हो कर दूर बिखर गई मैं,
माला से टूट बिखर गई मैं.
थी मेरी पहचान भी कोई,
था मेरा अरमान भी कोई,
हुआ चूर वजूद जो मेरा,
इस भीड़ में, किधर गई मैं.
जब से मेरा ध्यान है टूटा,
मुझ से मेरा हर काम है छूटा,
अब तेरे रंग में रंगी हुई है,
अपने रंग से नितर गई मैं.
अर्पित जीवन का तुम को हरपल,
मन में उठी हलचल हर क्षण,
तोड़ के हर रिश्ते का बंधन,
अपनेआप से बिगड़ गई मैं.
आ जाओ अब तुम जीवन में,
देख रही हूं मैं दर्पण में.
उठतीगिरती बहती लहरें,
जाने क्याक्या कहती लहरें,
गूंज रहा बस शोर तुम्हारा,
बाकी सबकुछ बिसर गई मैं,
माला से टूट बिखर गई मैं.
– गीता उपरैती गुप्ता
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