थिएटर से अभिनय करियर शुरू करने वाले गजराज राव ने 1994 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘बैंडिट क्वीन’’से लेकर ‘‘तलवार’’ आदि बहुत चुनिंदा फिल्में ही की हैं. वास्तव में बौलीवुड में एक कलाकार के संघर्ष को देखकर उन्होंने कई वर्ष पहले ही तय कर लिया था कि वह अपने कला के शौक के लिए अपने परिवार को रूलाने की बजाय कला के साथ साथ कुछ रचनात्मक काम करते हुए धन कमाएंगे. इसी विचार के साथ उन्होंने अपनी कंपनी ‘‘ग्रेड फिल्मस’’ के तहत विज्ञापन फिल्में बनानी शुरू की. एक तरफ वह विज्ञापन फिल्में बनाते रहे तो दूसरी तरफ वह ‘‘नो स्मोकिंग’’, ‘‘आमिर’’, ‘‘तलवार’’ सहित कुछ चुनिंदा फिल्मों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे. अब वह 18 अक्टूबर को प्रदर्शित हो रही फिल्म ‘‘बधाई हो’’ में नजर आने वाले हैं.
बतौर अभिनेता अपने संघर्ष को किस तरह से देखते हैं?
मैं मूलतः राजस्थान से हूं. पर लंबे समय तक दिल्ली में थिएटर से जुड़ा रहा. मेरे संघर्ष की दास्तान यह है कि मैंने अपने जीवन में बहुत से अलग अलग काम किए हैं. संघर्ष करते हुए भी मैं गार्मेंट्स एक्सपोर्ट कंपनी में 4-8 माह काम कर चुका हूं. तकरीबन डेढ़ दो साल तक दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम करते हुए कई नामचीन अखबारों के लिए लेखन किया. थिएटर करते हुए ही ‘टीवी 18’ के कुछ कार्यक्रमों के एंकरों के लिए स्क्रिप्ट लिखकर देता था. इसी के साथ साथ फिल्मों में अभिनय करने का संघर्ष जारी रहा. मुझे कोई अच्छा प्रोजेक्ट मिल जाए, तो अभिनय कर लेता. पर एक्टिंग करने के लिए तो उस रूल को मैं अभी भी फौलो कर रहा हूं कि मुझे बहुत उम्दा अच्छे स्तर की स्क्रिप्ट पर काम करना है. बहुत अच्छे उम्दा निर्देशक के साथ काम करना है. बहुत ही अच्छी टीम के साथ काम करना है. मुझे कहीं पर भी फिट नही होना है.
इसीलिए आप कम फिल्मों में नजर आते हैं?
जी हां! जब कोई किरदार या किसी फिल्म की पटकथा मुझे प्रेरित करती है, तभी मैं फिल्म के साथ जुड़ता हूं. अन्यथा मैंने जीवन में बहुत पहले ही यह तय कर लिया था कि मुझे ‘बेचारा एक्टर’नहीं बनना है. मुझे अच्छे किरदार निभाने के लिए संघर्ष करना है. पर परिवार चलाने के लिए संघर्ष नहीं करना है. मैं अपने शौक या अपनी रचनात्मकता के लिए, अपने परिवार को दुःख नहीं पहुंचा सकता. माता पिता को दुख नही पहुंचा सकता. मेरी सोच शुरू से ही यही रही है कि ठीक से जीवन यापन चलना चाहिए. घर के खर्चे चलने चाहिए. यही वजह है कि मैंने ‘बैंडिट क्वीन’’ से लेकर अब तक ‘ब्लैक फ्रायडे’, ‘आमिर’, ‘तलवार’, ‘ब्लैकमेल’जैसी गिनी चुनी फिल्में की हैं. अब फिल्म ‘‘बधाई हो’’ में टिकट चेकर कौशिक के किरदार में नजर आउंगा.
फिल्म ‘‘बधाई हो’’ को आप सामाजिक संदेश देने वाली फिल्म मानते हैं या..?
फिल्म के ट्रेलर से फिल्म की विषयवस्तु स्पष्ट हो चुकी है. फिल्म ‘बधाई हो’में सामाजिक इश्यू को लेकर बात की गयी है, पर मनोरंजन के साथ. वर्तमान समय में बदले हुए समाज में युवा पीढ़ी अपने बड़ी उम्र के माता पिता के रोमांस को पाप समझने लगी है. इसी पर यह फिल्म मजाकिया अंदाज में बात करती है. अमूमन भारतीय संस्कृति में मध्यम वर्गीय परिवारों में एक उम्र के बाद माता पिता अपनी जिंदगी भुलाकर अपने बच्चों के बारे में ही सोचना शुरू करते हैं और युवा पीढ़ी मान लेती है कि उनके माता पिता का रोमांस ढल गया. मगर इसके यह मायने नही हैं कि हमारी फिल्म ‘बधाई हो’ में चालिस या पचास साल की उम्र के बाद माता पिता बनने की वकालत की गयी हो. फिल्म कहती है कि इसमें शर्मिंदगी वाली कोई बात नही है. मां या पिता बनना हर महिला व पुरुष का निजी मसला है. इस पर पति पत्नी को आपसी सहमति से ही निर्णय लेने का अधिकार है.
फिल्म ‘‘बधाई हो’’ में टिकट चेकर कौशिक की जिंदगी में उस वक्त भूचाल आ जाता है, जब पता चलता है कि उसकी पत्नी पुनः गर्भ धारण कर चुकी है. पर वह अपनी पत्नी का साथ देता है.
यानी कि मिस्टर कौशिक को अपनी पत्नी के गर्भवती होने पर एतराज नहीं है?
मैंने पहले ही कहा कि वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है और वह हमेशा अपनी पत्नी की चाहत में उसके साथ खड़ा रहता है. वह पत्नी का साथ निभाने के लिए हमेशा आतुर रहता है. उसे भी समाज और इधर उधर से कटाक्ष, तानें, व्यंग्य सुनने को मिल रहे हैं, लेकिन इससे उसे फर्क नहीं पड़ता है. शुरुआत में वह थोड़ा झिझकता जरूर है, पर वह शर्मिंदा नहीं होता. मुझे लगता है कि कौशिक को लगता है कि ठीक है. जो है, वह है. क्या किया जा सकता है.
इसके बाद क्या कर रहे हैं?
एक अच्छी पटकथा वाली फिल्म का इंतजार कर रहा हूं. एक फिल्म की पटकथा लिखी है, जिस पर फिल्म निर्देशित करने का विचार है.