बात कुछकुछ ‘तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर, पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर…’ जैसे गाने की है, जो शोमैन राजकपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में स्कूली बच्चों और उन की टीचर बनी सिमी ग्रेवाल पर फिल्माया गया था. मासूम बच्चे हैरानी से तीतरों की गिनती करते रहे थे लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए थे. यही हाल देश के आम लोगों का है जो यह समझने में खुद को नाकाम पा रहे हैं कि आखिर सीबीआई में जो कुछ हुआ वह था क्या.

मोटेतौर पर लोगों को इतना ही समझ आया कि मामला घूस का है जिस में इस सर्वोच्च जांच एजेंसी के 2 आला अफसरों ने एकसाथ या अलगअलग करीब 5 करोड़ रुपए की घूस खाई और फिर दबदबे, रुतबे और रसूख की लड़ाई लड़ते एक दूसरे पर इतने और ऐसे इलजाम लगाए कि सीबीआई की साख एक झटके में खाक हो गई. किसी एक का नाम लेना बाकी के साथ ज्यादती होगी, इसलिए देश के सभी पुलिस थानों की बात एकसाथ करना बेहतर होगा, जहां दैनिक से ले कर साप्ताहिक और मासिक रूप से घूस का बंटवारा बड़ी ईमानदारी से होता है.

घूस के बंटवारे को ले कर पुलिस महकमे में कभी कोई विवाद नहीं होता, क्योंकि एक इसी मामले में पुलिस वाले ईमानदारी बरतते हैं और इकट्ठा किया गया पैसा पद के हिसाब से मिलबांट कर खा लेते हैं. इसी वजह के चलते पुलिस बदनाम है और आम लोगों में उस की इमेज कैसी है, यह बताने की जरूरत नहीं, लेकिन यही हाल सीबीआई का हो रहा है, तो चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि सवाल देश की आंतरिक व बाहरी सुरक्षा के साथसाथ महत्त्वपूर्ण घोटालोें और इरादतन या गैरइरादतन किए गए भ्रष्टाचारों से जुड़ा है.

सीबीआई कैसे मुन्नी की तरह बदनाम हुई, इसे समझने के लिए सिलसिलेवार उस घटनाक्रम को संक्षिप्त में जानना जरूरी है जिस के चलते एक हाई प्रोफाइल ड्रामा हुआ, जिस में सरकार की भूमिका भी संदिग्ध पाई गई और हर कोई शक के दायरे में है. लगता नहीं कि यह पहेली कभी सुलझ पाएगी कि सीबीआई ने यह बदनामी किस के लिए, किस के कहने पर और क्यों मोल ली. बात बिलाशक उस देहाती कहावत जैसी सटीक है कि ‘दादखाज हुई है, अब वैद्य के सामने यह जांघ उघाड़ें तो लाज और वह जांघ उघाड़ें तो भी लाज.’ अब जब दोनों जांघें उघड़ ही गई हैं तो हैरत की बात है कि लाज किसी को नहीं आ रही. शायद इसे ही कहते हैं कि बेशर्मी की हद हो गई.

यों खाक हुई साख घूसकांड के नाटक के सार्वजनिक स्टेज पर आने की शुरुआत 21 अक्तूबर को हुई थी जब एक हैरतअंगेज घटनाक्रम में सीबीआई ने अपने ही विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ घूसखोरी का मामला दर्ज किया था. एफआईआर विवरण पर सीबीआई ने चुप्पी साधे रखी थी लेकिन इतना तो सार्वजनिक हो ही गया था कि राकेश अस्थाना ने एक मांस व्यापारी मोइन कुरैशी से करीब 3 करोड़ रुपए की घूस, कथित तौर पर ही सही, ली है. इसी दिन राकेश अस्थाना और मोइन कुरैशी की जन्मकुंडलियां मीडिया ने खंगालीं तो इन के ग्रहनक्षत्रों की चाल भी लोगों को समझ आई.

राकेश अस्थाना पर मनी लौंड्रिंग का भी मामला दर्ज किया गया. एक तीसरे किरदार मनोज प्रसाद का नाम भी सामने आया जो बिचौलिए की भूमिका में था. हर किसी को शक था जो बाद में यकीन में बदला कि यह कार्यवाही सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा की पहल पर हुई है और दोनों में लंबे समय से मनमुटाव चल रहा था. गौरतलब है कि सीबीआई की प्रशासनिक संरचना में राकेश अस्थाना की हैसियत नंबर दो की और आलोक वर्मा की नंबर एक यानी उन के बौस की थी. कमोबेश शांति के इस खेत में कलह के बीज तो उसी वक्त रोप दिए गए थे जब आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना की बहैसियत विशेष निदेशक नियुक्ति का विरोध किया था.

उन का कहना था कि एक ऐसा अधिकारी जिस पर पहले से ही गंभीर आरोप लगे हैं, उसे इस अहम पद पर कैसे बैठाया जा सकता है. आलोक वर्मा को तो एतराज इस बात पर भी था कि उन के आधिकारिक टूर पर होने के दौरान राकेश अस्थाना सीबीआई के प्रतिनिधि के तौर पर मीटिंगों में भी हिस्सा लेते हैं. अभी लोग हैरानी से इस मामले का सिरपैर समझने की कोशिश ही कर रहे थे कि 22 अक्तूबर को सीबीआई ने अपने ही एक और अधिकारी एसआईटी डीएसपी देवेंद्र कुमार को गिरफ्तार करते हुए उन के घर और दफ्तर पर छापामार कार्यवाही कर ढेर सारे कागजात व केस डायरी जब्त की. इस दिन सीबीआई प्रवक्ता अभिषेक दयाल ने बताया कि राकेश अस्थाना और देवेंद्र कुमार को घूस देने में भूमिका निभाने वाले मनोज प्रसाद और उस के भाई सोमेश पर 15 अक्तूबर को मामला दर्ज किया गया था.

इस मामले में खुफिया ब्यूरो यानी आईबी विशेष निदेशक सामंत कुमार गोयल का भी नाम दर्ज किया गया था, लेकिन उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया. ये मुकदमे हैदराबाद के एक मीट कारोबारी सतीश साना नाम के शख्स की शिकायत की बिना पर दर्ज किए गए थे जो मोइन कुरैशी से संबंधित मामले में सीबीआई जांच का सामना कर रहा था. अंदाजा यह लगाया गया कि सतीश साना वह मध्यस्थ या दलाल था जिस ने मोइन कुरैशी को क्लीन चिट दिलाने के लिए घूस दी थी और दुबई निवासी मनोज और सोमेश ने घूस की रकम जुटाने में अहम रोल निभाया था. 22 अक्तूबर को राकेश अस्थाना ने खुद को बेगुनाह बताते हुए अदालत जाने की बात कही. उन की दलील बड़ी अजीब थी कि दर्ज मामले में उन पर कहीं भी सीधे घूस लेने की बात नहीं की गई है. अब नाटक में भ्रष्टाचार के अलावा थ्रिल और सस्पैंस भी दिखने लगा था, क्योंकि राकेश अस्थाना ने इस दिन यह राज भी उगला कि इस की शिकायत खुद उन्होंने मामला दर्ज होने के पहले 24 अगस्त को कैबिनेट सैक्रेटरी से की थी यानी घूस उन्होंने ही नहीं, बल्कि आलोक वर्मा ने (भी) खाई थी, वह भी कथित तौर पर 3 करोड़ रुपए की.

असल घूसखोर कोतवाल कौन है, यह गुत्थी और उलझती जा रही थी, क्योंकि हर कोई जानने लगा था कि राकेश अस्थाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के काफी नजदीकी व चहेते माने जाते हैं. उलट इस के, आलोक वर्मा पर कांग्रेस का पिट्ठू होने का आरोप लगने लगा था. इस दिन सोशल मीडिया पर एक पोस्ट खूब वायरल हुई जिस का सार यह था कि अस्थाना, वर्मा को नहीं चाहता और वर्मा अस्थाना को, जबकि मोदी अस्थाना को चाहते हैं… यह लंबीचौड़ी और मजेदार पोस्ट तीतरों की गिनती सरीखी ही थी. मामले में तब और दम आया जब इसी दिन प्रधानमंत्री ने राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा दोनों को अपने दरबार में तलब किया.

अब यह बात खुल कर सामने आ गई थी कि मामला घूस किस ने, कितनी खाई के अलावा 2 अफसरों की वर्चस्व की लड़ाई का भी है. यह वाकई जासूसी उपन्यासों के सस्पैंस सरीखी बात थी. बिचौलियों का रोल भी खुल कर सामने आ गया था जिन्होंने सीबीआई में पसरी घूसखोरी को फिल्मी अंदाज में बेनकाब कर दिया था. सीबीआई ने, दरअसल, राकेश अस्थाना को गिरफ्तार करने से पहले उन के फोनकौल्स रिकौर्ड कर लिए थे जिन में यह पाया गया था कि मनोज प्रसाद की गिरफ्तारी के बाद उस के भाई ने उन्हें न केवल फोन किए थे, बल्कि व्हाट्सऐप संदेशों के जरिए भी उन से बातचीत की थी.

इसी दिन मोइन कुरैशी के खिलाफ राकेश अस्थाना के नेतृत्व में जो एसआईटी जांच कर रही थी उस पर भी घूस लेने का आरोप लगा था. किस ने 2 करोड़ रुपए खाए और किस ने 3 करोड़ रुपए डकारे थे, इस से परे यह जरूर उजागर हो गया था कि शिकायत सतीश साना ने की थी कि मनोज ने मोइन कुरैशी का मामला खत्म करवाने के लिए 5 करोड़ रुपए मांगे थे, जो दिसंबर 2017 से ले कर अक्तूबर 2018 के बीच 5 किस्तों में दिए गए थे. मनोज ने इकबालिया बयान में यह बात कही थी कि राकेश अस्थाना ने उस से एक मोटी रकम ली थी. दुबई में रहने वाला इन्वैस्टर मनोज घूसवसूली की किस्त लेने जब 16 अक्तूबर को भारत आया, तभी उसे गिरफ्तार कर लिया गया था.

इस गोरखधंधे की ज्योमैट्री के हिसाब से मनोज, राकेश अस्थाना के लिए पैसे ले रहा था और सतीश मोइन की तरफ से दे रहा था. बहरहाल, आलोक वर्मा और नरेंद्र मोदी की एक घंटे की मुलाकात बेनतीजा रही और प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों की कोशिशें भी किसी काम नहीं आईं तो सरकार दिक्कत में पड़ गई जो राकेश अस्थाना के साथ खुलेआम नहीं दिखना चाहती थी और आलोक वर्मा को सबक सिखाना चाहती थी. अब तक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी नरेंद्र मोदी पर आरोप जड़ डाला था कि वे सीबीआई को बदला लेने का हथियार बना रहे हैं. राकेश अस्थाना उन के चहेते हैं.

अब तक लोग सीबीआई की साख और विश्वसनीयता को ले कर निराश हो चले थे कि यहां भी घूसखोरी और ऊंचनीच की लड़ाई होती है, तो क्या खाक सीबीआई पर भरोसा किया जाए कि सीबीआई जांचें निष्पक्ष होती होंगी जैसा कि कहा व समझा जाता है. लोग अब नरेंद्र मोदी और सरकार के कदम का इंतजार करने लगे थे कि वह कैसा होगा. इस शर्मनाक ड्रामे के तीसरे दिन तभी हाईकोर्ट ने राकेश अस्थाना की गिरफ्तारी पर रोक लगाते उन के खिलाफ जुटाए सुबूतों को सुरक्षित रखने का आदेश दिया. लेकिन उन पर खार खाए बैठे आलोक वर्मा ने कोई रहम नहीं खाया.

घोषित तौर पर भ्रष्टाचार और घूसखोरी के इलजाम में फंस गए राकेश अस्थाना से उन की सारी जिम्मेदारियां यानी ताकतें छीन ली गईं. एसआईटी मुखिया के रूप में वे जिन अहम मामलों की जांच कर रहे थे उन में मोइन कुरैशी के अलावा विजय माल्या और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मामले भी शामिल थे. सरकार की मनमानी अभी तक बाजी एकतरफा थी, सबकुछ आलोक वर्मा के मुताबिक हो रहा था. जानकार हैरान थे कि क्या प्रधानमंत्री खामोशी से अपने चहेते अफसर की दुर्दशा देखते रहेंगे और क्या उन्होंने आलोक वर्मा के सामने घुटने टेक दिए हैं.

एकाएक ही इसी शाम सरकार ऐक्शन में आ गई और लोगों को बता भी दिया कि जिस अघोषित आपातकाल की बात अकसर होती है, वह क्या है. रात कोई साढ़े 11 बजे डिपार्टमैंट औफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग यानी डीओपीटी सचिव चंद्रमौली प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंचे. इस के डेढ़ घंटे बाद यानी रात एक बजे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल भी वहां पहुंचे. असली आपातकाल की रिहर्सल भी हो गई. खिचड़ी पकी और रात 3 बजे राकेश अस्थाना के साथसाथ आलोक वर्मा को भी जबरिया छुट्टी पर भेज दिया गया. इन दोनों को इसी वक्त फैसले की प्रति पहुंचाई गई. ताबड़तोड़ घटनाक्रम में सीबीआई के संयुक्त निदेशक एम नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम निदेशक बना दिया गया, क्या किया गया और क्यों किया गया, इस की औपचारिक जानकारी सीबीआई के वरिष्ठ अधिकारियों को सुबह 6 बजे सूर्योदय के बाद दी गई कि आलोक वर्मा का भी सूर्यास्त कर दिया गया है.

यह सरकारी मनमानी और तानाशाही की नायाब मिसाल थी जिस के तहत आधी रात को सरकार को यह फैसला लेना पड़ा. कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ रहा था, न ही किसी दुश्मन देश ने हमला कर दिया था और न ही देश की आंतरिक सुरक्षा को कहीं से कोई खतरा था, इस के बाद भी इस नाटक पर परदा गिराया गया तो समझने वाले समझ गए कि क्यों नरेंद्र मोदी को नरेंद्र मोदी कहा जाता है. राकेश अस्थाना का गुनाह तो एक तरह से उजागर हो चुका था, लेकिन आलोक वर्मा ने ऐसा क्या कर दिया था जिस की सजा उन्हें यों दी गई. इस का पूरा खुलासा सालों बाद ही हो पाएगा जैसा आपातकाल के बाद हुआ था कि कब, किस ने, क्या और क्यों किया था. इस मामले में जो किया गया था उसे आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट जाते यों व्यक्त किया- ‘‘केंद्र सरकार ने मेरे अधिकार रातोंरात छीन लिए.

यह कदम सीबीआई की स्वतंत्रता में दखलंदाजी है. शायद उच्च पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ जांच सरकार के मुताबिक नहीं चली. केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी, जिस ने यह सब सरकार के कहने पर किया, का यह कदम अवैध है. और, यह पूरी तरह अवैध हो कर प्रमुख जांच एजेंसी की स्वायत्तता में हस्तक्षेप है. सीबीआई डिपार्टमैंट औफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग के अधिकार क्षेत्र में है. इसे स्वतंत्र होना चाहिए वरना जांच एजेंसी का स्वतंत्र संचालन प्रभावित होता है.’’ आलोक वर्मा ने आगे कहा, ‘‘कुछ समय पहले तक सीबीआई के भीतर संयुक्त निदेशक और निदेशक स्तर तक के निगरानी और जांच अधिकारी किसी निश्चित कार्ययोजना को ले कर एक ही नजरिया रखते थे. लेकिन विशेष निदेशक का मत अलग होता था.’’ उन्होंने एम नागेश्वर राव को सीबीआई का प्रभार देने के फैसले को भी चुनौती दी.

आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि वह सरकार के इस फैसले पर रोक लगाए जिस से इस तरह का बाहरी हस्तक्षेप दोबारा न हो. अपनी दायर याचिका में सरकार पर हमलावर होते उन्होंने कहा कि मौजूदा सरकार के कई मामलों की जानकारियां बेहद संवदेनशील हैं जिन का खुलासा नहीं किया जा सकता, लेकिन वे अदालत को ये चीजें सौंप सकते हैं. अलगअलग मामलों में सरकार की तरफ से प्रभाव (मंशा शायद दबाव) रहा, वह सभी मौकों पर स्पष्ट या लिखित में नहीं था. राफेल पर था इशारा आलोक वर्मा ने इशारोंइशारों में जो कहा उसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सड़कों पर ला दिया. उन्होंने ट्वीट कर कहा कि सीबीआई चीफ आलोक वर्मा राफेल घोटाले से जुड़े दस्तावेज इकट्ठा कर रहे थे, इसलिए उन्हें जबरदस्ती छुट्टी पर भेजा गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मैसेज एकदम साफ है. राफेल के इर्दगिर्द जो भी आएगा उसे हटा या मिटा दिया जाएगा. देश और संविधान खतरे में है.

आधी रात की कार्यवाही पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी अपनी सभाओं में खूब चुटकियां लेते राफेल को बड़ा घोटाला बताया. इस बाबत कांग्रेस ने देशभर में सीबीआई दफ्तरों के सामने प्रदर्शन भी किए. इधर आलोक वर्मा की जबरिया छुट्टी के बाद पहली दफा सरकार की तरफ से कोई सामने आया. किडनी रोग से पीडि़त वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी उम्मीद के मुताबिक यह सनातनी बयान दे डाला कि सरकार का इस में कोई रोल नहीं है. बकौल जेटली, सरकार ने सिर्फ केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिशों को माना है और निष्पक्ष जांच के लिए दोनों अफसरों को छुट्टी पर भेजा है. किसी एक अफसर (जाहिर है राकेश अस्थाना) को बचाने के विपक्ष के आरोप बेतुके हैं. तो फिर तुक की बात क्या थी जो आधी रात को रहस्यमयी ढंग से सनसनी मचाते की गई.

इन दोनों अधिकारियों के दफ्तर सील कर दिए गए और नागेश्वर राव ने प्रभार लेते ही अपने ही विभाग के दफ्तर पर दोबारा छापेमार कार्यवाही कर डाली और इस मामले से जुड़े लोगों को हटा दिया. सरकार घूसखोर कोतवाल और घूसखोरी को ले कर एकाएक ही क्यों गंभीर हो गई जबकि सबकुछ नियंत्रण में था, सिवा राहुल गांधी के इस आरोप के कि आलोक वर्मा राफेल घोटाले से संबंधित दस्तावेज जुटा रहे थे. अगर ऐसा नहीं था या नहीं है तो सरकार को मामले और इस अप्रत्याशित कार्यवाही की वजह स्पष्ट करनी चाहिए, जिस से धुंध छंट सके वरना सीबीआई के दामन पर दाग तो ल ही चुका है और वह आम लोगों का भरोसा भी खो चुकी है. यह बात कतई अहम नहीं है कि सीबीआई ने पहले कितने मामलों में सरकार के इशारों पर काम किया था.

अहम सवाल यह है कि आलोक वर्मा की जबरिया छुट्टी की वजह क्या सिर्फ उन पर लगा घूसखोरी का कथित आरोपभर था या कोई और घपलाघोटाला संपन्न हो चुका है. जानेअनजाने या मजबूरी, कुछ भी कह लें, में प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी के राफेल संबंधी आरोपों पर लोगों को सोचने का मौका जरूर दे दिया है. पटाक्षेप 26 अक्तूबर को आलोक वर्मा के याचिका दायर करने से एक दिन पहले के उन के नई दिल्ली के जनपथ स्थित आवास के इर्दगिर्द संदिग्ध रूप से मंडरा रहे 4 लोगों को सुरक्षाकर्मियों ने पकड़ा तो वे इंटलीजैंस ब्यूरो के अफसर निकले. इस सवाल का जवाब भी किसी ने नहीं दिया कि क्या उन के घर की जासूसी की जा रही है. इसी दिन सीबीआई की तरफ से शराफतभरी एक सफाई यह आई कि आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना दोनों अपने पदों पर पहले की तरह काम करते रहेंगे. जब तक केंद्रीय सतर्कता आयोग इस मामले में जांच कर रहा है तब तक एम नागेश्वर राव सीबीआई डायरैक्टर का काम करेंगे. सीबीआई प्रवक्ता ने इस दिन लंबीचौड़ी बातें अपनी विश्वसनीयता को ले कर कहीं जिन के अब कोई माने नहीं रह गए थे. माने सिर्फ इस बात के हैं कि एम नागेश्वर राव ने प्रभार लेते ही सीबीआई के दफ्तर में क्याक्या किया जिन्हें राकेश अस्थाना की तरह ही उपकृत किया गया था.

फिर 26 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में दूध को दूध और पानी को पानी ही रहने दिया. सब से बड़ी अदालत ने आलोक वर्मा की याचिका पर जो आदेश दिए उन का सार इस तरह से है : १. आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना की जांच मुख्य सतर्कता आयुक्त 2 हफ्तों में पूरी करें. २. यह जांच सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज ए के पटनायक की निगरानी में होगी. ३. अपनी याचिका में आलोक वर्मा ने सीबीआई को सरकार की दखलंदाजी से मुक्त किए जाने की गुहार लगाई थी, लेकिन उन्हें इस से राहत नहीं मिली है और अगली सुनवाई तक वे दफ्तर नहीं जा सकेंगे. ४. कोर्ट ने सीबीआई के अंतरिम मुखिया एम नागेश्वर राव को ले कर कहा कि वे जांच पूरी होने तक कोई भी नीतिगत फैसला नहीं ले पाएंगे. वे केवल रूटीनी काम करेंगे. ५. एम नागेश्वर राव 23 अक्तूबर से ले कर अब तक किए गए तबादलों सहित तमाम फैसलों की जानकारी एक बंद लिफाफे में कोर्ट के सामने पेश करें. ६. इस के अलावा सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता आयोग, केंद्र सरकार और राकेश अस्थाना को भी नोटिस जारी कर उन से जवाब मांगे. फैसला न तुम जीते न हम हारे जैसा है, जिस में सरकार के अधिकारों और गैरजिम्मेदाराना मनमानी कार्यवाही पर कुछ नहीं कहा गया. आलोक वर्मा को एक तरह से उसी सजा का शिकार होना पड़ा जिस का भीमा कोरेगांव के 5 वामपंथी विचारकों को शुरुआत में होना पड़ा था. बस, हाउस अरैस्ट की बात यहां नहीं की गई.

अब उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्रीय सतर्कता आयोग की जांच या फैसले का नतीजा मामले का कुछ सच सामने ला पाएगा. फसाद में राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा के बीच अहम और वर्चस्व की लड़ाई थी या घूस या फिर सचमुच राफेल घोटाला था. यह उजागर होना बहुत जरूरी है जिस से लोगों को सच समझ में आए. इंडियन ऐक्सप्रैस की एक खबर में दावा किया गया है कि सीबीआई मुखिया आलोक वर्मा जिन मामलों को देख रहे थे उन में सब से संवदेनशील मामला राफेल सौदे से जुड़ा था. 4 अक्तूबर को आलोक वर्मा को मशहूर वकील प्रशांत भूषण सहित 2 पूर्व केंद्रीय मंत्रियों अरुण शौरी व यशवंत सिन्हा की तरफ से 132 पृष्ठों की एक शिकायत मिली थी. इस शिकायत में कहा गया था कि फ्रांस के साथ 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने की सरकार की डील में घपला हुआ है.

इन तीनों का आरोप यह भी था कि हरेक लड़ाकू विमान पर अनिल अंबानी की कंपनी को 35 फीसदी कमीशन मिलने वाला है. दावा यह भी है कि आलोक वर्मा को उस वक्त हटाया गया जब वे इस शिकायत की सत्यता की प्रक्रिया देख रहे थे. मामला बिगड़ने के बाद इन तीनों ने इस बाबत सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की. अगर वाकई ऐसा है तो साफ है कि राकेश अस्थाना को तो उन की सहमति से मोहरा बना कर यह सारा ड्रामा रचा गया जिस से आलोक वर्मा को हटाने का बहाना गढ़ा जा सके. मोइन कुरैशी और दूसरे बिचौलिए इस चाल को समझ नहीं पाए तो यह उन की बेवकूफी थी. सीबीआई पर अब कोई क्यों भरोसा करेगा, इस सवाल का जवाब भी शायद ही कोई दे कि उस में और सिविल पुलिस में केवल ड्रैस का अंतर ही रह गया है और अपराधियों की हैसियत का भी.

सीबीआई की साख को वापस दिलाने के लिए अब हर कोई सुझाव दे रहा है, लेकिन ज्यादा जरूरत इस बात की है कि इस महाभारत का चक्रव्यूह रचने वालों की पहचान हो और चौसर पर किस ने, किस को दांव पर लगाया, इस का भी खुलासा हो. द्य ये हैं सीबीआई विवाद के मुख्य किरदार आलोक वर्मा मूलतया बिहार के रहने वाले आलोक वर्मा महज 22 वर्ष की उम्र में आईपीएस अफसर बन गए. आलोक वर्मा 1979 के बैच के आईपीएस अधिकारी हैं. दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रह चुके आलोक वर्मा मिजोरम के डीजी भी रहे हैं और जेल जनरल जैसे अहम पद पर भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी हैं. दिल्ली पुलिस कमिश्नर रहते उन्होंने पदोन्नोतियां, नीतियों में कई अहम बदलाव किए थे. अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें साल 2003 में राष्ट्रपति पुलिस मैडल मिला था और इस के पहले 1997 में पुलिस मैडल भी दिया गया था. सीबीआई का डायरैक्टर उन्हें फरवरी 2017 में कैबिनेट कमेटी ने बनाया था. इस कमेटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा सांसद में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर शामिल थे. राकेश अस्थाना ये साल 1984 के बैच के गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. झारखंड की राजधानी रांची के रहने वाले राकेश अस्थाना साधारण शिक्षक परिवार से हैं.

दिल्ली के जेएनयू में पढ़े राकेश अस्थाना पहली दफा उस वक्त चर्चा में आए थे जब उन्होंने चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव को गिरफ्तार किया था. इस से पहले वे बड़ौदा और सूरत के पुलिस कमिश्नर भी रहे थे. वे नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चहेते माने जाते हैं. गुजरात के चर्चित गोधरा कांड की जांच के लिए बनी एसआईटी के वे मुखिया थे. गौरतलब है कि गोधरा कांड में नरेंद्र मोदी पर भी आरोप लगे थे. लेकिन अपनी रिपोर्ट में राकेश अस्थाना ने ही कहा था कि कारसेवकों से भरी ट्रेन को सुनियोजित तरीके से आग के हवाले किया गया था. यह भाजपा और नरेंद्र मोदी को राहत देने वाली बात थी. 22 जुलाई, 2008 को हुए अहमदाबाद बम धमाकों की जांच भी उन्होंने ही की थी और केवल 3 हफ्तों में चार्जशीट दायर कर दी थी. सीबीआई में उन्हें अक्तूबर 2017 में बतौर स्पैशल डायरैक्टर नियुक्त किया गया था. कहा जाता है कि उन की नियुक्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इच्छा से हुई थी.

मोइन अख्तर कुरैशी 1993 में उत्तर प्रदेश के रामपुर में एक छोटा सा बूचड़खाना चलाने वाला मोइन कुरैशी हैरतअंगेज तरीके से देश का बड़ा मांस निर्यातक बन गया था. खासे पढ़ेलिखे मोइन ने दून स्कूल, देहरादून और दिल्ली के सैंट स्टीफन कालेज से अपनी पढ़ाई पूरी की. एएक्यू एग्रो जैसे बडे़ ब्रैंड के मालिक मोइन की 25 कंपनियां हैं जिन में कंस्ट्रक्शन और फैशन कंपनियां तक शामिल हैं. मोइन को एक मामूली व्यक्ति नहीं माना जा सकता जिस ने सीबीआई अफसरों को भी घूस देने के लिए बिचौलिए तैनात कर रखे थे. मोइन के खिलाफ चल रही एक सीबीआई जांच, जो एसआईटी कर रही थी, उस के मुखिया राकेश अस्थाना थे. इस टीम के डीएसपी देवेंद्र मोहन को मोइन के मध्यस्थों से घूस लेने के आरोप में पहले ही गिरफ्तार किया गया था. शाही अंदाज में रहने का शौकीन मोइन का दिल्ली के छतरपुर इलाके में एक शानदार फार्महाउस है. मोइन कुरैशी इसलिए भी अहम है कि 2014 के लोकसभा चुनावप्रचार में नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया था किउस के सिर पर कांग्रेस का हाथ है, इसलिए उस के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती, जबकि वह हमेशा जांच एजेंसियों के रडार पर रहता है.

जांच में ढिलाई सीबीआई औसतन हर साल लगभग 600 मामलों की जांच करती है जो धोखाधड़ी, आर्थिक अपराध, साइबर क्राइम और नाजायज संपत्ति के होते हैं. आपसी खींचातानी और जूतमपैजार के चलते सीबीआई की कार्यक्षमता में न केवल गिरावट आई है बल्कि उस की साख पर बट्टा भी लगा है. आंकड़ों की शक्ल में इसे देखें तो सीबीआई औसतन 66.8 फीसदी मामलों में ही अपराध साबित कर पाती है. अकेले साल 2017 में, भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम के तहत 538 मामलों में 755 आरोपी बरी हुए थे और देशभर की अदालतों ने 184 मामले खारिज कर दिए थे. इसी साल चर्चित 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले में मामले की सुनवाई करने वाले जज ने यह तल्ख टिप्पणी की थी कि 7 साल की कार्यवाही में अदालत को उम्मीद थी कि सीबीआई आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सुबूत उपलब्ध कराएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अभी भी सीबीआई के पास 1,174 मामले लंबित हैं.

इन में से 55 मामले 5 साल से पहले के हैं. 10 साल पुराने 6 और 15 साल पुराने 2 मामले लंबित पड़े हैं जबकि 157 मामलों की जांच 2 वर्षों से चल रही है. जाहिर है 7 हजार मुलाजिमों के स्टाफ वाली सीबीआई, जिस पर सरकार बेतहाशा खर्च कर रही है, सिविल पुलिस जैसी घूसखोरी के साथसाथ कामकाज के मामले में भी होती जा रही है. अब साख पर बट्टा लगने के बाद इस के होने न होने के कोई खास माने नहीं रह गए हैं. जो बिगड़ा है वह अब लगता नहीं कि उस की भरपाई हो पाएगी.

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