जहां 2 बरतन होते हैं वहां खनखनाहट, घनघनाहट, अटपटाहट और आवाज का आना व होना स्वाभाविक है. परिवार में जहां प्रेम है, प्यार है, अपनत्व है, वहां तिरस्कार और दुश्मनी भी है पर फिर भी आपस में वार्त्तालाप, बातचीत, उठनाबैठना, रिश्तेनाते भी बने रहते हैं. एकदूसरे से बदला लेना, कटाक्ष करना, व्यंग्य करना, चुहलबाजी करना,चिढ़ाना आदि प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से होते ही रहते हैं.

कभीकभी समस्या आती है कि हम मुंह पर किसी के सामने प्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष, बुराई, चुहलबाजी आदि नहीं कर सकते. हम सहारा लेते हैं ऐसे किसी परोक्ष तरीके का जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. किसी भी बात को सीधे तरीके से न कह कर घुमाफिरा कर करना या कहना, किसी की ओर इशारा किसी और की तरफ बात को कह कर वातावरण के माहौल को बदल कर रख देना ही मुहावरा कहलाता है.

मुहावरों की धार बड़ी तेज होती है. यह तेज धार दोधारी तलवार जैसी होती है. कभीकभी किसी परिस्थिति में प्रयोग किया मुहावरा चुहल के बजाय वैमनस्य भी पैदा कर देता है और फिर पासा उलटा पड़ जाता है. सो, इन का प्रयोग बड़ी समझबूझ और सतर्कता से किया जाता है. मुहावरों के उपयोग और उन के प्रकार को चुनने के लिए जरूरी है कि आप माहौल को पहचानें. वे आप के स्वभाव से, आप के रुतबे से, आप के सम्मान से, आप के पद से कितना जुड़े हैं और आप उन के कितने करीब हैं क्योंकि आप की उन के साथ आत्मीयता आदि बहुतकुछ काम का होता है.

उचित समय, माहौल और उचित तरीके से उपयोग किया गया मुहावरा सटीक, प्रभावी व माहौल को बिना बिगाड़े काम कर जाता है, जैसे ‘कंगाली में आटा गीला’ अर्थात जब साधन न हों तब किसी चीज का कम पड़ जाना.

समय और परिस्थितियां, माहौल, आदमी की व्यस्तता, परिवार का ढांचा आदि बदलने से मुहावरे कहने की प्रथा एवं इन का प्रयोग धीरेधीरे समाप्त होता जा रहा है. परिवार में सासबहू, ननदभौजाई, कार्यालय में बौस तथा कर्मचारी के बीच, चौपाल में मस्तीभरे वातावरण में, लोगों के जमाव आदि अवसरों पर मुहावरों का प्रयोग गमगीन तथा संगीन वातावरण को हंसीठहाके में बदल कर हलकाफुलका बना देता था. आजकल ऐसे अवसर बहुत कम ही आते हैं.

मुहावरे बनते आए हैं. हमारे पूर्वज भी मुहावरों का प्रयोग करते रहे हैं. मनुष्य एवं प्रकृति का अभिन्न संबंध है. पशुपक्षी, जल, वायु, पर्वत, नदियां आदि प्रकृति के मुख्य घटक हैं. इन घटकों का अपना महत्त्व एवं विशेषताएं हैं. मुहावरे बनाने में इन का महत्त्वपूर्ण उपयोग किया जाता है. मुहावरे बनने में प्रकृति के हर अंग का योगदान होना प्रतीत होता है.

मनुष्य के शरीर के विभिन्न अंगों के नाम तथा पशुओं के नाम व उन की कुछ विशिष्ट आदतों को आधार बना कर कई मुहावरे रोजमर्रा के उपयोग में आते रहे हैं, जैसे ‘बाल की खाल’, ‘आंखों की किरकिरी’, ‘आंख का तारा’, ‘नाक ऊंची होना’, ‘टेढ़ी उंगली से घी निकालना’, ‘पांचों उंगलियां घी में’, ‘पूत के पांव पालने में’ आदि. भावभंगिमा और इशारों से भी तीर निशाने पर लग जाता है. चेहरे की भावभंगिमा से घृणा, प्यार, आंख की चमक, चेहरे का लाल होना, नाकभौंह सिकोड़ना, मुंह बिचकाना आदि के द्वारा मन के अंदर उठते भावों को चेहरे पर ला कर व्यक्त करने की कला किसीकिसी को ही आती है.

कुछ निराली छटा वाले मुहावरे काफी प्रचलित थे. ‘आंख का अंधा नाम नैनसुख’, ‘जहां चाह वहां राह’, ‘बंद मुट्ठी लाख की’, ‘देर आए दुरुस्त आए’, ‘सूपा बोले तो बोले छलनी बोले जिस में 72 छेद’, ‘डूबते को तिनके का सहारा’ आदि अकसर उपयोग में आते रहते थे. ये अपनी तीखी प्रकृति के कारण तीखा वार कर अपनी क्षमता का प्रदर्शन करते थे.‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे’ काफी प्रचलित एवं अकसर प्रयोग में लाया जाता था जिस का मतलब है किसी साहस के काम को करने के लिए हिम्मत और धैर्य की आवश्यकता है. ऐसे ही ‘शेर के मुंह में हाथ डालना’, ‘सांप को दूध पिलाना’, ‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम’, ये मुहावरे सांप और उस की प्रकृति से जुड़े हैं. अजगर किसी की नौकरी नहीं करता और पंछी काम नहीं करता जिस का सीधा सा अर्थ है कामचोरी करने वाला व्यक्ति इसी श्रेणी में आता है. ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’, ‘एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है’ आदि मुहावरे आज भी काफी प्रचलित हैं.

मुहावरों के साथसाथ कुछ शिक्षाप्रद, कटाक्ष वाले, उपहास पैदा करने वाले, संजीदा वातावरण को हलकाफुलका करने वाले दोहों, छंदों, क्षणिकाओं आदि का भी प्रयोग होता था. समयसमय पर संतों, कवियों, समाजसुधारकों आदि द्वारा लिखे गए दोहे, कविताएं, चौपाइयां भी दोधारी तलवार की तरह काम करते थे. ‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ…’, ‘काज परे कछु और है, काज परे कछु और…’ ‘खीरा को मुंह काट के…’, ‘मांगन मरण समान है…’, ‘आधी छोड़ सारी को धावे…’, ‘एैरन की चोरी करे…’ आदि सभी मुहावरों के महत्त्व, उपयोगिता एवं अनिवार्यता को उजागर करते हैं. कार्यालयों में संजीदगी के वातावरण तथा औपचारिकता के कारण इन मुहावरों का उपयोग नहीं होता पर फिर भी सहकर्मी मौके के अनुसार इन के चटखारे ले ही लेते हैं.

शादी, त्योहार, जन्मदिन आदि अवसरों पर जब घरपरिवार के संबंधी, मित्र आदि मिलते हैं तो माहौल में चुहुलपुहुल, हंसीमजाक, ताने मारना, कटाक्ष करना आदि मुहावरों के प्रयोग का एक स्वाभाविक वातावरण निर्माण करता है. जैसे, ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’, इस का अर्थ है कि जो अच्छा काम, अच्छे कर्म या भलाई नहीं करता उसे बुरा फल भोगना पड़ता है. ‘बहती गंगा में हाथ धोना’ एक दूसरा बड़ा ही सटीक मुहावरा है जिस का मतलब है जब मौका हो तो उस का फायदा उठाओ, चूको मत. ‘ऊंची दुकान का फीका पकवान’ या ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना’ अर्थात अपनी तारीफ, अपनी महानता, शानोशौकत और धनदौलत का बढ़ाचढ़ा कर स्वयं ही बखान करना या ढिंढोरा पीटना. बड़े समूह में बातेंबातों में इन का उपयोग बिना किसी को चोट पहुंचाए या दिल दुखाए किया जा सकता है. ‘नौ नकद न तेरा उधार’, ‘मुंह में राम बगल में छुरी’, ‘दूध का जला छाछ को भी फूंकफूंक कर पीता है’ आदि कुछ अत्यंत ही प्रभावी, रोचक एवं समयसमय पर उपयोग किए जाने वाले प्रचलित मुहावरे हैं. ‘जो गरजते हैं वो बरसते नहीं हैं’ इस का सीधा सा मतलब है जो ज्यादा बोलते हैं या धमकियां देते हैं वे वास्तव में कुछ भी नहीं कर सकते. डींगे मारने वाले इसी श्रेणी में आते हैं.

एक और काफी प्रचलित मुहावरा हुआ करता था ‘दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते.’ यह काफी व्यंग्यभरा मुहावरा है. कोई चीज आप को मुफ्त, उपहार, दान या लौटरी आदि के द्वारा हासिल होती है और वह चीज जब बाद में बिना किसी काम की, निम्नगुण या टूटीफूटी साबित होती है तो उस अवसर पर यह मुहावरा बिलकुल सटीक बैठता था.‘नेकी कर दरिया में डाल’, ‘जल में रह कर मगर से बैर नहीं करते’, ये दोनों मुहावरे काफी चलन में रहे. ये उचित परिस्थितियों में तीर की तरह लगते हैं. घर में मियांबीवी की तकरार में पति अकसर पत्नी से कह देता है, ‘पानी में रह कर मगर से बैर नहीं कर सकता.’

बीतते समय के साथसाथ आज हम देखते हैं कि इन मुहावरों का उपयोग यदाकदा ही होता है. परिवार के सदस्यों के दिल में समाई संकीर्णता, परिवार की टूटन, मेलजोल का न होना आदि इन मुहावरों के उपयोग के लिए प्रभावी वातावरण का निर्माण नहीं करते. मुहावरों को जीवित रखने के लिए उन्मुक्त हृदय और हंसीठहाकों से भरा माहौल, मलाल रहित दिल अब कहां मिलते हैं.

काश, ये लुप्त होते मुहावरे एक बार फिर आ कर हमारे जीवन में स्वस्थ व्यंग्य एवं कटाक्ष का रंग घोल दें और घर, बाहर, औफिस आदि में होने वाले तनाव से मुक्ति दिलाएं.  

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