मोबाइल हमारी जरूरत है या एक लत जो महामारी बनकर पिछले एक दशक से हमारे जीवन के हर पहलू में जानलेवा स्पेक्ट्रम की घुन लगा रहे हैं? यह सवाल ऐसा है जो पूरी दुनिया में पूछा जा रहा है. समस्या सब जानते हैं लेकिन समाधान किसी के पास नहीं है. हाल में फिल्म 2.0 में भी मोबाइल्स को मानवों के लिए महामारी सरीखा दिखाया गया.
बहरहाल, जिस तरह पानी और ऊंचाई आदि से डरने के फोबिया होते हैं वैसे ही मोबाइल से भी डरने का फोबिया शब्द है नोमोफोबिया. Nomophobia यानी वह स्थिति जब आप मोबाइल के बगैर रहने उसे इस्तेमाल नहीं कर पाने का सोचकर खौफजदा हो जाएं. फर्क बस इतना है कि और फोबिया से बचने के लिए हम उनसे दूर रह सकते हैं लेकिन मोबाइल से दूर रहना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया है.
- Nomophobia – शायद इसीलिये कैंब्रिज डिक्शनरी ने भी नोमोफोबिया को इस साल अपने नए वोटिंग सर्वे में ‘वर्ड औफ द ईयर’ घोषित किया है. इस शब्द का चयन लोगों द्वारा दिए गए वोट के आधार पर किया गया है.
हर साल कैंब्रिज की औनलाइन डिक्शनरी में नए शब्द जोड़े जाते हैं. दरअसल मोबाइल हमारे देश में महामारी की शक्ल लेता जा रहा है. मोबाइल चलाते गर्दन झुकी रहती है और अंगूठा हमेशा स्क्रीन पर रहता है. जिस से रीढ़ की हड्डी से जुड़ी बहुत सी समस्याएं सामने आ रही हैं. आंखें भी खराब हो रही हैं. मोबाइल पर चलते फिरते बात करते लोग दुर्घटना का शिकार हो रहे हैं सो अलग.
2 से 17 साल के 1000 लड़कों पर हुए सर्वे में ज्यादातर की याददाश्त कमजोर मिली जबकि 100 में 25 बच्चों को मोबाइल की लत पाई गयी. आर्ट कंपनीकल ने एक रिसर्च के आधार पर रिपोर्ट पेश की और बताया कि भारतीय औसतन एक दिन में तीन घंटे ऐप्स पर खर्च करते हैं. इनके मोबाइल में 78 ऐप्स होती हैं, जिनमें से 48 का प्रयोग वह महीने में करते हैं. इसके अलावा 2015-17 के बीच भारतीयों ने तीन गुना ज्यादा ऐप्स डाउनलोड किए. वैसे Nomophobia को नो मोबाइल और phobia के अक्षरों से मिलाकर बनाया गया है.
Nomophobia की तरह और भी 3 शब्द ऐसे हैं जो कैंब्रिज डिक्शनरी ने नोमोफोबिया के साथ रेस में उतारे थे. ये शब्द थे ecocide, no-platforming और gender gap. खैर जीत भले ही नोमोफोबिया की हुई हो, लेकिन बाकी तीनों को किसी महामारी से कम नहीं आंक सकते.
- Ecocide- वर्ड औफ द ईयर की रेस में दूसरा शब्द ecocide भी था. यह भी किसी वैश्विक महामारी से कम नहीं है. इकोसाइड भी नोमोफोबिया की तर्ज पर दो शब्दों से मिलकर बना है. इकोसिस्टम और सूइसाइड. इसका अर्थ हुआ कि जब किसी भी क्षेत्र के प्राकृतिक वातावरण को बर्बाद करने या खत्म करने का प्रयास किया जाये, तो यह हालात ecocide कहलाते हैं. यह काम तो इफरात से पूरी दुनिया में हो रहा है. प्राकृतिक क्षेत्र नाम मात्र के रह गए हैं. हर जगह कंक्रीट के जंगल है जहां लोभी और स्वार्थी सरकार, इंडस्ट्री वाले व करप्ट नौकरशाही मिलकर दुनिया भर के पर्यावरण को ग्लोबल वार्मिंग की स्टेज तक पहुंचा चुकी हैं. हालंकि इसमें हमारी भागीदारी भी कम नहीं है.
- No-platforming- नो प्लैटफौर्मिंग यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की राह में रोड़े अटकाना. डिक्शनरी के मुताबिक इस शब्द को कुछ इस तरह परिभाषित किया गया है: किसी व्यक्ति को अपने विचार को सार्वजनिक करने के लिए मंच मुहैया न कराना ही नो प्लैटफौर्मिंग कहलाती है. देश भर में तार्किक, पूजापाठ के पाखंड और अंधविश्वास के खिलाफ बोलने वाले बुद्धिजीवियों की हत्या होना, उन्हें मीडिया या पब्लिक प्लेटफोर्म में बोलने से रोकना, मौब लिंचिंग आदि परिस्थितियों को नो प्लैटफौर्मिंग के दायरे में देखा जा सकता है. इस लिहाज से समाज के लिए किसी महामारी से कम नहीं है यह शब्द.
- Gender gap- हाल में उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा ने कहा है कि जो कानून केवल लिंग के आधार व्यक्तियों के बीच भेदभाव करता है और महिलाओं को मुकदमा दायर करने के अधिकार से वंचित करता है, वह लैंगिक रुप से तटस्थ नहीं है और खारिज कर दिये जाने लायक है. तो समझ लीजिये वर्ड औफ द ईयर की रेस में चौथा शब्द उसी लैंगिक भेदभाव की बात करता है जिसे डिक्शनरी में Gender gap के तौर पर मेंशन किया गया है. इस का मतलब होता हैं लिंग के आधार पर भेदभाव यानी स्त्री के साथ अलग व्यवहार और पुरुष के साथ अलग व्यवहार.
यह भेदभाव तो हमारे जीन में है, धर्म में है और नैतिक शिक्षा की किताबों में भी. आज भी देश दुनिया की बड़ी कंपनियों या कहें प्रभुत्व वाले स्थानों पर महिलाओं की गिनती न के बराबर है. ‘वूमैन औन टौप’ सिर्फ कहने भर का जुमला है लेकिन हकीकत तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो टौप की 500 कंपनियां हैं, उनमें सिर्फ 10 प्रतिशत महिलाएं ही वरिष्ठ प्रबंधक हैं. भारत में वरिष्ठ प्रबंधन में महिलाएं सिर्फ 3 प्रतिशत हैं.
शर्म मगर हमको आती नहीं
तो इस लिहाज से ये चारों शब्द भले ही विदेशों में ‘वर्ड औफ द ईयर’ की रेस में थे और जीत नोमोफोबिया की हुई, लेकिन अगर हमारे देश में इन चारों शब्दों के बीच कौम्पीटिशन हो जाए तो चारों शब्द ‘वर्ड औफ द ईयर’ नहीं बल्कि ‘महामारी औफ द डिकेड’ साबित होंगे. और जीतेंगे भी. यह हमारे समाज का कड़वा और नंगा सच है जिस पर हमने शर्मिंदा होना कब का छोड़ दिया है.