मौजूदा पीढ़ी के बच्चों और 25-30 साल पहले के बच्चों की जिंदगी में जमीन और आसमान का फर्क है. आज जिन मध्य और उच्चमध्यवर्गीय मांबाप की उम्र 35 से 40 साल के बीच है, वे आज के बचपन को ले कर जरा सी कोई बात हुई नहीं कि इस दौर के बच्चों की सुखसुविधाओं पर अपने दौर को याद कर के ताने मारने लगते हैं. अगर सुखसुविधाओं के आंकड़ों और तथ्यों की नजर से देखें तो यह बहुत गलत भी नहीं लगता. आखिर आज 8 से 17 साल तक के उच्च और उच्चमध्यवर्गीय हिंदुस्तानी महानगरों के बच्चे सालाना 10 हजार रुपए से ले कर 50 हजार रुपए तक की पौकेट मनी पाते हैं. जबकि 90 के दशक में किए गए टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसैस व पाथ फाइंडर एजेंसी के सर्वे के मुताबिक, 80 और 90 के दशकों में भारत के आम मध्यवर्गीय शहरी बच्चे भी साल में औसतन 500 रुपए से ले कर 3 हजार रुपए तक की पौकेटमनी पाते थे.

आखिर आज 8 से 18 साल तक के बच्चों की पढ़ाईलिखाई में देश के सालाना 4 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो रहे हैं. यह अफ्रीका के 9 देशों के कुल सालाना बजट से भी ज्यादा बड़ी रकम है. आज शहरी बच्चों के पास तमाम तरह के गैजेट, कई तरह के फैशनेबल कपड़े, अनगिनत प्रकार की खानेपीने की चीजें, दोस्तों से लगातार संपर्क में बने रहने के लिए दर्जनों किस्म के फोन और इंटरनैट की सुविधाएं हैं.

सवाल है क्या फिर भी आज के बच्चे 25-30 साल पहले के बच्चों के मुकाबले ज्यादा सुखी, ज्यादा खुश हैं? जवाब है नहीं. आखिर क्यों? क्योंकि आज के बच्चे बेफिक्र नहीं हैं. आज के बच्चों के सिर और कंधों पर उम्मीदों व आकांक्षाओं का भारीभरकम बोझ लदा है. आज के बच्चों के पास खेलने के लिए खिलौने तो बहुत हैं लेकिन साथ में खेलने वाला कोई नहीं है. तमाम रिपोर्ट्स कहती हैं कि पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी बच्चे बहुत अकेले होते जा रहे हैं. इस की एक वजह तो मांबाप की व्यस्तता ही है. मगर उस से भी बड़ी वजह है संवेदनशील संपर्क तकनीक का हमारे जीवन में लगभग छा जाना. भूमंडलीकरण, संस्कृति और बदलता आवासीय परिदृश्य भी इस सब का एक कारण है.

दबाव पर दबाव

वास्तव में बचपन एक ऐसी उम्र होती है जब बगैर किसी तनाव के मस्ती से जिंदगी जीने का आनंद लिया जाता है. लेकिन अब यह बात या तो किताबों में सुरक्षित है या फिर पुराने लोगों की जबान में. हालांकि नन्हें होंठों पर फूलों सी खिलती हंसी, शरारतें, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना आदि बचपन को इन्हीं तमाम बातों से जोड़ कर देखा जाता है. लेकिन आज की तारीख में बच्चों से एक बेफिक्र बचपन छीन लिया गया है. आज उन के चेहरों पर या तो चिंता या तनाव या फिर सजग मुसकराहट चस्पां रहती है. बच्चों की निश्छलता, कोमलता और बेफिक्री को हम ने उन की लाइफस्टाइल में कुरबान कर दिया है. एक जमाने में अपनी छोटी सी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चों के कंधों पर आज या तो भारीभरकम बस्ता टंगा है या फिर उन में इसी कमसिन उम्र के दौरान दुनियाभर की खूबियों से लैस हो लेने का दबाव सवार है.

नजरों से गिराना

इस सब का एक बड़ा कारण यह है कि हम बच्चों को बहुतकुछ बनाने के फेर में, परफैक्ट तो कुछ बना ही नहीं पा रहे, उन से उन का अनमोल बचपन अलग से छीन ले रहे हैं. छोटी सी उम्र में ही हम उन्हें प्रतिस्पर्धाओं के क्रूर दंगल में उतार देते हैं. प्रतिस्पर्धा में असफल रहने पर हम उन्हें अपनी नजरों से ही नहीं, उन्हें खुद उन की नजरों से भी नीचे गिरा देते हैं. प्रतिस्पर्धा की कशमकश में उन का बचपन, उन की मासूमियत खो जाती है. आधुनिकता दिखाने के लिए और कमरे से बाहर न जाने की सुविधा को देखते हुए मांबाप उन्हें गिल्लीडंडे, लट्टू व बैटबौल की जगह वीडियोगेम्स व मोबाइल थमा देते हैं जो उन के दिमाग को कुंद और खूंखार बना देते हैं. बच्चों का स्वभाव उग्र हो जाता है. दिनभर अकसर वीडियो गेम से चिपके रहने वाले बच्चों में सामान्य बच्चों की अपेक्षा चिड़चिड़ापन व गुस्सैल प्रवृत्ति कहीं अधिक पाई जाती है.

छुट्टियां भी हैक्टिक

हमारे दिलोदिमाग में कुछ ऐसी बात घर कर गई है कि हम आजकल अपनी हर गतिविधि को एक फायदे की गतिविधि में तबदील कर देना चाहते हैं. उसे भुनाना चाहते हैं. यहां तक की छुट्टियों को भी हम ज्यादा से ज्यादा एंजौय करना चाहते हैं. इसलिए कहीं घूमने जाते हैं तो बजाय ठीक से घूमने के, कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा जगहें कवर कर लेना चाहते हैं. इसलिए छुट्टियों को भी हैक्टिक कर डालते हैं. खासकर ये बात छात्रों पर सब से ज्यादा लागू होती है. आप समर वैकेशन के बाद किसी छात्र से पूछिए कैसी रही छुट्यिं? तो ज्यादातर छात्र हिचकिचाते हुए कहेंगे, फन रहा, पर हैक्टिक रहा. आप सोचेंगे छुट्टियों का फन तो समझ में आता है मगर ये हैक्टिक…पर ऐसा है. जी हां, समर वैकेशन सचमुच अब छात्रों के लिए फन से ज्यादा हैक्टिक हो चला है. शुरू में कुछ दिन फन लगता है, लेकिन स्कूल द्वारा दिया गया ढेर सारा हौलीडे होमवर्क व प्रोजैक्ट्स छात्रों को छुट्टियों में भी चैन से नहीं जीने देते. इसलिए उन्हें छुट्टियां फन व मजेदार लगने के बजाय हैक्टिक लगती हैं. आप तो समझ गए होंगे, छुट्टियों में भी हम ने आपाधापी को आने वाली पीढ़ी के गले से बांध दिया है.

साथी भी लगता प्रतिस्पर्धी

कैरियर की क्रूर प्रतिस्पर्धा के बीच बच्चों को आजकल एक और प्रतिस्पर्धा ने जकड़ लिया है, वह है रिऐलिटी शो. जी हां, ये शो बच्चों के कोमल मन को प्रतिस्पर्धा की भावना को तोड़ देने की हद तक भर देते हैं. बच्चे इसे कुछ समझ पाएं, इस से पहले ही ये शो उन से उन का बचपन छीन लेते हैं. अब उन्हें अपने बचपन का हर साथी अपना प्रतिस्पर्धी नजर आने लगता है, जिस का बुरा से बुरा करने को वे हरदम तैयार रहते हैं. लेकिन नौकरीपेशा मातापिता ये सब जान कर भी नहीं जानना चाहते. क्योंकि यह जानना उन के सामने धर्मसंकट की स्थिति खड़ी करता है. वास्तव में आज के मांबाप को बच्चों के लिए घर के अंदर ही कई किस्म की सुविधाएं जुटा देना, उन्हें व्यस्त रखना या फिर किसी के भरोसे छोड़ना फायदे का सौदा लगता है.

दरअसल, उन के पास अपने बच्चों के लिए खाली वक्त नहीं होता है. अपने मकसद के लिए पढ़ेलिखे आधुनिक मांबाप बच्चों के बचपन को छीन कर उन्हें स्कूल, ट्यूशन, डांस क्लासेज, वीडियोगेम्स आदि में व्यस्त रखते हैं. जिस से बच्चा घर के अंदर दुबक कर अपना बचपन ही भूल जाता है. जबकि संपूर्ण विकास के लिए बच्चों को बाहर की हवा, बागबगीचे, दोस्तों के साथ मौजमस्ती यह सब चाहिए होता है. पढ़ाईलिखाई अपनी जगह है. आज के दौर में उस की अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है परंतु बच्चों का बचपन भी दोबारा लौट कर नहीं आता है.

बस्ते के बोझ से स्वास्थ्य पर असर

क्या आप को पता है नर्सरी और केजी के बच्चों के लिए कानूनन बस्ते का प्रावधान नहीं है? अन्य जिन बच्चों के स्कूलबैग का प्रावधान है, वह बैग भी उस के वजन के 10 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए? अगर अधिक पाया जाता है तो उस स्कूल के विरुद्ध जुर्माना लगाया जा सकता है. स्कूल बैग ऐक्ट बाकायदा एक अधिनियम है. लेकिन फिर भी पूरे हिंदुस्तान में सभी स्कूल इस नियम को तोड़ते हैं. लेकिन बच्चे तो बेचारे हैं. उन के मांबाप कभी भी इस मामले में स्कूल के विरुद्ध शिकायत नहीं करते. सवाल उठता है क्यों? क्योंकि मांबाप को लगता है उन का बच्चा बैग ले कर और वह भी भारी बैग ले कर जाएगा तो शायद ज्यादा शिक्षा ले आएगा.

साल 2006 में चिल्ड्रेन स्कूल बैग ऐक्ट पारित किया गया था. इस ऐक्ट में प्रावधान है कि बच्चे के स्कूल बैग का वजन उस के वजन का 10वां हिस्सा होना चाहिए. लेकिन स्कूलों में खुलेआम इस ऐक्ट की अवहेलना होती है. इस का खमियाजा बच्चों को वर्तमान में ही नहीं, भविष्य में भी भुगतना पड़ सकता है. बस्ता अधिनियम के मुताबिक तो स्कूल में बच्चों के लिए लौकर की सुविधा होनी चाहिए. जिस से बच्चों को रोज बैग न ले कर जाना पड़े. शिक्षा के अधिकार के तहत भी इस ऐक्ट को लागू किया गया है. शिक्षा के अधिकार के तहत धारा 29 में यह निर्देश है कि बच्चे के ऊपर कम भार पड़े, इस के लिए बैग का वजन कम होना चाहिए.

बच्चों को बैग का बोझ न उठाना पड़े, इस के लिए स्कूल के गेट तक अभिभावक खुद ही बोझ उठाते हैं. लेकिन ये बच्चे जितनी ही देर बैग को अपने कंधों पर ढोते हैं, उतना भी नुकसानदायक है. इस से मसल्स पेन, बोन चटकने आदि का खतरा रहता है. शरीर में हड्डी का वजन सब से कम होता है. पूरे शरीर में कोई 3 किलो हड्डियां होती हैं. ऐसे में लो बौडी वेट वाले के ऊपर अतिरिक्त वजन डाला जाए तो इस का असर पूरे शरीर पर दिखता है. हर शरीर का अपना गुरुत्व केंद्र (सैंटर औफ ग्रैविटी) फिक्स होता है. अधिक वजन होने पर गै्रविटी पीछे की ओर शिफ्ट होने लगती है जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है क्योंकि इस से मांसपेशी और हड्डियों पर भार अधिक पड़ता है. बच्चे की पीठ और कमर में प्रौब्लम रहती है. मसल्स में दर्द के साथसाथ बोन के चटकने का खतरा भी रहता है. रीढ़ की हड्डी नीचे की ओर झुक जाती है. 10 से 12 साल के बाद गरदन और नस पर भी असर पड़ता है.

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