उत्साहित सा बोला, ‘‘यह तो सब से सरल उपाय है.’’

‘‘तो पापा को तुम्हारे घर भेजूं?’’ पुरवा ने शरारत से पूछा.

‘‘ठहरोठहरो,’’ सुहास ने कहा तो पुरवा उसे बनावटी गुस्से से देखते हुए बोली, ‘‘क्यों, डर गए. तुम्हारे मम्मीपापा नाराज होंगे क्या?’’

‘‘नहीं, मैं तो मम्मीपापा का लाडला बेटा मशहूर हूं,’’ सुहास बोला, ‘‘मेरी भाभियों को यही तो शिकायत है कि अभी तक मैं खाली बैठा मुफ्त की रोटियां तोड़ रहा हूं.’’

‘‘यह तो सोचने की बात है कि तुम्हारे साथ कहीं मैं भी मुफ्तखोरी में शामिल हो गई तो क्या हाल होगा महाशय?’’ पुरवा ने आश्चर्य दिखाते हुए कहा.

‘‘मेरे मातापिता 2 क्या 10 लोगों को बैठा कर खिला सकते हैं, मैडम,’’ सुहास ने भी अकड़ने की मुद्रा बनाई. फिर दोनों ही खिलखिला कर हंस दिए. कुछ देर के मौन के बाद अचानक पुरवा ठहर गई और धीरे से बोली, ‘‘अपनी पढ़ाई पूरी होते ही मैं भी नौकरी खोज लूंगी सुहास और तुम तो कोशिश कर ही रहे हो अपने लिए, हमारी शादी में कोई बाधा नहीं पड़नी चाहिए.’’

‘‘लगता तो यही है, फिर भी पहले मैं मम्मी से बात कर लूं. फिर तुम अपने पापाजी को भेजना,’’ सुहास ने कुछ गंभीर स्वर में कहा.

दोनों साथसाथ चलते हुए बस स्टाप पर पहुंचे और अपनीअपनी बसों की प्रतीक्षा करने लगे.

उस दिन सुहास पूरी रात अस्पताल में पड़ोस के सागर साहब के साथ जागा था अत: घर आते ही उस की आंखें बोझिल होने लगी थीं. इसीलिए सुबह के 10 बजे भी वह सोया हुआ था. सागर साहब अस्थमा के मरीज हैं. कभीकभी उन्हें अस्थमा का भयानक दौरा पड़ता है. ऐसे में उन की पत्नी बेला सहायता के लिए सदा मकरंद वर्मा के घर दौड़ आती हैं. शुरू में एक पड़ोसी होने के नाते वर्मा साहब ही जा कर डाक्टर को बुलवाते थे, रजनीबाला देर तक वहीं बनी रहती थीं. फिर धीरेधीरे यह कार्यभार सुहास ने संभाल लिया.

उस समय यह पड़ोस धर्म उस ने मम्मीपापा को राहत देने के लिए संभाला था. धीरेधीरे इस तरह

की जिम्मेदारियों को निभाना उस का स्वभाव बन गया. वह लोगों की सहायता में निपुण होता गया. दूसरों को भी लगता था कि सुहास उन के हर दुख को पलक झपकते ही दूर कर देगा और लोगों का यह विश्वास ही उस की प्रेरणा बन गई. जीवन के इस पहलू को भी उस ने अपना एक लक्ष्य बना लिया.

पुरवा से मिलने के बाद अचानक उस के पास समय की कमी रहने लगी. नौकरी की तलाश भी जारी थी. एक दिन वर्मा साहब ने उस से कहा, ‘‘यदि नौकरी पाना इतना कठिन है तो क्यों नहीं कोई व्यापार शुरू कर देते हो.’’

‘‘पापा, व्यापार के लिए रुपए भी तो चाहिए,’’ सुहास ने कहा.

‘‘बैंक से कर्ज दिलवा देंगे,’’ वर्मा साहब ने कहा.

व्यापार के नाम से अचानक उसे पुरवा के पिता की याद आ गई. सोचा, यह अवसर अच्छा है, व्यापार की जानकारी लेने के बहाने उन से निकटता बना कर पुरवा से विवाह तक पहुंचने की राह सरल हो जाएगी, लेकिन पहले किसी तरह पुरवा को मम्मीपापा से मिलवाना होगा. उस ने मन ही मन योजना तैयार की और एक दिन पुरवा को अपने घर पर ले आया.

मम्मी को उस शाम कहीं पार्टी में जाना था. वह लौन में बैठ कर नाखून की पुरानी पालिश उतार रही थीं. श्वेता भी निकट बैठ कर कोई उपन्यास पढ़ रही थी.

सुहास के साथ एक लड़की को देख कर दोनों चौंक उठीं. सुहास ने हंसते हुए कहा, ‘‘मम्मा, यह पुरवा है, मेरी बहुत अच्छी मित्र.’’

श्वेता मुसकराते हुए बोली, ‘‘मुझे तो लगता है कि यह आप से अधिक मेरी प्यारी मित्र बन सकती हैं.’’

‘‘बेशक,’’ पुरवा ने झट से अपनी हथेली उस की तरफ बढ़ा दी. दोनों हमउम्र लड़कियों के हाथ आपस में आ मिले.

मम्मी ने पूरी सौम्यता से कहा, ‘‘आओ, पुरवा, यहां बैठो.’’

पास की खाली कुरसियों पर पुरवा व सुहास बैठ गए. रजनीबाला की पारखी आंखों ने भांप लिया कि बेटा इस लड़की को यहां क्यों लाया है. उन्होंने नौकर से चाय लाने को कहा और पुरवा के परिवारजनों की जानकारी लेने लगीं.

सुहास बीच में बोल पड़ा, ‘‘मम्मा, पुरवा के पिताजी व्यापारी हैं और पापा कह रहे थे कि मैं भी व्यापार शुरू करूं तो सोचता हूं कि उन से मिल कर व्यापार के तौरतरीके सीख लूं.’’

चाय आ गई थी. साथ में कुछ नमकीन, काजू और बिस्कुट. मम्मी ने उसे चाय पकड़ाते हुए सुहास से कहा, ‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे व्यापार भी कोई खेल हो. अरे, बड़ा खून जलाना पड़ता है व्यापार शुरू करने के लिए और फिर उसे संभाले रखने के लिए.’’

‘‘आप ठीक कह रही हैं, आंटी. मेरे पापा इतने व्यस्त रहते हैं कि हम लोग कईकई दिन उन्हें देखने को तरस जाते हैं. कभी मुंबई, कभी लुधियाना और कभी विदेश भी,’’ पुरवा ने मम्मी के समर्थन में कहा था. लेकिन रजनीबाला के मन में तो कुछ और ही उमड़घुमड़ रहा था कि लड़की तो अच्छी पसंद की है सुहास ने, अगर इस लड़की के प्यार के कारण ही उसे काम करने की जिम्मेदारी समझ में आ जाए तो बुरा क्या है.

अपनी सोच को संवाद देते हुए वह बोलीं, ‘‘मुझे बड़ी खुशी हो रही है बेटी कि तुम्हारी मित्रता इसे अपने पैरों पर खड़े होने का उत्साह दिला रही है.’’

पुरवा थोड़ा सा लजाई फिर सुहास की ओर देख कर बोली, ‘‘काम तो सुहास तलाश ही रहे हैं आंटी, और आप जो व्यापार की सलाह दे रही हैं वह भी बहुत अच्छी है.’’

रजनीबाला प्रसन्न हो गईं. सोचा, लड़की मेरे कामचोर बेटे को ठिकाने से लगाने में समर्थ रहेगी. उन्होंने हंस कर बड़ी आत्मीयता से पुरवा की तरफ देखा और बोलीं, ‘‘पुरवा बेटी, मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इसे व्यापार के लिए मन बनाने में सहायता करोगी.’’

‘‘क्यों नहीं आंटी, यह तो मेरा पहला कर्तव्य होगा,’’ फिर थोड़ा संकोच से मुसकराते हुए बोली, ‘‘वैसे आंटी, सुहास में एक सफल व्यापारी बनने के सारे गुण हैं. दूसरों के काम आ कर उन का मन जीत लेना इन्हें खूब आता है.’’

श्वेता उठते हुए झट से बोली, ‘‘बस, यही तो एक काम भैया को आता है. पूरे महल्ले की सेवा करते रहते हैं,’’ और अपने कमरे में चली गई.

रजनीबाला ने संकोच से पुरवा की ओर देखा और बोलीं, ‘‘बहुत लाडली है अपने भाई की. ऐसे ही छेड़ती रहती है इसे.’’

एक दिन पुरवा ने फोन पर सुहास को बताया कि आज पापा सारा दिन घर पर ही रहेंगे. सुहास झटपट तैयार हो कर चल दिया. रजनीबाला ने पूछा तो बोला, ‘‘मम्मा, मैं पुरवा के पापा के पास व्यापार के गुर सीखने जा रहा हूं.’’

रजनी ने मन ही मन सोचा, ‘व्यापार के गुर सीखने जा रहा है या पुरवा के लिए बाप के दिल में जगह बनाने,’ पर चेहरे पर हंसी ला कर बोलीं, ‘‘यह तो खुशी की बात है. तुम्हारे पापा तो कब से चाहते हैं कि तुम कुछ करो लेकिन सुहास, घर जल्दी आ जाना, आज श्वेता को देखने कुछ लोग आ रहे हैं.’’

‘‘जब देखो उस नकचढ़ी के विवाह के पीछे लगी रहती हैं. अरे, करनी है तो मेरे विवाह की चिंता कीजिए न,’’ इतना कहते हुए सुहास बाहर निकल गया.

पुरवा के पापा से मिलते ही सुहास उन के कदमों में झुक गया और बोला, ‘‘अंकल, आप मेरी नैया पार लगा सकते हैं.’’

सहाय साहब के पैर छू कर वह खड़ा हुआ तो पुरवा हंसने लगी. फिर अपने पापा से बोली, ‘‘पापा, मैं ने आप को बताया था कि सुहास व्यापार करना चाहता है.’’

सहाय साहब ने सुहास को सोफे पर बैठने का संकेत किया और खुद भी बैठते हुए बोले, ‘‘पुरू अकसर तुम्हारे बारे में बताती रहती है. अच्छा सुहास, तुम किस तरह का व्यापार करना चाहते हो?’’

सुहास सकपका गया. घबराहट में बोला, ‘‘कुछ भी, अंकल, जो मुझ जैसे नएनए खिलाड़ी के लिए सरल हो.’’

‘‘हां, यह तो है. शुरू में तो व्यापार छोटा ही जमाना पड़ता है और किसी भी व्यापार के लिए व्यक्ति को साहसी, परिश्रमी व अच्छा प्रबंधक होना चाहिए,’’ सहाय साहब ने सुहास को ऊपर से नीचे तक देखा और बोले, ‘‘मेरा खयाल है कि तुम्हारे अंदर ये सभी गुण हैं.’’

इतना कह कर सहाय साहब ने उसे 2 दिन बाद दोबारा आने को कहा तो सुहास खुश हो गया. एक तो पुरवा से अब उस के ही घर पर खुलेआम भेंट हो सकेगी और दूसरे, उस की मां के हाथ से बनाए स्वादिष्ठ व्यंजन भी खाने को मिलेंगे.

मकरंद वर्मा के अथक प्रयास से एक अति सुंदर युवक श्वेता को देखने आ रहा था. रजनीबाला ने श्वेता से कहा कि तुम दोपहर में ही बाल वगैरह सेट करवा कर लौट आना.

‘‘अच्छी तरह सजसंवर कर आना मोटी, बड़ा स्मार्ट है वह…’’ सुहास ने श्वेता को चिढ़ा दिया.

‘‘देखो मम्मा, भैया के पास और कोई काम नहीं है तो बस, मुझे ही छेड़ते रहते हैं,’’ श्वेता ने चिढ़ कर कहा.

‘‘काम क्यों नहीं है. उस के लिए मिठाई जो लानी है,’’ सुहास हंस दिया पर मन ही मन वह बेहद खुश हो रहा था कि श्वेता का विवाह हो जाए तो वह अपने लिए भी मां से कुछ कहे.

सुहास मेहमानों के आने की तैयारी में लगा हुआ था तभी पुरवा का फोन आ गया. रजनी ने हंस कर उसे आवाज दी, ‘‘सुहास, तुम्हारा फोन.’’

सुहास लपकता हुआ आया तो रजनी वहां से हट गईं.

‘‘हैलो पुरु,’’ सुहास प्रसन्नता से बोला.

‘‘आज मिले नहीं,’’ पुरवा ने उलाहना सा दिया.

‘‘आज श्वेता को देखने के लिए कुछ लोग आने वाले हैं,’’ सुहास ने कहा.

‘‘मैं भी आ जाऊं क्या?’’ पुरवा ने भी शरारत से पूछा.

‘‘न बाबा, न,’’ सुहास अपनी ही रौ में बोला, ‘‘कहीं उन्होंने श्वेता की जगह तुम्हें पसंद कर लिया तब?’’

पुरवा खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘तब क्या? मुझे ही डोली में बैठा देना.’’

‘‘क्या कहा, फिर से तो कहना,’’ सुहास को अचानक ही क्रोध आ गया.

‘‘फिर से सुनने के लिए तो तुम्हें यहां आना पड़ेगा,’’ पुरवा ने हंसते हुए फोन रख दिया. सुहास मुंह बनाता हुआ पलटा तो श्वेता खड़ी मुसकरा रही थी.

‘‘लगता है होने वाली भाभी ने डांट लगाई है जो मुंह का नक्शा गोलगप्पे जैसा हो रहा है.’’

‘‘सुहास उसे डांट कर अपने कमरे में चला गया और कुरसी पर बैठ कर पुरवा के बारे में सोचने लगा तो उसे पहली बार एहसास हुआ कि वह पुरवा को सचमुच कितना प्यार करने लगा है. मजाक में भी उस से अलग होने की बात वह नहीं सोच सकता है.

काफी समय से सुहास ने अपने अड़ोसपड़ोस के चक्कर नहीं लगाए थे. शायद तभी से जब से पुरवा उस के जीवन में आ गई थी. पुरवा एक ऐसी बहार की तरह थी जिस की सुगंध को वह महसूस कर सकता है.

नकवी साहब के यहां ईद मुबारक की अच्छीखासी भीड़ थी. मकरंद वर्मा उन के बहुत नजदीकी दोस्त थे. सुहास भी अपने पापा के साथ ईद की मुबारकबाद देने आया था. वहीं सागर और बेला से भी भेंट हो गई. सागर ने वर्मा साहब का अभिवादन करने के बाद सुहास से कहा, ‘‘क्या बात है, सुहास, आजकल दिखाई नहीं देते हो.’’

नजदीक खड़े नकवी साहब झट से बोले, ‘‘भई, आप की ही खिदमत में लगे रहेंगे क्या सुहास मियां,’’ फिर सुहास के कान में फुसफुसाए, ‘‘क्यों? कौन थी वह नाजनीन जो परसों तुम्हारे साथ पार्क में टहल रही थी?’’

‘‘अरे, चाचू, आप भी…’’ सुहास ने लज्जित स्वर में कहा. तभी वर्मा साहब बोल पड़े, ‘‘नकवी साहब, आजकल अपना बेटा व्यापार शुरू करने की तैयारी में लगा है. इस की एक मित्र पुरवा है उस के पिता ही इसे संरक्षण दे रहे हैं.’’

‘‘भई वाह, बहुत अच्छी खबर है. कौन सा व्यापार आप शुरू कर रहे हैं, बेटे?’’ नकवी साहब ने पूछा.

‘‘अभी पूरी तरह तय नहीं हुआ है, चाचू. शायद मोटर पार्ट्स का काम शुरू करवाएंगे,’’ सुहास ने कहा.

इतनी देर में वहां सिवइयों से भरी कटोरी ले कर बेला आ गईं और सुहास से बोलीं, ‘‘एक दिन उसे ले कर मेरे घर आना.’’

‘‘अरे, किसे, भाभी?’’ सुहास सिटपिटा गया, ‘‘उस से थोड़ी मुलाकात है. उस का पर्स बचा कर लाया था, बस, यही कहानी है.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि कुछ और कहानी भी है,’’ बेला ने शरारत से उसे देखा और एकदम निकट आ कर बोलीं, ‘‘देवरजी, अब मान भी जाओ कि असली बात क्या है.’’

‘‘कुछ नहीं, कुछ भी नहीं, भाभी. मैं घर पर मिलूंगा आप से,’’ सुहास ने भीड़ पर नजर डाली और झटपट वहां से भाग कर बाहर आ गया और एक लंबी सांस भर कर घर की ओर चल दिया.

श्वेता ने आखिरकार गौरव को पसंद कर ही लिया. स्वस्थ, सुंदर गौरव इंजीनियर था. मकरंद वर्मा अपनी इकलौती बेटी का विवाह बहुत धूमधाम से करना चाहते थे.

गौरव के मातापिता अधिक संपन्न नहीं थे पर लड़का इंजीनियर था, इस बात से सभी संतुष्ट थे. सब से बड़ी बात यह थी कि अनेक लड़कों को नापसंद करने वाली श्वेता गौरव को देखते ही हतप्रभ रह गई थी. कदाचित उसे लगा था कि यही उस के सपनों का राजकुमार है.

अब पुरवा के घर जाने का सुहास के पास अच्छा बहाना था. वह बोला, ‘‘मम्मा, श्वेता का विवाह तय हो गया है तो हमें सहाय साहब को मिठाई तो खिलानी चाहिए. आखिर वे…’’

रजनी ने हंसते हुए उस की बात बीच में ही लपक ली और बोलीं, ‘‘आखिर वह तुम्हारे होने वाले ससुर हैं.’’

‘‘क्या, माम…’’ सुहास लजा सा गया.

‘‘देखो सुहास, उन्हें केवल मिठाई ही नहीं देनी है बल्कि सगाई के लिए निमंत्रण भी देना है,’’ रजनी ने सुहास को समझाते हुए कहा.

सुहास मिठाई का डब्बा ले कर पुरवा के घर पहुंचा तो पाया कि सहाय साहब बुखार में पड़े हैं. उस का उत्साह ठंडा पड़ने लगा. जानेअनजाने बहुत से चेहरे सहाय साहब को घेरे हुए थे.

सुहास को देखते ही सहाय साहब मुसकराए और बोले, ‘‘आओ पार्टनर, आओ. इन सब से तुम्हारा परिचय करवा दूं,’’ कह कर सहाय साहब वहां बैठे लोगों की ओर मुखातिब हुए और सुहास का परिचय करवाते हुए बोले, ‘‘यह सुहास है. मैं इसे मोटर पार्ट्स का व्यापार खुलवा रहा हूं, आप सब भी इन की सहायता करना.’’

‘‘जरूर, साहब,’’ वे सभी बोले, ‘‘दुकान कहां लगा रहे हैं आप?’’

उन के इस प्रश्न से सुहास घबरा उठा. सोचने लगा, क्या मुझे दुकान खोल कर बैठना पड़ेगा. यह कैसा व्यापार है. यह तो बहुत बंधन वाली बात हो जाएगी.

उस ने अपनी घबराहट पर अंकुश लगाने की चेष्टा की. सोचा, शायद इसी तरह से व्यापार शुरू किया जाता होगा. अब पुरवा को पाना है तो यह सब तो करना ही होगा. वह हंस कर बोला, ‘‘अब अंकल जहां राय देंगे वहीं पापा काम शुरू करवा देंगे.’’

सहाय साहब ने अपने सहयोगी खन्ना से कहा, ‘‘खन्ना, मेरा एक काम करवाना है.’’

‘‘कहिए, सहाय साहब.’’

‘‘मुझे तो डाक्टर मलेरिया वगैरह बता गए हैं. मेरी कल की फ्लाइट कैंसिल करवानी है.’’

सुहास ने उन की बात पूरी होते ही झट से कहा, ‘‘अंकल, यह काम तो मैं चुटकियों में करवा दूंगा. मेरी वहां काफी जानपहचान है.’’

‘‘भई वाह, आप तो बहुत ही काम के आदमी हैं,’’ सहाय साहब ने सब को छोड़ अपना ध्यान सुहास पर केंद्रित कर दिया.

‘‘बस, अंकल, आप का ही बच्चा हूं, सेवा का अवसर दीजिए.’’

सुहास ने पलक झपकते ही सहाय साहब को अपनेआप में उलझा लिया. वैसे भी उस का मन इन्हीं कामों में अधिक लगता था और सहाय साहब व पुरवा पर अपनी धाक जमाने का इस से अच्छा अवसर कहां मिलता.

‘‘ठीक है, खन्ना साहब, सुहास घर का ही बच्चा है, करवा देगा.’’

सहाय साहब की बातों ने सुहास के मन में खुशी के अपार फूल खिला दिए थे. अपनी आत्मीयता का और अधिक प्रदर्शन करने के विचार से सुहास ने मिठाई का डब्बा कस कर थामते हुए कहा, ‘‘अंकल, मैं जरा आंटी से मिल कर आता हूं. यह मेरी बहन की सगाई का निमंत्रण है,’’ उस ने डब्बे की ओर संकेत किया और दूसरे कमरे में लपक लिया.

– क्रमश:

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