{एक}
जयंत कुमार दास के लिए पुरी (ओडिशा) के अपने घर के बाहर दस्तावेजों का ढेर मिलना कोई अनोखी बात नहीं थी. भारतीय वायु सेना में दो दशकों तक बतौर सार्जेंट काम करने के बाद, दास 2001 में रिटायर हुए. उस वक्त उनकी उम्र 39 वर्ष थी. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने जमीन की खरीद फरोख्त का धंधा शुरू किया. इस काम ने इस धंधे में फैले भ्रष्टाचार से उनका आमना सामना करवाया. दास ने उस वक्त खुद को सशक्त महसूस किया जब 2005 में सूचना का अधिकार कानून पारित हुआ. दशक के अंत तक आते आते, वो ओडिशा चिट फण्ड घोटाले के नाम से मशहूर हुए मामले में अपने हाथ जला चुके थे. जब घोटाला उजागर हुआ तो उनका नाम भी प्रेस में उछाला जाने लगा. “तो लोग मुझे जानने लगे हैं,” दास ने हंसते हुए कहा. “और क्योंकि उन्हें मालूम है कि मैं अपना काम पूरी ईमानदारी से करता हूं, वे लगातार मुझे सूचनाएं भेजते रहते हैं.” कभी कभी ऐसा भी होता था कि उनके दरवाजा खोलने से पहले ही उनका कुत्ता दस्तावेजों को चबा चुका होता था.
11 अगस्त 2016 के दिन उन्हें कटक से भेजे गए कुछ कागजात प्राप्त हुए. इन कागजातों में ओडिशा हाई कोर्ट के आदेश पर सीबीआई द्वारा की गई जांच की अंतरिम रिपोर्ट भी शामिल थी. रिपोर्ट में उन सार्वजनिक अधिकारियों के नाम शामिल थे, जिन पर धोखाधड़ी से सरकारी जमीन हथियाने का आरोप था.
रिपोर्ट की पृष्ठ संख्या 30 पर, जिस जगह पर लीज केस संख्या 588/79 का वर्णन दिया गया था, दास ने “दीपक मिश्रा” का नाम देखा. उन्होंने तीन दशक पुराने कटक के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के उस आदेश को ढूंढ निकाला, जो उन्होंने स्टेट बनाम दीपक मिश्रा के मामले, 1984 के लीज रिविजन केस संख्या 238में दिया था. इसमें प्रतिवादी पक्ष ने कटक में चारागाह बनाने की घोषित मंशा से तीन एकड़ सरकारी जमीन आवंटित किए जाने के लिए आवेदन किया था. सरकारी स्कीम के अनुसार इस जमीन को आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के विकास के लिए आवंटित किया जाना था. इसके लिए अपनी योग्यता साबित करने के लिए मिश्रा ने शपथपत्र में घोषित किया था कि वे एक भूमिहीन ब्राह्मण परिवार से संबंध रखते हैं. यह सफ़ेद झूठ था और इसे आधार बनाकर प्रतिवादी की लीज़ खारिज कर दी गई. अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट “आश्वस्त थे कि प्रतिवादी ने सरकारी जमीन झूठ और फरेब के बल पर हासिल की है.”
सीबीआई ने अपनी जांच में पाया कि जनवरी 2012 में कटक के तहसीलदार ने रिकौर्ड में फेरबदल किया था. इसका मतलब था कि अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के 26 साल पुराने आदेश के बावजूद भी विवादित जमीन पर प्रतिवादी का कब्जा बना हुआ था. इन छब्बीस सालों में प्रतिवादी के लिए बहुत कुछ बदल चुका था. 1984 में दीपक मिश्रा ओडिशा हाई कोर्ट में बतौर वकील काम करते थे. साल 2012 आते आते तक, वे जज नियुक्त होकर ओडिशा हाई कोर्ट से होते हुए, पटना और दिल्ली उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रह चुके थे. इसी क्रम में उन्होंने अपने नाम की अंग्रेजी स्पेलिंग को मिश्रा से मिस्रा कर लिया था और अब वे देश के सुप्रीम कोर्ट में बतौर न्यायाधीश कार्यरत थे.
उच्च न्यायपालिका के सदस्यों से यह उम्मीद की जाती है कि उनका माजी बिलकुल पाक साफ हो. नियुक्ति की समूची प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि वाकई वे बेदाग हों. इस पूरे प्रकरण में, दास को यह भी पता चला कि मिश्रा की इस यात्रा में कई राज्यों और केंद्रीय सरकारों ने अपनी जिम्मेवारी का निर्वाहन सही ढंग से नहीं किया है. संभावित जजों और न्यायमूर्तियों की पृष्ठभूमि जांचना, इन सरकारों का काम था जो उन्होंने नहीं किया. ना ही कौलेजियम सिस्टम ने इस काम को सही ढंग से अंजाम दिया, जो 1993 से उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों के लिए जिम्मेदार है.
क्या कोई ऐसा व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है, जिसे धोखाधड़ी के मामले में दोषी पाया गया हो? मिश्रा कोई मामूली न्यायाधीश नहीं थे. वरीयता निर्धारित करने वाली वरिष्ठता की परंपरा के अनुसार, वे गणतंत्र के सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च पद पर आसीन होने की कतार में थे.
दास को लगा कि मिश्रा के इस उल्लंघन को शायद भुला दिया गया था. सितम्बर 2016 में उन्होंने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर को यह कहते हुए एक याचिका दायर की कि “भारत के नागरिक के बतौर, संविधान के अनुच्छेद 51 ‘अ’ के तहत मेरा यह कर्तव्य बनता है कि मैं इस धोखाधड़ी को उजागर करूं.” दास ने अपनी याचिका में ठाकुर से इस मुत्तालिक उचित कदम उठाए जाने की गुहार लगाई. इसके साथ साथ उन्होंने इस याचिका की प्रतियां, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, क़ानून और न्याय मंत्री रवि शंकर प्रसाद तथा सुप्रीम कोर्ट के उन तमाम न्यायाधीशों, जो ठाकुर के साथ कौलेजियम के सदस्य थे, को भी भेजी. उन्होंने अपनी शिकायत लोक सभा और राज्य सभा के 700 से ज्यादा सदस्यों को भी ईमेल के जरिए भेजी, जिनका पता वे लगा पाए.
दो महीने बीत गए लेकिन कुछ नहीं हुआ
नवम्बर 2016 में, दास ने अपनी शिकायत की याद दिलाते हुए ठाकुर को एक और पत्र लिखा और इसकी प्रतिलिपि उन्होंने कौलेजियम के अन्य सदस्यों को भी भेजी. उन्हें फिर कोई जवाब नहीं मिला.
जनवरी 2017 में, जे.एस. खेहर द्वारा ठाकुर की जगह मुख्य न्यायाधीश का पद संभाले जाने के एक दिन बाद, दास ने खेहर को एक रिमाइंडर भी भेजा. एक हफ्ते से ज्यादा का वक्त बीत गया लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई. दास ने स्थानीय पोस्ट मास्टर को यह पूछते हुए खत लिखा कि क्या उनके पत्र बताए पते पर पहुंच रहे थे या नहीं. जवाब मिला कि खत बताए पते पर पहुंच चुके थे. फरवरी में दास ने एक अन्य पत्र के जरिए कौलेजियम, जिसमे अब खेहर, चेलमेश्वर, गोगोई और मदन लोकुर शामिल थे, को यह याद दिलाया कि उनकी पहली शिकायत से अब तक 146 दिन बीत चुके हैं.
इस बीच एक नई पेचीदगी नमूंदार हुई. जज बी.पी. दास की अगुवाई में ओडिशा हाई कोर्ट की एक खंडपीठ से सीबीआई जांच के आदेश आए थे. दिसम्बर 2016 में एक साक्षात्कार के दौरान उसी जज ने यह दावा किया कि 2012 में उनके द्वारा आदेश जारी करने के तीन महीने बाद, मिश्रा ने उन्हें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस बनाए जाने का विरोध किया था. वे तब तक अवकाश प्राप्त कर चुके थे. उन्होंने कहा, “यह कड़ी और अवधारणा बेबुनियाद नहीं है क्योंकि इन दोनों जजों ने कभी भी एक साथ काम नहीं किया”. “मिश्रा को बतौर जज मेरी परफौरमेंस का कोई अंदाजा नहीं था, लेकिन फिर भी उन्होंने कौलेजियम को मेरी नियुक्ति की खिलाफत करते हुए लिखा.”

जयंत दास के प्रयासों पर कुछ तीखी प्रतिक्रियाएं भी हुईं. इंटरनेशनल काउंसिल औफ जुरिस्ट्स के अध्यक्ष अदिश अग्रवाल ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश खेहर को इस मामले में जांच कराए जाने की मांग करते हुए एक खत लिखा. पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने भी इस हेडलाइन के साथ एक लेख लिख डाला कि “क्या कोई गंभीर नैतिक खामी के बावजूद भी भारत का मुख्य न्यायधीश बन सकता है?” लेकिन अधिकतर कानूनी बिरादरी – जैसे न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका – ने न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर वही किया जो वह अक्सर करती है, यानी, चुप्पी साधे रखी.
27 अगस्त 2017 को भारतीय न्याययिक संस्कारों की स्थापित रवायतों के अनुसार दीपक मिश्रा राष्ट्रपति भवन के दरबार हौल में बैठे थे. एक संक्षिप्त समारोह और इस संकल्प के साथ कि वे अपनी नई जिम्मेवारी का निर्वाह “बिना किसी भय और पक्षपात” के करेंगे, उन्हें भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया. उस समय कक्ष में मोदी के साथ साथ, खेहर और कानून मंत्री प्रसाद भी मौजूद थे. सरकार और विपक्ष की प्रमुख हस्तियां तथा उच्च पदों पर आसीन नौकरशाहों की पूरी जमात खामोशी से यह सब तमाशा होते हुए देखते रही. वहां उस वक्त प्रतिष्ठित गणमान्य लोगों में कई मौजूदा और अवकाशप्राप्त न्यायाधीश और न्यायविद्द भी शामिल थे. ये सभी लोग दास की शिकायत से अवगत थे और उसे नजरअंदाज किया था. मिश्रा ने अपनी शपथ पर दस्तखत करने के बाद राष्ट्रपति से हाथ मिलाया. सभी ने तालियों की गड़गड़ाहट से नए मुख्य न्यायाधीश का अभिवादन किया.
मिश्रा भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नहीं थे जिन पर अनियमितताएं बरतने के आरोप लगे थे. 2010 में, पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक शपथ पत्र दाखिल किया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि “पिछले 16 मुख्य न्यायाधीश में से आठ निश्चित तौर पर भ्रष्ट थे.” इसके साथ ही उन्होंने एक सील लिफाफे में उन कथित भ्रष्ट न्यायाधीशों के नामों की सूची भी पेश की. लेकिन उस पर कोई छानबीन या कार्यवाही नहीं हुई. 2015 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सी.के. प्रसाद के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप सामने आए. जब प्रसाद के खिलाफ आरोपों की छानबीन के लिए एक याचिका कोर्ट में दाखिल की गई, तो मिश्रा के अगुवाई में दो जजों की खंडपीठ ने इसे खारिज कर दिया. खंडपीठ ने कथित तौर पर यह टिप्पणी की कि इस तरह की याचिकाओं पर विचार करने का अर्थ भारतीय लोकतंत्र के लिए “खतरनाक दरवाजों” को खोलने जैसा होगा, और यह भी कहा कि “अगर वे कुछ विवादास्पद रूप से अस्पष्ट और बेतुके आदेश जारी करें तो भी जजों को ‘वैधानिक संरक्षण’ प्राप्त है.”
लेकिन मिश्रा की स्थिति की गंभीरता एक बिलकुल अलग स्तर की है. सुप्रीम कोर्ट के किसी भी मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधीश को इससे पहले कभी भी न्यायिक आदेश में धोखाधड़ी के लिए दोषी नहीं पाया गया था. इस तरह के रिकौर्ड के बावजूद मिश्रा का कोर्ट में उत्थान एक डरावनी पूर्वसूचना थी; जब से वे गणतंत्र की न्यायिक व्यवस्था के उच्चतम स्थान पर आसीन हुए हैं इस पूर्वाभास को लेकर जो हो सकता था उसमे से अधिकतर घटित हो चुका है.
मिश्रा के शपथ ग्रहण करने के कुछ ही महीनों के अन्दर वकीलों के समूह ज्यूडिशियल अकाउंटिबिलिटी एंड रिफार्मस (सीजेएआर) ने सुप्रीम कोर्ट में एक चौंकाने वाली याचिका दायर की. सीबीआई ने दस्तावेज तैयार किया था कि कैसे ओडिशा हाई कोर्ट के एक पूर्व जज ने याचिकाकर्ताओं को सुप्रीम कोर्ट में मामला आने पर अनुकूल नतीजों का आश्वासन दिया था. दोनों ही मामलों में, मिश्रा की अगुवाई में गठित खंडपीठों ने फैसला सुनाया.
सीजेएआर ने दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश, जस्टिस चेलमेश्वर के नेतृत्व वाली खंडपीठ के सामने पूर्व मुख्य न्यायाधीश के तहत स्वतंत्र छानबीन की मांग रखी. चेलमेश्वर की खंडपीठ ने इससे संबंधित याचिका को सुना और आदेश पारित किया कि मामले को मिश्रा के नेतृत्व में वरिष्ठतम न्यायाधीशों की पांच सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ के सामने रखा जाए. यह गुरुवार का दिन था और मामला आने वाले सोमवार को सुनवाई के लिए अनुसूचित था. परन्तु मिश्रा ने मुस्तैदी दिखाते हुए चारों वरिष्ठतम न्यायाधीशों को दरकिनार करते हुए मामला एक अन्य खंडपीठ के सुपुर्द कर दिया, जिसकी अगुवाई भी वे खुद कर रहे थे. इस खंडपीठ ने शुक्रवार को इस मामले की सुनवाई की और इसे सिरे से खारिज कर दिया.
मुख्य न्यायाधीश में निहित न्यायिक शक्तियां और दायित्व, हमेशा से सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों के समकक्ष माने जाते रहे हैं. प्रशासनिक तौर पर, मुख्य न्यायाधीश अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए हमेशा से ही मामलों को निश्चित खंडपीठों को सौंपने का काम करते आए हैं. सुनवाई के दौरान, इस खंडपीठ ने ऐलान किया कि “न्यायालय की खंडपीठ के गठन और मामलों को सुनवाई के लिए उन खंडपीठों को सौंपने का विशेषाधिकार मुख्य न्यायाधीश का ही है” – उन मामलों में भी, जिनमें मुख्य न्यायाधीश खुद आरोपित हों.
उस दिन से, जैसे सुप्रीम कोर्ट के गलियारों से परपरागत गंभीरता भाफ की तरह उड़ गई. कनिष्ठ वकील अदालत के कमरों में गोल गोल चक्कर लगाते अपनी फटी हुई आंखें लिए इस संस्था की दशा पर अचंभित हैं. चुनींदा खंडपीठों को मामले सौंपने के मिश्रा द्वारा अपने विशेषाधिकार के इस्तेमाल पर उनके खुद के कुछ साथी न्यायाधीशों ने सार्वजनिक रूप से सवाल उठाए हैं: एक अविश्वसनीय अपराधिक न्याययिक चुप्पी, जो इतने लम्बे समय तक फलक पर छाई रही.
जो नजारा नजर के सामने है वह यकीनन खौफनाक है. असल में, उच्चतम पद पर मिश्रा के कार्यकाल के दौरान, सुप्रीम कोर्ट की सभी खंडपीठों के काम करने के तौर तरीके अब संदेह के घेरे के बाहर नहीं रह गए हैं. जहां न्याय होता भी दिखता है, उसे भी न्याय होते हुए नहीं देखा जाता. इतिहास में आज तक किसी मुख्य न्यायाधीश ने इस संस्था पर इतनी गहरी अंधेरे की चादर नहीं डाली थी.
मिश्रा की परिस्थितियां भी मुख्य न्यायाधीश और सरकार के बीच के समीकरण पर बेजोड़ रूप से शक को पुख्ता करती हैं. भूषण के मुताबिक़, “सरकार सीबीआई जांच के जरिए मुख्य न्यायाधीश को ब्लैकमेल कर रही है, मुख्य न्यायाधीश साफ तौर पर सरकार के दबाव में काम कर रहे हैं.”

मुख्य न्यायाधीशी टी.एस. ठाकुर के कड़वाहट से भरे कार्यकाल के दिसंबर 2016 में अंत के बाद, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच गजब की मिलनसारिता देखने में आई है. इनके बीच रिश्ता हमेशा से ही बहुत संवेदनशील रहा है, खासकर तब, जब दोनों पक्षों में न्यायिक नियुक्तियों पर नियंत्रण हासिल करने की कशमकश चलती रही है. ठाकुर ने कौलेजियम की आपत्तिजनक सिफारिशों और नियुक्ति की परिक्रिया को संहिताबद्ध करने के मुत्तालिक तैयार किए गए ड्राफ्ट मेमोरेंडम पर सरकार द्वारा टालमटोल के रवैये को आड़े हाथों लिया. मिश्रा के तहत और उससे पहले, खेहर के बाद से कार्यपालिका और मुख्य न्यायाधीश के बीच का तनाव सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आया है और न्यायालय ने भी कई राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों को या तो खारिज कर देने का काम किया है या उन्हें अनिश्चितकाल के लिए मुल्तवी कर दिया. अप्रैल 2018 में सरकार ने कौलेजियम से उत्तराखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोसफ को सुप्रीम कोर्ट में भेजे जाने की सिफारिश पर पुनर्विचार के लिए कहा. 2016 में जोसफ ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के केंद्र के फैसले को खारिज कर दिया था, जिससे केंद्र सरकार चिढ़ गई थी. कुछ सदस्यों के विरोध के बावजूद, मिश्रा की अगुवाई वाले कौलेजियम ने फिर अपनी सिफारिशें सरकार को नहीं भेजी. इस बीच सरकार ने अभी तक ‘मेमोरेंडम औफ प्रोसीजर’ को अंतिम रूप नहीं दिया है.
मिश्रा के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट सत्तर के दशक की याद दिलाता है जब ये संस्था अपने सबसे अंधेरे दौर से गुजर रही थी. सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को निरस्त करने के लिए इंदिरा गांधी ने संसद का सहारा किया, वरिष्ठता की परंपरा को दरकिनार कर अपने मनमाफिक न्यायाधीश को बिना क्रम के चुन कर मुख्य न्यायाधीश के पद पर बिठाने जैसे काम कर, उन्होंने न्यायपालिका की चूलें हिला दीं. आज के दौर के न्यायाधीश उस समय, देश भर में कक्षाओं और कोर्टरूम में बैठकर न्याय के बुनियादी उसूल सीख रहे थे. आज जब वही न्यायाधीश अपने पेशे के अंतिम पड़ाव पर हैं, सुप्रीम कोर्ट को फिर एक बार कार्यपालिका अपने पैरों तले रौंध रही है. एक लोकतांत्रिक न्यायपालिका की भूमिका और बर्ताव के मुत्तालिक जो भी सबक उन्होंने लिया होगा, वह आज बेहद प्रासंगिक है. असहमति के स्वर पहले भी मौजूद थे और आज भी हैं. लेकिन जो इस बीच की खामोशी है उसने ही इस स्थिति की पुनरावृत्ति को मुमकिन बनाया है. बहुसंख्यक सरकार की दादागिरी के आगे सुप्रीम कोर्ट का दंडवत प्रणाम की मुद्रा में झुक जाने का पर्दाफाश दूसरी बार हो रहा है. मिश्रा अपनी पेशेवर जीवन यात्रा में उन तमाम रास्तों से गुजरे हैं जिसने भारतीय गणतंत्र के घेरे की परिक्रमा को पूरा किया है.
12 जनवरी 2018 को खिलखिलाती धूप से नहाए हुए दिन में दिल्ली के बीचोंबीच स्थित चेलमेश्वर के बंगले के लौन में पत्रकारों से घिरे जस्टि चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसफ और मदन लोकुर बैठे थे. यह एक असाधारण नज़ारा था. इससे पहले इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि चार कार्यरत जज, वह भी सुप्रीम कोर्ट की वरीयता में दूसरे से पांचवे स्थान वाले, एक साथ मीडिया से रूबरू हो रहे हों. देश दुनिया की अवाम को न्यायालयों की ऊंची दीवारों के पीछे और अन्दर क्या चल रहा है की झलक मिलने वाली थी.
जजों ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट में पिछले कुछ महीनों में ऐसे कई वाकयात पेश आए हैं जो अनुचित या अवांछनीय हैं. “हमने सामूहिक रूप से मुख्य न्यायाधीश को समझाने की कोशिश की कि जो कुछ हो रहा है वह सही नहीं है और आपको उन्हें सुधारने की दिशा में कदम उठाने चाहिए,” चेलमेश्वर ने कहा. “बदकिस्मती से, हमारा प्रयास विफल रहा.” उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “कि अगर इस संस्था को बचाया और इसकी समबुद्धि को बरकरार नहीं रखा जाता है तो इस देश में लोकतंत्र का अस्तित्व ही नहीं बचेगा.”
यह प्रेस कांफ्रेंस लगभग उसी समय पर हो रही थी जब हाल के कुछ बारीकी से जांचे गए मामलों की पहली सुनवाई कोर्ट में चल रही थी. मिश्रा की अगुवाई वाली खंडपीठ द्वारा सीजेएआर की याचिका को खारिज किए हुए अभी एक पखवाड़े से भी कम समय बीता था कि दिवंगत जज बी.एच. लोया के परिवार वालों ने उनकी संदेहास्पद मौत को लेकर सार्वजनिक रूप से अपना शक जाहिर कर दिया. लोया की मौत 2014 के अंत में हुई, जब वे सीबीआई की विशेष अदालत में एक केस की सुनवाई कर रहे थे. मामला गुजरात राज्य में 2005 में पुलिस द्वारा सोहराबुद्दीन शेख की कथित फर्जी मुठभेड़ के दौरान की गई ह्त्या से संबंधित था. इस मामले में मुख्य अभियुक्त अमित शाह थे जो मोदी शासित गुजरात में गृहमंत्री रह चुके थे, और फिलहाल सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.
राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहले ही सोहराबुद्दीन मामले का हस्तांतरण गुजरात से बाहर करने का आदेश जारी कर चुकी थी. साथ ही इसने आदेश जारी किया था कि शुरू से अंत तक इस मामले को एक ही जज द्वारा सुना जाए. इसके बावजूद, महाराष्ट्र में हस्तांतरित किए जाने के बाद जब पहले जज ने शाह को कोर्ट में हाजिर रहने का हुक्म दिया तो उनका तबादला कर दिया गया. उनकी जगह लोया आए. उनके परिवार के अनुसार बौम्बे हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश द्वारा अमित शाह को मामले से बरी करने के लिए सौ करोड़ रुपए की रिश्वत की पेशकश की गई. लोया की मौत नागपुर में कथित रूप से ह्रदयगति रुक जाने के कारण हुई. वे वहां अपने एक साथी की बेटी की शादी में शामिल होने के लिए गए हुए थे. उनकी जगह जो जज आए उन्होंने महज तीन दिन की सुनवाई के बाद ही शाह को बा इज्जत बरी कर दिया.
परिवार के इस खुलासे के बाद, इस मामले की जांच किए जाने की गुहार लगाते हुए दो याचिकाएं बौम्बे हाई कोर्ट में दायर की गईं. एक नागपुर स्थित खंडपीठ के समक्ष तथा दूसरी मुंबई में. मुंबई वाली याचिका की सुनवाई 12 जनवरी 2018 को होनी थी. उससे एक दिन पहले जांच की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में भी एक याचिका दायर की गई. मिश्रा ने इस याचिका पर सुनवाई के लिए अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली खंडपीठ को यह मामला सौंप दिया. अरुण मिश्रा को भाजपा का करीबी माना जाता है. उन्होंने यह मामला 12 जनवरी की सुबह सुना.

चेलमेश्वर के बंगले पर चारों जजों ने कहा कि हालांकि मुख्य न्यायाधीश से उनके मतभेद पिछले कई महीनों से चल रहे थे, वे उनसे उस सुबह एक विशेष अनुरोध के सिलसिले में मिलने गए थे. जब पत्रकारों ने उनसे सवाल किया कि क्या यह अनुरोध लोया मामले को लेकर था तो गोगोई ने उस पर हामी भरी. जजों ने बाद में मुख्य न्यायाधीश को लिखा एक बिना तारीख का पत्र जारी किया, जिसमे मुख्यत: उन्होंने दो मुद्दे उठाए थे: कुछ मामलों को कुछ ख़ास बेंचों को सौंपने तथा मेमोरेंडम औफ प्रोसीजर को लेकर गतिरोध के संबंध में.
उधर दूसरी तरफ ठीक उसी समय सुप्रीम कोर्ट के लंच रूम में बैठकर मिश्रा और बांकि जज टी.वी. पर प्रेस कांफ्रेंस की लाइव कवरेज देख रहे थे. जब मिश्रा ने वहां मौजूद लोगों से कुछ कहना चाहा तो एस.ए. बोब्दे ने उनसे कहा कि अगर उन्हें कुछ कहना ही है तो उन्हें उन चारों के सामने अपनी बात रखनी चाहिए. उसके बाद बोब्दे वहां से उठ कर चले गए और उनके पीछे पीछे एल. नागेश्वर राव भी. अन्य जजों की कोशिशों से आयोजित मुख्य न्यायाधीश और चार जजों के बीच कई बैठकों के बाद भी मसला सुलझाया नहीं जा सका.
यह प्रेस कांफ्रेंस चुप्पी की संस्कृति तोड़ सकती थी, जो भारतीय न्यायापालिका की दुनिया को ढांपे रहती है. लेकिन इसने ऐसा कुछ नहीं किया. बात सिर्फ इतनी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ऐतिहासिक रूप से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर तुनकमिजाज रहा है और उसने जजों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को समूची संस्था पर हमले के रूप में ही देखा है, बल्कि बात यह भी है कि अधिकतर वरिष्ठ वकीलों का यह मानना है कि खंडपीठ से दुश्मनी उनकी खुद की तरक्की के रास्ते में रोड़ा बन सकती है. इसलिए वे जुबान बंद रखने में ही अपनी भलाई समझते हैं. और मानहानि के डर से मीडिया भी न्यापालिका की रिपोर्टिंग करते वक्त अतिरिक्त एहतियात बरतता है.
देश के कई बेहतरीन कानूनविद अपना दिमाग इसी में खपाए हुए थे कि आखिर इन चार जजों ने अपनी जुबान खोली ही क्यों? “ऐसी हरकतों से अदालत की गरिमा भंग हो रही है,” वकील राम जेठमलानी ने कहा. “अगर मान भी लिया जाए कि इन जजों का कोई अलहदा मत था, लेकिन फिर भी वे प्रेस कांफ्रेंस नहीं बुला सकते,” कानूनविद सोली सोराबजी ने प्रेस को बताया. “ऐसे नहीं होता.” क़ानूनविद फाली नारीमन का कहना था कि “इस तरह की बातों में सहनशक्ति बरतनी चाहिए. आपको अपने मुख्य न्यायाधीश के सेवानिवृत होने तक इंतजार करना चाहिए था.”
जाहिर तौर पर जिस बात के लिए नारीमन, सोराबजी, जेठमलानी और अन्य कानूनविद कुलबुला रहे थे यह है कि यथास्थिति बना कर रखी जाए. “और इसकी वजह है कि वे इस व्यवस्था की देन हैं,” एक वरिष्ठ पूर्व न्यायाधीश ने मुझे बताया.
मनमाने तरीके से मामलों के आवंटन पर संदेह दूर करने की मंशा से, प्रेस कांफ्रेंस के बाद मिश्रा एक नया रोस्टर लेके आए जिसमे उन्होंने हर एक खंडपीठ के लिए कार्यक्षेत्र निर्धारित कर दिए. जिन चार जजों ने उनकी खिलाफत की थी उन्हें उन तमाम संवैधानिक खंडपीठों से हटा दिया गया, जो गंभीर महत्व के संवैधानिक प्रश्नों पर विचार कर रहीं थीं.
मिश्रा ने अन्तत: सुप्रीम कोर्ट तथा बौम्बे हाई कोर्ट में दाखिल तमाम याचिकाओं सहित, लोया केस को भी अपनी अगुवाई में तीन सदस्यीय खंडपीठ के हवाले कर दिया. अप्रैल में इस मामले में जांच की मांग करती इन याचिकाओं को सिरे से ही खारिज कर दिया गया. दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने इसे “विधिविधान के लिहाज से कई मायनों में सरासर गलत कदम” बताया.
लोया फैसले के एक दिन बाद, कांग्रेस समेत सात विपक्षी दलों ने मिश्रा के खिलाफ अनाचार के कई मसलों पर महाभियोग प्रस्ताव लाने की अपनी मंशा जाहिर की. जब इन दलों द्वारा राज्य सभा में महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया तो भाजपा के सभापति एम्. वेंकैय्या नायडू ने इसे अपनी स्वीकृति देने से इनकार कर दिया. उनका कहना था कि “मैंने स्वयं यह जानने के लिए कि इस मामले में आगे कार्यवाही हेतु पर्याप्त, अकाट्य, तथा तर्कसंगत सबूत पेश किए गए हैं या नहीं नोटिस में पेश किए गए साक्ष्यों को परखा है,” उन्होंने कहा, “और पाया कि वास्तव में प्रस्ताव में महाभियोग लायक कुछ भी ठोस प्रमाणिक साक्ष्य नहीं हैं.” विपक्षी दलों ने नायडू के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की.
मिश्रा आजाद भारत में पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं जिन पर महाभियोग लगाने के प्रयास हुए. इसी एक बात और इसके साथ साथ बहुत कुछ और के लिए, उनका नाम सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में एक लम्बे समय तक अलग से चमकता रहेगा.
{दो}
यह सही बात है कि मिश्रा एक भूमिहीन ब्राह्मण परिवार से नहीं आते, लेकिन जिस हद तक यह सही नहीं है वह अचंभित करने वाला है.
1866 के ओडिशा के अकाल के बीस साल बाद, जिसमे करीब दस लाख लोगों की जानें गई, एक ब्राह्मण परिवार अप्सरा देवी और लिंगराज मिश्रा के घर गोद्बारिश मिश्रा का जन्म होता है. मिश्रा परिवार, पुरी के पास बानपुर नामक जगह पर रहता था. यहीं उनकी एकमात्र संतान ने गांव के स्कूल में दाखिला लिया. आगे चलकर उसने दर्शनशास्त्र और अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा हासिल की और अध्यापक बन गए. गोद्बारिश ने असहयोग आन्दोलन में हिस्सा लिया और 1928 में कांग्रेस का ओडिशा अध्याय शुरू किया. वे 1937 में ओडिशा के पहले विधान सभा चुनावों में, बानपुर से विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए. 1941 में वे राज्य के वित्त और शिक्षा मंत्री बने और 1948 में उन्होंने कटक में, राज्य के लिए एक अलग हाई कोर्ट बनाने में अहम भूमिका निभाई. वे सफल लेखक भी थे और उड़िया साहित्य में उनका एक प्रमुख स्थान है. विधान सभा के सदस्य रहते हुए ही, सत्तर साल की उम्र में 1956 में उनका देहांत हुआ. मिश्रा को आज भी पंचसखा के नाम से प्रख्यात उन पांच मित्रों के साथ याद किया जाता है, जो आधुनिक ओडिशा के निर्माता माने जाते हैं.
गोद्बारिश मिश्रा की तीन संताने थीं – रघुनाथ, लोकनाथ और रंगनाथ. सबसे बड़े बेटे रघुनाथ मिश्रा ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया और विधान सभा में दो बार निर्वाचित हुए. लोकनाथ मिश्रा कांग्रेस से टूटी राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए. 1960 से 1978 तक लगातार तीन बार वे राज्य सभा के सदस्य रहे. 1991 में उन्हें असम का गवर्नर बना दिया गया.

रंगनाथ मिश्रा एकमात्र ऐसे शख्स थे जिन्होंने राजनीति से बाहर कदम रखा. उन्होंने वकील बनने का फैसला किया. उन्होंने कटक के रैवेनशॉ कौलेज तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की. 1950 में उन्होंने उसी हाई कोर्ट में, जिसकी नींव उनके पिता ने रखी थी, बतौर वकील अपना नाम दर्ज करवाया. उन्होंने अपने ससुर हरिहर महापात्रा, जो बाद में चलकर पटना हाई कोर्ट के जज भी बने, के साथ काम करते हुए अपनी वकालत की शुरुआत की. महापात्रा के जज बनने के बाद रंगनाथ ने उनका सारा कार्यभार संभाल लिया. उन्होंने 1969 में खुद जज बनने तक वकालत की.
ओडिशा हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद, रंगनाथ सुप्रीम कोर्ट के जज बन गए. 1983 में उन्हें दिल्ली के सफदरजंग रोड पर आवास आवंटन हुआ जो प्रख्यात जिमखाना के ठीक सामने स्थित था. इंदिरा गांधी उनकी पड़ोसी थीं और जो लोग रंगनाथ को करीब से जानते हैं उन्होंने मुझे बताया कि वे गांधी परिवार के प्रति हमदर्दी का भाव रखते थे. जब इंदिरा गांधी की उनके सुरक्षाकर्मियों द्वारा 1984 में गोली मार कर ह्त्या कर दी गई, रंगनाथ उन चुनींदा लोगों में से थे जिन्हें इस बात की सबसे पहले खबर लगी. बाद में उन्होंने सिख विरोधी कत्लेआम के पश्चात गठित जांच आयोग की अध्यक्षता भी की. गांधी की हत्या के बाद शुरू हुए कत्लेआम को अंजाम देने में कई कांग्रेस नेता शामिल थे, लेकिन उनकी अध्यक्षता में बने आयोग ने उन्हें दोषी साबित करने के लिए कुछ नहीं किया.
रंगनाथ मिश्रा सुप्रीम कोर्ट में उस खंडपीठ का हिस्सा थे जिसने भोपाल गैस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड मामले में फैसला दिया था. वे आगे चलकर देश के इक्कीसवें मुख्य न्यायाधीश बने. अवकाश प्राप्त करने के बाद नरसिम्हा राव सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का पहला चेयरमैन नियुक्त किया. 1998 में वे कांग्रेस के टिकट पर राज्य सभा के सदस्य बने.
इसी परिवार में दीपक मिश्रा का जन्म 3 अक्टूबर 1953 को हुआ. वे रघुनाथ मिश्रा और चंचला देवी की दूसरी संतान थे. अपने बड़े भाई सौमत्री के साथ उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पुरी के गोद्बारिश विद्यापीठ नामक स्कूल से की, जिसका नाम उनके दादा के नाम पर रखा गया था. फिर अपने पिता के साथ, दीपक और सौमत्री रंगनाथ मिश्रा के घर में रहने लगे जो कटक के डियर पार्क के ठीक सामने स्थित था.
उन दिनों इस बंगले में हमेशा चहलपहल बनी रहती थी. वकालती गतिविधियां निरंतर चलती रहतीं और प्रांगण में हमेशा व्रह्त परिवार के लोगों की आवाजाही लगी रहती. जो उस घर में लगातार आते जाते रहते थे, वे दीपक को एक ऐसे झेंपू लड़के के रूप में याद करते हैं जिस पर बाकी लड़के खूब धौंस जमाया करते थे और जो अपने में ही मग्न रहता था.
इन्ही आगंतुकों में से एक ने 1972 का एक किस्सा बताया, एक बार जब दीपक कुछ लड़कों के साथ शिकार पर गए. एक हिरन का शिकार करने के बाद उन्होंने उसे जीप में लाद लिया. “हमने दीपक को पीछे बिठा दिया,” जहां मरा हुआ हिरन रखा था, आगंतुक ने ठहाके लगाते हुए मुझे बताया. “वो इतना डर गया था कि उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया.”
शुरू में दीपक की नून में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी और वे एक अध्यापक बनना चाहते थे. उन्होंने अंग्रेजी साहित्य चुना और रैवेनशौ कौलेज में दाखिला ले लिया. ड्रामे में भी उनकी दिलचस्पी थी; उनके भाई सौमत्री बहुत स्नेह से याद करते हुए बताते हैं कि एक बार दीपक ने सेम्युल बेकेट द्वारा रचित वेटिंग फौर गोडोट में लड़के की भूमिका निभाई थी.
हालांकि कौलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई के लिए कटक के मधुसूदन कौलेज में दाखिला ले लिया. मैंने सौमित्री से पूछा कि दीपक का मन क्यों बदल गया. “वे जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को देख रहे थे”, सौमित्री ने बताया, “रंगनाथ मिश्रा का बेटा देवानंद मिश्रा भी वकील था, जिन्हें अपने पिता का चैम्बर विरासत में मिला हुआ था. दीपक ने सोचा कि वे भी उनके नीचे अपनी वकालत शुरू कर सकते हैं. शायद यही वजह रही होगी.”
जब इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल की घोषणा की उस वक्त दीपक कौलेज में थे. उनके सहपाठी ने बताया उस दौरान परीक्षा में बहुत चीटिंग हुई थी. अगर मधुसूदन कौलेज में किसी किस्म की छात्र राजनीति होती भी थी, तो दीपक का उससे कोई वास्ता नहीं था. कानून की अपनी डिग्री उन्होंने 1977 में हासिल की. फिर उन्होंने ओडिशा हाई कोर्ट में बतौर वकील खुद का नाम लिखवा लिया और देवानंद मिश्रा के चैम्बर से वकालत की शुरुआत की. सौमित्री अब भुवनेश्वर में एक होमियोपैथी क्लिनिक चलाते हैं.
उन दिनों देवानंद मिश्रा की “खूब तूती बोलती थी,” परिवार के एक सदस्य ने मुझे बताया. एक अन्य रिश्तेदार ने कहा कि “दीपक के बड़े आदमी बनने के बारे में उस घर में कोई नहीं सोच रहा था.” उन्हें देवानंद के मातहत काम करते हुए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी लेकिन आखिरकार इसका उन्हें फायदा मिला. चैम्बर में हर किस्म के मुवक्किल आते थे. इस वजह से इस नौजवान के कानून को लेकर ज्ञान में बहुत इजाफा हुआ. काम के सिलसिले में अक्सर उनका हाई कोर्ट, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट तथा ट्रिब्यूनल में आना जाना होता था. धीरे धीरे उनकी सर्विस लौ, एडमिनिस्ट्रेटिव लौ, रियल एस्टेट, टैक्स और सिविल मामलों में महारत हो गई.
देवानंद अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए जज नहीं बनना चाहते थे. “उन्होंने सोचा इसमें बहुत ज्यादा काम होगा,” एक रिश्तेदार ने बताया. जब रंगनाथ मिश्रा सुप्रीम कोर्ट में चले गए तो देवानंद उनके साथ दिल्ली आ गए. चैम्बर दीपक की झोली में आया गिरा.

इसी वर्ष अप्रैल में दिल्ली के कौन्स्टीट्यूशन क्लब में बोलते हुए वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि पूर्व जजों के रिश्तेदारों में यह रुझान देखने को मिलता है कि वे खुद भी अंतत: जज बन जाते हैं. जयसिंह ने चुटकी ली, “क्या सच आनुवांशिक रूप से संचारित होता है?” जयसिंह ने अपने सवाल का जवाब तो नहीं दिया, लेकिन यह अक्सर देखा गया है कि चैम्बर्स, लाइब्रेरी, मुवक्किलों की सूची, प्रतिष्ठा – और कई ऐसी चीज़ें – एक पुश्त से दूसरी पुश्त को विरासत में मिलती चली जाती हैं और जज के पद तक पहुंचने का रास्ता बनाती चलती हैं. दीपक मिश्रा को यह विरासत देवानंद से मिली थी.
मिश्रा ने इसी विरासत को छिपाया जब वे खुद को एक भूमिहीन ब्राह्मण बता रहे थे. वे परिवार में अकेले ऐसे शख्स नहीं थे जिसने सरकारी जमीन हथकंडे अपनाकर हासिल की थी. रंगनाथ के बेटे सिबानंद ने भी 1979 में यही किया था, हालांकि उन्होंने सरकार को दी गई अपनी अर्जी में खुद को रघुनाथ का सुपुत्र बताया था.
1979 में, जिस साल उन्होंने जमीन के लिए आवेदन किया, मिश्रा की शादी सुपर्णा मिश्रा, या जैसाकि उसे सब प्यार से बुलाते थे, गोपा से हुई. उनके पिता छतरापुर, ओडिशा में डिस्ट्रिक्ट जज थे.
जैसे जैसे वक्त बीतता गया, अपनी काबलियत पर मिश्रा का आत्मविश्वास भी बढ़ता गया. उन दिनों के उनके एक साथी ने मुझे बताया कि मिश्रा के लिए यह बहुत आम बात थी कि केस पर बहस करते हुए वे जटिल संस्कृत में लंबे लंबे वाक्य उद्धृत किया करते थे. उनके मित्र उन्हें ‘पंडितजी’ कहकर बुलाते थे. एक झेंपू और दब्बू लड़का अब बड़ा हो चुका था और वह सभी को यह बताने से नहीं चूकता था कि वह “नेपोलियन से पूरे एक इंच ज्यादा लंबा है.”
अस्सी के दशक की आखिर तक आते आते, मिश्रा के मातहत उनके कुछ जूनियर्स काम करने लगे थे. पतितपाबन पांडा ने १९८९ में उनका चैम्बर ज्वाइन कर लिया था. पांडा का छात्र राजनीति से लेना देना रहा था, वे राज्य स्तर पर खेल चुके फुटबौल खिलाड़ी थे, और ऐसे परिवार से संबंध रखते थे जो उनके बार ज्वाइन करने पर उन्हें ऐम्बैसडर कार खरीद कर दे सकता था. चूंकि परिवार भुवनेश्वर में रहता था, कटक में कार उनके लिए हाई कोर्ट तक आना जाना आसान बनाती थी. तो पांडा ने कहा, मिश्रा “को पता था कि मिस्टर पांडा पैसों के मामले में मजबूत हैं.”
जब मिश्रा का उन पर ध्यान गया, पांडा भुवेनश्वर में पहले से ही वकालत कर रहे थे. “मैं उनके मातहत काम करने की मंशा से उनके पास नहीं गया था,” उन्होंने मुझे बताया, “मेरी वकालत अच्छी चल रही थी. मेरा एक रूतबा था. मैं उनके काम आ सकता था.” अंतत: वे मिश्रा की जगह हाई कोर्ट में हाजिरी देने लगे. कभी कभी उन्हें भुवनेश्वर और कटक के बीच सप्ताह में दो दो बार चक्कर लगाने पड़ जाते. इसका उन्हें मलाल भी नहीं था. वे खुश थे कि उनकी वकालत अच्छी चल रही है.
पांडा ने याद करते हुए बताया कि एक दिन मिश्रा ने उनसे कहा, “कार में चलना मेरे लिए सही नहीं है.” मिश्रा ने सुझाया कि पांडा को एक स्कूटर खरीद लेना चाहिए और कार उनके घर पर छोड़ देनी चाहिए. पांडा मान गए, हालांकि वे अभी तक कार की किश्त चुका रहे थे. मिश्रा अब उनकी कार में घूमने लगे. यह करीब एक साल तक चलता रहा.
एक दिन पांडा को लगा कि वे कार बेच तो सकते ही थे. उन्होंने वही किया और जो पैसा आया उसे बैंक में जमा करा दिया और “मैं हर महीने उसमे से पांच हजार रुपए अपने खर्चे पानी के लिए निकालने लगा.” मिश्रा उनको उनके काम का कोई मेहनताना नहीं दे रहे थे.
मैंने पांडा से पूछा कि उन्होंने अपनी कार वापिस क्यों नहीं मांग ली. “वे बहुत संभ्रांत किस्म के व्यक्ति थे, लेकिन बहुत चालाक भी,” उन्होंने कहा. वे अंग्रेजी बहुत अच्छी बोलते थे और संस्कृत में रामायण और महाभारत उद्धृत करते थे.” ऐसे में पांडा को समझ नहीं आता था कि उनसे क्या बाते करे.
हर शनिवार जब कटक हाई कोर्ट बंद होता, पांडा भुवनेश्वर कोर्ट में कुछ पैसे कमाने के लिए वकालत किया करते. “ऊपर से सिनेमा की छह टिकटें खरीदने के लिए शनिवार को ही उनका या उनकी पत्नी का फोन आ जाता.” पांडा के पास टिकट खरीदने के पैसे नहीं होते लेकिन फिर भी वे कहीं से जुगाड़ करते. पुलिस में रसूखदार ओहदे पर आसीन अपने चाचा से संपर्क करते जो फिर लोकल थाने से किसी को टिकट लाने भेज देते. मिश्रा जोर डालते कि पांडा बतौर गार्ड उनके साथ रहे. “उन्हे हमेशा सुरक्षा की दरकार रहती थी,” पांडा ने बताया. पिक्चर देखने के बाद अक्सर भुवनेश्वर के होटल ओब्रौय में खाने के लिए जाया जाता. होटल का मालिक मिश्रा का मुवक्किल था तो बिल उनकी फीस में ‘एडजस्ट’ कर लिया जाता.
मिश्रा के बच्चे कटक के एक कान्वेंट स्कूल, सेंट जोसफ, में पढ़ते थे. पांडा कटक के डाइओसीज का अपनी व्यक्तिगत हैसियत से प्रतिनिधित्व करते थे. उन्होंने बताया कि अपने बच्चों का ‘ध्यान’ रखने के लिए, मिश्रा अक्सर उन्हें स्कूल के प्रिंसिपल की चिरौरी करने भेजा करते थे.
मिश्रा की खंडपीठ में तरक्की होने से कुछ समय पहले ही, ओडिशा स्टेट फाइनेन्स कोर्पोरेशन (ओएसएफसी) ने उन्हें एक केस सौंपा था. मिश्रा का चैम्बर ज्वाइन करने के पहले से ही पांडा, ओएसएफसी का केस देख रहे थे, और उस वक्त भी वे केस से जुड़े हुए थे. “जब उनका जज बनना तय हो गया तो एक दिन मैं अपना 40 हजार रुपए का बिल वसूलने ओएसएफसी के दफ्तर गया,” पांडा ने बताया. “वहां मुझे बताया गया कि दीपक मिश्रा पहले ही अपना और मेरा पैसा वसूल कर ले जा चुके हैं.” ओएसएफसी ने पांडा से कहा कि मिश्रा को उनका हिस्सा देना चाहिए. जो उन्होंने कभी नहीं दिया.
मिश्रा के ओडिशा हाई कोर्ट में काम शुरू करने से पहले जब पांडा ने ओएसएफसी के बिल का मसला उनके सामने उठाया, तो उन्हें कहा गया, “तुम्हारे हक़ में अच्छा रहेगा अगर तुम इस मसले का जिक्र बंद कर दो.”
“मैंने राजनीति छोड़ी, अपना सार्वजनिक जीवन त्याग दिया, खेलना छोड़ दिया. उनकी खातिर सब कुछ दाव पर लगा दिया,” पांडा ने कहा. “वह एक अच्छा चैम्बर था, एक चलता फिरता चैम्बर. वहां फाइलें थीं, केस थे. मैं सोचता था जब तक मैं इन सबको नहीं देखता, मैं खुद को वकील नहीं मान सकता था. मेरे पिता रेलवे में काम करते थे. मैं वकीलों के खानदान से नहीं आया था.”
मिश्रा ने पांडा से “यह कहते हुए कि यहां सभी किताबें मौजूद हैं मुझे जर्नल ना खरीदने की हिदायत दी. वे मुझे जता रहे थे कि उनके बाद चैम्बर को मैं ही देखूंगा.” लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. “मुझे उस वक्त चैम्बर बहुत दुखी मन से छोड़ना पड़ा,” पांडा ने कहा. “मुझे कुछ नहीं दिया गया. कोई फाइल नहीं. कोई किताब नहीं. मैं सदमे में था. फिर एक दिन दिल्ली से कोई चैम्बर को हथियाने भी आ धमका.”
पांडा फिर भी मिश्रा के साथ लगे रहे क्योंकि उनका मानना था कि कानूनी पेशे में बिना सरपरस्ती के सफल होना मुमकिन नहीं. पांडा ने मिश्रा से संपर्क बनाए रखना जारी रखा. वे ओडिशा, मध्य प्रदेश, पटना तथा दिल्ली हाई कोर्ट, यहा तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी उनके शपथ ग्रहण समारोहों में मौजूद थे. इस दौरान उन्होंने जब भी मिश्रा से मिलने की कोशिश की, “अधिकतर उनका जवाब होता था कि वे व्यस्त हैं और अगली बार मिलेंगे.” फिर एक दिन ऐसा आया जब उनके लिए पूरी तरह से दरवाजा बंद कर दिया गया. “उन्होंने मुझसे कहा तुम्हे तभी आना चाहिए जब मैं तुम्हे बुलाऊं. उस दिन के बाद मैं उनसे मिलने कभी नहीं गया.”

जब मैंने पांडा से पहली बार साक्षात्कार के लिए संपर्क किया तो वे शुरू में बात करने में अनिच्छुक दिखे. लेकिन जब हम मिले तो एक बार शुरू हो जाने के बाद, वे खुद को रोक नहीं पा रहे थे. साक्षात्कार पूरा होने तक उनका चेहरा वैमनस्य के भाव से जमा हुआ लग रहा था. “वे एक जज हैं”, बातचीत के बीच में उन्होंने कहा, “उनके हिस्से कई चीज़ें आएंगी, ईश्वर देगा उन्हें. वे जज हैं ना, एक भगवान! इसलिए हम चुप्पी लगा लेते हैं. एक दिन उन्हें आरोपित किया जाएगा, उनकी प्रतिष्ठा धूल में मिलेगी.” पांडा ने बताया कि “उनका बहुत शोषण हुआ है,” और उन्हें अब कोई उम्मीद नहीं. “लोगों को पता चलना चाहिए कि आपकी असलियत क्या है, आप कितने भद्र इंसान हैं.”
{तीन}
ओडिशा हाई कोर्ट में मिश्रा की नियुक्ति 1996 में हुई. खंडपीठ में उनकी तरक्की 1993 के सेकंड जज केस में तय की गई कार्यविधि के आधार पर होनी थी. मिश्रा का नाम ओडिशा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा कोर्ट के दो वरिष्ठतम जजों से मशविरे के बाद सुझाया जाना था. लिखित तौर पर तीन जजों को मिश्रा के चाल चलन के बारे में मुख्यमंत्री को भेजना था. फिर उसकी एक प्रति राज्य के गवर्नर, केन्द्रीय कानून मंत्री तथा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पास भी भेजी जानी थी.
मिश्रा के मुत्तालिक जो भी जानकारी सरकार के पास मौजूद थी, कानून मंत्री ने उसे उस रौशनी में जरूर देखा होगा. वहां से उनकी पूरी फाइल सुप्रीम कोर्ट में गई होगी, जहां मुख्य न्यायाधीश ने अपने सबसे वरिष्ठ साथियों तथा ओडिशा हाई कोर्ट का अनुभव रखने वाले जजों के साथ उस पर मशविरा भी जरूर किया होगा. इस प्रक्रिया में अब तक प्राप्त मतों के बाद, फाइल को अपडेट करके कानून मंत्री के पास वापिस भेजा गया होगा, जिन्होंने फिर उसे प्रधानमंत्री तक पहुंचाया होगा. प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को मशविरा दिया होगा और राष्ट्रपति ने उसके बाद ही उनके नियुक्ति पत्र पर अपने दस्तखत किए होंगे.
“संवैधानिक प्रावधानों की इस प्रक्रिया से गुजरने का मकसद मौजूदा लोगों में से सबसे काबिल इंसान को चुनना है,” सेकंड जज केस का फैसला यही कहता है. “इस प्रक्रिया के तहत ना केवल न्यायपालिका बल्कि कार्यपालिका के साथ भी मशविरा किया जाता है. उच्च न्यायपालिका के लिए सबसे काबिल जजों को चुनने का मकसद यह सुनिश्चित करना होता है कि चुना गया प्रत्याशी हर लिहाज से इस जिम्मेवाराना पद के लिए उपयुक्त हो.”
ओडिशा हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों, ओडिशा के मुख्यमंत्री और राज्यपाल, केंद्र के कानून मंत्री और प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति, किसी का भी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के उस आदेश की तरफ ध्यान नहीं गया जिसमे उन्होंने मिश्रा को धोखाधड़ी के आरोप में दोषी पाया था. इसका मतलब सेकंड जज केस के बाद बनाए गए प्रावधानों का मकसद पूरी तरह से विफल रहा.
नियुक्ति के समय मिश्रा की उम्र 42 वर्ष थी. वरिष्ठता का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि जो कोई भी इस उम्र में उच्च न्यायपालिका का हिस्सा बनता है उसके एक या एक से ज्यादा हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनना लगभग तयशुदा है और यह भी कि वह एक दिन सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचेगा और बहुत मुमकिन है कि एक रोज वह देश का मुख्य न्यायाधीश भी बन जाए.
जहां वे पहली बार चुन कर जाते हैं उस हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की आमतौर पर लंबी अवधि होती है. रंगनाथ मिश्रा ने ओडिशा हाई कोर्ट में चार साल के लिए मुख्य न्यायाधीश बनने से पहले, एक दशक से भी ज्यादा वक्त बिताया. दीपक मिश्रा का उनके द्वारा खंडपीठ का कार्यभार संभालने के एक साल के अंदर ही जबलपुर के मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में तबादला हो गया था. “ऐसा आमूमन नहीं होता,” सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ वकील ने मुझे बताया. “जितना मुझे पता है, किसी जमानत की अर्जी को लेकर उधम मचा था.”
ओडिशा हाई कोर्ट के कई वरिष्ठ वकीलों द्वारा मिश्रा के तबादले को लेकर अनभिज्ञता जाहिर करने के बाद मैंने पतितपाबन पांडा से इस बारे में पूछा.
“ग्रीष्म अवकाश से पहले कोर्ट का वह आखिरी दिन था, कोर्ट के समक्ष जमानत संबंधी बहुत सी अर्जियां विचाराधीन थीं,” पांडा ने कहा. “वकील चिल्लमपों मचाए हुए थे. अभी खंडपीठ के सामने इन अर्जियों पर सुनवाई जारी ही थी कि मुख्य न्यायाधीश समय से पहले निकल गए.” कुछ वकीलों ने कोर्ट में उस वक्त मौजूद वरिष्ठतम जज की तरफ रुख किया, और उन्होंने कई वकीलों को मिश्रा के पास जाने का निर्देश दिया, जो किसी एक खंडपीठ की अगुवाई कर रहे थे. “बाद में एडवोकेट जनरल ने शिकायत कर दी कि मिश्रा ने उन मामलों में भी आदेश जारी कर दिए जो ना तो उनकी खंडपीठ के सामने सूची में थे और ना ही वरिष्ठतम जज द्वारा उस दिन उनको सौंपे गए थे. उन्होंने अपनी शिकायत हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी भेज दी.”
जब मैंने यह कहानी कटक के कुछ वरिष्ठ वकीलों को सुनाई तो उनमें से किसी ने भी इसे स्पष्ट तौर पर खारिज नहीं किया. उन्होंने बताया कि मुमकिन है कि मिश्रा, ओडिशा हाई कोर्ट में जातिगत राजनीति का शिकार बने हों. “खंडपीठ के जजों के बीच दीपक के लिए बहुतों में इर्ष्या का भाव भी था,” एक पूर्व जज ने मुझे बताया. “आपको समझना होगा कि ओडिशा हाई कोर्ट के बनने के बाद से ही ब्राहमणों और कर्णों या कायस्थों के बीच संघर्ष चल रहा है.” उस पूर्व जज के अनुसार खंडपीठ के कायस्थ जज, रंगनाथ मिश्रा की भी मुखालफत करते थे और उन्होंने दीपक मिश्रा को भी निकाल बाहर करने के लिए ऐड़ीचोटी का जोर लगा दिया.
मिश्रा के एक रिश्तेदार ने बताया कि तबादले की पेशकश उन्होने खुद की थी. “मुझे लगता है वे रंगानाथ के प्रभाव से खुद को मुक्त करना चाहते थे,” उन्होंने बताया. “आपको समझना होगा कि रंगनाथ के घर में दीपक और सोमित्री के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता था. जब परिवार के लोग खाने की मेज पर बैठकर खाना खा रहे होते थे, उन्हें जमीन पर खाना परोसा जाता था. लेकिन यह भी सच है कि बिना रंगनाथ के वे कहीं पहुंच भी नहीं पाते. जज बनने के बाद वे खुद को देवानंद और रंगनाथ से दूर ले जा सकने की स्थिति में आ गए और उन्होंने वही किया भी.”
जब मिश्रा अपनी पत्नी गोपा और अपने बच्चों के साथ जबलपुर आ गए तो उन्होंने कटक का अपना पूरा जीवन वहीँ पीछे छोड़ दिया. तब से वे ना तो अपने भाई बहनों, ना ही किसी अन्य रिश्तेदार से मिले हैं. उन्हें बधाई देने, उनसे बात करने, उन्हें पारिवारिक आयोजनों में बुलाने के लिए हजारों हजार फोन किए गए लेकिन उन्होंने किसी फोन का कभी भी जवाब नहीं दिया. बानपुर में उनके पुश्तैनी घर पर केयरटेकर को उनके आने पर उनका स्वागत करने की ताकीद दी गई थी, लेकिन वे कभी नहीं पधारे.
सुप्रीम कोर्ट में मिश्रा के जाने के तुरंत बाद जब रंगनाथ मिश्रा का देहांत हुआ तो वे कटक में उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने नहीं गए. छोटे शहरों में इस तरह की बातें ध्यान आकर्षित करती हैं. मैंने ओडिशा में जिस किसी से भी बात की उसने मुझसे इस घटना का जिक्र किया.
2016 में, रंगनाथ की पत्नी सुमित्रा के गुजरने के एक दिन बाद उनके डियर पार्क वाले घर में आने जाने वाले रिश्तेदारों ने देखा कि पास ही ट्रैफिक जाम लगा हुआ था. आधा किलोमीटर दूर अपने घर जाने के लिए जेड प्लस सुरक्षा के साथ दीपक मिश्रा का काफिला गुज़र रहा था. रंगनाथ के घर पर मौजूद अधिकतर रिश्तेदारों ने इस काफिले को गुजरते देखा. उनमें आपस में खुसरफुसर भी हुई कि क्या किसी को जाकर दीपक को आने के लिए कहना चाहिए, लेकिन कोई भी जाने का साहस नहीं जुटा पाया.
2011 में सुप्रीम कोर्ट में आने से पहले और दिल्ली हाई कोर्ट से उनके जाने पर आयोजित विदाई समारोह में मिश्रा ने अपने जीवन में अपनी पत्नी की भूमिका पर रौशनी डाली, “मेरी ताकत का स्तम्भ और मेरी तरक्की का एंकर मेरी पत्नी गोपा मिश्रा जी हैं,” उन्होंने कहा. “कहा जाता है कि हर सफल व्यक्ति के पीछे एक औरत का हाथ होता है. मेरे मामले में इस कहावत में थोड़े सुधार की जरूरत है: एक गुणवती, मजबूत और साहसी औरत अकेले ही किसी व्यक्ति को सफल बना सकती है, क्योंकि वह एक तरह से सामने खड़े होकर, ना कि पीछे से, रास्ता दिखाती है.”
अगस्त 2016 में अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की कथित तौर पर आत्महत्या करने के कारण मौत हो गई. कांग्रेस पार्टी छोड़ कर आए पुल ने भाजपा के समर्थन से कांग्रेस से बगावत करने वाले अन्य विधायकों के सहयोग से 2016 की शुरुआत में अपनी सरकार गठित की. उनकी सरकार जुलाई में गिर गई, जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि राज्यपाल, जो भाजपा शासित केंद्र सरकार के प्रति जवाबदेह थे, ने असंवैधानिक रूप से कांग्रेस शासित सरकार को गिराया था. अपने 60 पृष्ठों के खत में बताया कि अनुकूल फैसले के बदले में उनके पास पैसा मांगने दो व्यक्ति आये थे: बिरिंदर सिंह खेहर, जो 49 करोड़ रुपए चाहता था, और आदित्य मिश्रा, जो 37 करोड़ रुपए की मांग कर रहा था. पुल ने यह खत कथित तौर पर आत्महत्या करने से पहले लिखा था. खत में बिरिंदर की पहचान तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर के पुत्र के रूप में पहचान की गई है और आदित्य मिश्रा को दीपक मिश्रा का भाई बताया गया है. जिस खंडपीठ ने इस मामले को सुना उसकी अगुवाई जे.एस. खेहर कर रहे थे और जिसमे मिश्रा भी शामिल थे.
दीपक मिश्रा का आदित्य नाम से कोई भाई नहीं है. “असल में कलिखो पुल ने गलत शिनाख्त की थी,” मिश्रा के एक रिश्तेदार ने मुझे बताया. “उन्होंने आदित्य मिश्रा नामक व्यक्ति का नाम लिया है जो उनके अनुसार मिश्रा का भाई है. वह आदित्य मिश्रा नहीं बल्कि आदित्य महापात्रा है, जो दीपक मिश्रा का साला है, उनकी पति का भाई.”
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में मिश्रा ने एक दशक से भी ज्यादा वक्त बिताया. बतौर जज मिश्रा का व्यवहार एकदम उचित था. भले ही वे थोड़ा सनकी थे, एक वकील ने मुझे बताया. शानदार दलीलें देने वाला एक वकील, अब एक बातूनी जज बन चुका था. उसी वरिष्ठ वकील ने मुझे बताया कि मिश्रा बहस के बीच कभी कभी संस्कृत में चालू हो जाया करते थे और वकीलों को अवाक कर दिया करते थे. मिश्रा द्वारा सुनाए गए फैसलों के शुरूआती पैराग्राफ तो अभी हाल में आलोचना का शिकार होने शुरू हुए हैं, लेकिन उनके शब्दाडम्बर रचने की कला में ली जाने वाली छूट के किस्से तो बहुत दूर तक जाते हैं.
शुरूआती सालों से ही उनको अपने फैसलों में केस के तथ्यों पर वापिस आने से पहले किसी मशहूर लेखक के उद्धरण के जरिएअपनी दार्शनिक समझ का इजहार करने की आदत थी. राघवेन्द्र प्रसाद बनाम यूनियन बैंक औफ इंडिया के केस के फैसले की शुरुआत वे एच.जी. वेल्स के उद्धरण से करते हैं. कलंग बनाम मध्य प्रदेश सरकार केस में वे जौन स्टेनबेक के उद्धरण से शुरुआत करते हैं, तो मांगीलाल बनाम मध्य प्रदेश सरकार केस में उन्होंने लिखा,
जैसे जैसे समय बीतता गया ये शुरुआती प्रलाप और लंबे होते गए. जहां वह अकाट्य कह सकते थे वहां वे निर्विवाद कहते. लक्ष्मीनारायण बनाम शिवलाल गूजर, 2002 के केस में, मिश्रा लिखते हैं, “विवाह को एक ऐसी संस्था माना जाता है जो एक सभ्य आदमी को यौन अराजकता से बचाती है. ऐसी घटनाएं देखने को नहीं मिलती जहां एक शादीशुदा आदमी यौन आकांक्षाओं का गुलाम हो जाता हो और यौन इच्छा को पूरी करने के लिए खुद को अकल्पनीय स्तर तक गिरा लेता हो. यह मामला उस अपीलकर्ता की नीच इच्छा को सजीव ढंग से पेश करता जो अपने आवेग पर काबू रख पाने में असफल हो कर 9 साल की बच्ची के साथ बलात्कार करता है.”

मिश्रा ने लिखा, ‘कानून’ शब्द को लागू करना और उसकी शरण में इसलिए जाया जाता है ताकि सभ्यता की विशेषताओं को चमकाने वाले गुणों के आगाज़ का विस्मयजनक सहजता के साथ ऐलान किया जा सके और ताकि समाज को आगे ले जाने वाले उपयुक्त कानूनी प्रावधानों के क्रमिक विकास के लिए समाज को तैयार किया जा सके. कभी कानून की कल्पना जस नैचुरेल या ‘नैसर्गिक कानून’, कभी जस सिविल या ‘परंपरागत कानून’ के रूप में की जाती है; तो कुछ अन्य अवसरों पर जस ओनोरेरियम या … से उसकी तुलना की जाती है. लेकिन जस या ‘कानून’ शब्द हमेशा महत्वपूर्ण रहता है. जस को जौस के आगे कभी नहीं दबना चाहिए. इसलिए कहा जाता है कि कानून सिर्फ शब्दों का अध्ययन नहीं, बल्कि प्रकृति के अन्दर की प्रकृति और उसके बाहर के अध्ययन में गहराई तक उतरने का नाम है, जिन्हें ऐसे शब्दों के जरिये, जो जीवन की गतिशीलता बनाए रखते हैं, प्रक्षेपित किया जाता है. इसी कारण शायद विलियम शेक्सपियर ने कहा था, “कानून अभी मरा नहीं, बल्कि सो रहा है.”
2004 में मिश्रा ने अंग्रेजी के ‘कैवल’ शब्द का इस्तेमाल एक फैसले के दौरान पहली बार किया. यह एक संज्ञा थी जिसको ‘मामूली आपत्ति’ या एक क्रिया के रूप में प्रयोग में लाया जाता है. 2005 में, उन्होंने इसी शब्द का प्रयोग अपने सात फैसलों में किया. 2006 में, प्रदीप कुमार तिवारी बनाम मध्य प्रदेश सरकार केस की सुनवाई के दौरान, मिश्रा ने निष्कर्ष निकाला कि यह मामला उनके कोर्ट के अधिकारक्षेत्र से बाहर का था, इसलिए उन्होंने लिखा, “मामूली आपत्ति को खुला छोड़ दिया गया है.” सुप्रीम कोर्ट के समक्ष शिकायत को गैरजरूरी करार देते हुए उन्होंने उसे “महत्वहीन मामूली आपत्ति’ कहा. जजों के बीच इस तरह की भाषाई अनुशासनहीनता कोई नई बात नहीं है, ना ही यह मिश्रा को अनूठा बनाती है. 1959 में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.आर. दास ने रिटायर होते समय अपने साथी जज एम. हिदायतुल्लाह का मजाक उड़ाते हुए कहा था, “उन्होंने हमें तीन गोस्पेल दिए हैं. स्त्रोउद का न्याय संबंधी शब्दकोश, विल्सन का शब्द संग्रह और किसी अन्य लेखक, जिसका नाम मुझे अभी ध्यान नहीं आ रहा, का शब्दों और मुहावरों का कोश. मुझे नहीं पता वे अपना चौथा गोस्पेल कब निकालेंगे.” वी.आर. कृष्णाअय्यर, जो 1973 से 1980 तक सुप्रीम कोर्ट में थे, की भी उनके साथी जजों द्वारा उनकी भाषा के लिए आलोचना हुई है. मनोहर नाथूराव समर्थ बनाम मरोटराव तथा अन्य के केस में पहली पंक्ति ही उनके अंदाज से मेल खाती है, जिससे मिश्रा के अपने अंदाज का आभास मिलता है.
कानूनी शब्द विन्यास के पेचीदे मसले, भाषाई अस्पष्टता से घिरे और संभावनाओं का विस्तार लिए हुए होते हैं; एक ऐसा कांटेदार प्रावधान, जिसे अगर शाब्दिक रूप से समझाया जाए तो बेहूदगी की तरफ ले जाता है और अगर उदारता से उसका अर्थ निकाला जाए तो समझदारी की तरफ. कोर्ट में दोहरी अपील दायर की गई जिसमे ‘जीवन बीमा निगम’ के एक कर्मचारी की पात्रता को उसके प्रतिद्वंद्वी ने चुनौती देकर शहर के निगम चुनाव में वापिस भेज दिया.
न्यायविद एच.एम. सीरवाई ने अपनी किताब भारत में संवैधानिक कानून में, अय्यर के अंदाज को उद्धृत करते हुए यह दर्शाने का प्रयास किया है कि जजों को किस तरह की भाषा से बचना चाहिए. अय्यर के एक फैसले की विवेचना करते हुए सीरवाई ने चेताया, “जिस अंदाज में यह फैसला लिखा गया है उससे इसका निष्कर्ष निकाल पाना या संक्षिप्त विवरण देना मुश्किल हो जाता है,” उन्होंने लिखा. “असल में उनकी भाषा के अंदाज ने इस केस को समझने और उसकी व्याख्या करने के आगे दिक्कतें खड़ी कर दी हैं.” सीरवाई ने जजों को “दो अलग और परस्पर विरोधी कार्यों – जज और गवाह – के बीच की सीमाएं ना लांघने के लिए भी चेताया.”
दिल्ली हाई कोर्ट से मिश्रा की विदाई समारोह के दौरान एक साथी जज ने उन्हें “एक दार्शनिक”, एक “महान कवि और लेखक”, “इंसानी फितरत की जानकारी रखने वाला”, जिसकी “विद्वता महान ज्ञान और समझदारी तथा सोच विचार पर टिकी थी बताया.
{चार}
सुप्रीम कोर्ट में मिश्रा का कार्यकाल 10 अक्तूबर 2011 को प्रारम्भ हुआ. सेकंड जज केस द्वारा बनाए गए मानदंडों के अनुसार नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया दोहराई गई. फिर से एक बार डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के आदेश को अनदेखा किया गया. मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट, या किसी भी हाई कोर्ट को ज्वाइन करते वक्त अपनी संपत्ति के खुलासे के फौर्म में, धोखाधड़ी से हथियाई जमीन का जिक्र नहीं किया था.
जब से मिश्रा सुप्रीम कोर्ट आए हैं, उनके फैसलों पर वकीलों, न्यायविदों और मीडिया की पैनी नजर रही है. वकील और कानूनी विश्लेषक गौतम भाटिया ने नियमित रूप से मिश्रा के फैसलों की अपने प्रचलित ब्लौग में चीड़फाड़ की है. इनसे जो कुछ तस्वीरें उभर कर आती हैं वे उनके गद्य से ज्यादा रुचिकर नहीं है.
2014 में मिश्रा की अगुवाई में दो जजों की खंडपीठ ने ‘सिने कौस्टयूम मेक अप आर्टिस्ट और हेयर ड्रेसर ऐसोसिएशन के उस उप नियम को खारिज कर दिया जो महिलाओं की सदस्यता पर पाबंदी लगाता था. मिश्रा ने यह फैसला लिखा था. उन्होंने तर्क दिया चूंकि ऐसोसिएशन एक ट्रेड यूनियन है इसलिए वह ट्रेड यूनियन कानून, 1926 के दायरे में आती है. कानून का सेक्शन 21 कहता है कि कोई भी व्यक्ति जो 15 वर्ष की उम्र का हो चुका हो, वह पंजीकृत ट्रेड यूनियन की सदस्यता प्राप्त कर सकता है, उक्त ट्रेड यूनियन के नियमों के विपरीत और बावजूद. मिश्रा ने निष्कर्ष निकाला, “बताए गए प्रावधान यह स्पष्ट करते हैं कि सेक्शन 21अ” – जो निश्चित अयोग्यताएं परिभाषित करता है “केवल उम्र और कुछ अन्य अयोग्यताओं के बारे में बात करता है. ऊपर बताए गए कानूनी प्रावधान वाजिब तौर पर पुरुष और महिला में भेद नहीं करते.”
जबकि फैसले का व्यापक तौर पर स्वागत किया गया, भाटिया ने मिश्रा द्वारा दिए गए तर्कों में खामी निकाली. मिश्रा ने सेक्शन 21 के उस हिस्से को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया था जिसमे यह साफ लिखा था कि सदस्यता, उम्र की कसौटी पर खरी उतरने के बाद भी, “ट्रेड यूनियन के नियमों के अधीन रहेगी.” भाटिया ने लिखा “कानूनी व्याख्या के मामले में बेहूदगी के अलावा, फैसले में दिया गया निष्कर्ष भी हास्यास्पद है. क्योंकि कोर्ट की कानूनी व्याख्या यह है कि कोई भी व्यक्ति जिसकी उम्र 15 वर्ष हो चुकी है उसे किसी भी ऐसी ट्रेड यूनियन, जिसका पंजीकरण ट्रेड यूनियन कानून के तहत हुआ हो, का सदस्य बनने का अधिकार है.” फैसले में महिला अधिकार आंदोलनों और अंर्तराष्ट्रीय घोषणाओं का खुलकर जिक्र किया गया है, लेकिन “उलझे हुए उन कानूनी प्रश्नों पर विचार करने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया गया, जो जजों के सामने पेश किए गए थे. नतीजतन हमें एक शानदार फैसला तो मिलता है, लेकिन उसके पीछे की तर्कप्रणाली नदारद है. यह एक कमाल की हेडलाइन तो देता है लेकिन एक बुरे फैसले की कीमत पर.
यह कोई अकेला उदाहरण नहीं था. 2015 में मिश्रा ने देविदास रामचंद्र तुल्झापुरकर बनाम महारष्ट्र सरकार के केस में भी एक फैसला लिखा था. केस का लेनादेना एक कविता गांधी माला भेटला या मैं गांधी से मिला से था, जो 1994 में एक निजी तौर पर प्रसारित पत्रिका में छपी थी. 2010 में एक शिकायतकर्ता ने कोर्ट में शिकायत दर्ज की कि यह भारतीय दंड संहिता की धारा 153 अ एवं 153 ब का उल्लंघन करती है, जो दो वर्गों के बीच वैमनस्य फैलाने को गैरकानूनी ठहराती हैं, और साथ साथ धारा 292, जो अश्लीलता से संबंधित है, का भी उल्लंघन करती है. निचली अदालतों ने धारा 153 अ एवं 153 ब को तो निरस्त कर दिया लेकिन अश्लीलता का आरोप चस्पा रहा.
फैसले के अनुसार जो सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने था वह कुछ यूं था: “क्या किसी को लेख या कविता में, पोएटिक लाइसेंस प्राप्त अवधारणाओं तथा बोध और अभिव्यक्ति की आजादी को ध्यान में रखते हुए, किसी सम्मानित ऐतिहासिक शख्सियत को प्रतीक बनाकर कुछ भी कहने का अधिकार है?” अपने फैसले के पहले चार पैराग्राफ में मिश्रा ने शेक्सपियर, कीट्स, बायरन, शैली, वर्ड्सवर्थ, एलेग्जेंडर पोप, ड्राईडेन, एजरा पाउंड, टी.एस. ईलियट, पाब्लो नेरुदा, वाल्मीकि, भरत, दंदिन, वामन और कुंतका का नाम लेते हुए अंत में कहा, “लिखने की आजादी पर सवाल नहीं है. हो भी नहीं सकता. और यह हम किसी अंतर्विरोध के डर के बिना कह सकते हैं.”
इस फैसले ने अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को लेकर उन मामलों में, जहां “सम्मानित ऐतिहासिक शख्सियतों” के बारे में भद्दी भाषा का इस्तेमाल किया गया था, अपवादों का एक पूरा पुलिन्दा खोल दिया. मिश्रा ने अपने फैसले में “सम्मानित ऐतिहासिक शख्सियतों” की सूची नहीं दी थी क्योंकि उन्हें लगा, “यह यहां मुद्दा नहीं है.” मिश्रा के फैसले ने जब तक इसको इजाद नहीं किया था यह मुद्दा था भी नहीं.
2014 में अशलीलता को लेकर एक मामले को सुप्रीम कोर्ट ने तथाकथित रोथ टेस्ट की कसौटी पर परखा, जिसे अमरीका में 1957 के एक केस में परिभाषित किया गया था, यह कहता है:
अश्लीलता के मानदंड को तय करने के लिए उस वस्तु की प्रमुख थीम को समग्रता में लेते हुए यह देखना होगा कि वह एक औसत इंसान में कामुकता जगाती है या नहीं और ऐसा करते हुए संविधान में कमजोरियों के आरोपों तथा समकालीन सामुदायिक मानदंडों को भी ध्यान में रखना होगा.
मिश्रा ने अपने फैसले में लिखा, अश्लीलता के पहलू पर गौर करते हुए इस कोर्ट ने यह टेस्ट तैयार किया है. कोर्ट द्वारा तैयार परीक्षा जो आज की तारीख में प्रसांगिक है वह है “समकालीन सामुदायिक मानदंड परीक्षा.”
जैसा कि मेक अप आर्टिस्ट वाले केस में ट्रेड यूनियन कानून के एक वाक्य के एक निश्चित हिस्से को ही इस्तेमाल में लाया गया था, मिश्रा ने फिर एक बार रोथ टेस्ट का चुनींदा तरीके से गलत इस्तेमाल किया. भाटिया ने लिखा, “जजों को इसकी अनुमति नहीं है कि वे अपनी मर्जी से कहीं से भी किसी भी हिस्से को उठाकर उसका इस्तेमाल कर अपने निष्कर्ष निकाल लें. कोई भी टेस्ट न्यायिक प्रक्रिया में विकसित होता है और एक धीमी प्रक्रिया से होते हुए एक मिसाल कायम करता है.”
2012 में मिश्रा ने विश्वनाथ अग्रवाल बनाम सरला विश्वनाथ अग्रवाल में अपना फैसला लिखा. यह एक वैवाहिक विवाद था जिसमे निचली अदालत ने एक पति की अपनी पत्नी से तलाक की अर्जी नामंजूर कर दी थी. मिश्रा के फैसले ने, जिसमे तलाक मंजूर कर लिया गया, वैवाहिक मामलों में मानसिक प्रताड़ना को परिभाषित किया. उन्होंने नोट किया अपने पति को परेशान करने के लिए, “पत्नी इस्त्री किए कपड़ों की इस्त्री खराब कर देती थी, मोटरसाइकिल की चाबियां छुपा देती थी और गेट में ताला लगा देती थी” और यह कि “इस तरह की घटनाएं बहुत समय से हो रहीं थीं.” यह काफी था “इस बात को समझने के लिए कि इससे पति कितना शर्मिंदा और परेशान होता होगा. उसके द्वारा महसूस की जाने वाली निराशा ऐसी है जैसे साफ आसमान में चांद को देखने की कल्पना करना.”
2017 में सुब्रमनियम स्वामी बनाम भारत सरकार के केस के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के सामने आपराधिक मानहानि के कानून को चुनौती के लिए ढेरों याचिकाएं पेश की गईं. मिश्रा ने ही इसका फैसला लिखा जो जल्दी ही उनके अंदाज़ को दर्शाने के लिए सबसे अधिक उद्धृत किया जाने वाला फैसला बन गया.

दो जजों की खंडपीठ की अगुवाई कर रहे मिश्रा ने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ फैसला सुनाया, यह कहते हुए कि “बोलने की आजादी के नाम पर किसी की साख पर दाग लगाने की इजाजत नहीं दी जा सकती क्योंकि बोलने की आजादी निरपेक्ष नहीं है.” फैसले में कहा गया कि मानहानि एक व्यक्तिगत गलती है, फिर उन्होंने व्यक्तिगत और सामाजिक गलतियों के बीच फर्क को पूरी तरह से मिटाते हुए कहा, “व्यक्ति ही समूह बनाते हैं.”
“व्यक्तिगत गलती का अपराधीकरण करना असंगत है इसलिए बोलने की आजादी पर बंधन अनुचित है. इस प्रमुख प्रश्न पर कोर्ट ने विचार ही नहीं किया,” भाटिया ने लिखा. उन्होंने आगे लिखा कि इस फैसले की विवेचना करना मुश्किल है, सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि अहम् बहस के मुद्दों पर इसमें वैचारिक असंगतियां और चीत्कार करती हुई खामोशी है बल्कि इसकी भाषा के कारण भी. क्या जजों का दायित्व नहीं कि वे सरल भाषा में लिखें, मुद्दे की बात करें और अपने निष्कर्षों के लिए तर्क दें? बदकिस्मती से कानून और संविधान की पड़ताल कोर्ट जिस अनुशासनहीनता से यहां करता है वही अनुशासनहीनता, भाषा के इस्तेमाल में भी देखी जा सकती है.
याकूब मेमन का मामला जब तक मिश्रा की खंडपीठ के सामने आता वह कपटपूर्ण इतिहास से गुज़र चुका था. 1993 के बम्बई बम धमाके मामले में मेमन की भूमिका के लिए 2007 में ट्रायल कोर्ट फांसी की सजा सुना चुका था. जुलाई 2015 में जब फांसी का दिन नजदीक आया तो मेमन ने महाराष्ट्र के गवर्नर को फांसी की सजा माफ करने के लिए एक अर्जी लिखी और साथ ही सुप्रीम कोर्ट में फांसी पर तब तक रोक लगाने के लिए याचिका दायर की जब तक उसकी माफ़ी की अर्जी पर फैसला नहीं ले लिया जाता. उससे पहले राष्ट्रपति ने उसकी तरफ से की गई माफी की दरख्वास्त को ठुकरा दिया था. सुप्रीम कोर्ट भी माफ़ी की याचिका पर पुनर्विचार करने तथा क्यूरेटिव पिटीशन को खारिज कर चुका था.
नई याचिका पर सुनवाई कुरियन जोसफ और अनिल दवे की खंडपीठ ने की. सुनवाई के दौरान जोसफ का ध्यान इस बात की तरफ गया कि जिस खंडपीठ ने मेमन की क्यूरेटिव पिटीशन खारिज की थी उसे कोर्ट के नियमों के अनुसार गठित नहीं किया गया था. नियम कहता है कि क्यूरेटिव पिटीशन को तीन वरिष्ठतम जजों द्वारा सुना जाएगा और उनके साथ दो वे जज भी होंगे जिन्होंने शुरू से केस की सुनवाई की थी. मेमन के मामले में, याचिका को सिर्फ तीन वरिष्ठतम जजों ने सुना. दवे के लिए यह तथ्य मायने नहीं रखता था. उन्होंने एक वक्त मेमन के वकील को कहा भी, “मुझे उम्मीद है तुम यह भलीभांति जानते हो कि तुम किसे बचाने की कोशिश कर रहे हो.”
खंडपीठ ने परस्पर विरोधी आदेश पारित कर दिया. जोसफ ने कहा एक निष्पक्ष सुनवाई, मेमन का संवैधानिक अधिकार है. मुख्य न्यायाधीश एच.एल. दत्तु ने मामले की सुनवाई के लिए तीन जजों की खंडपीठ नियुक्त कर दी. मिश्रा, पी.सी. पंत और अमिताभ रौय के सामने, सुनवाई ने 29 जुलाई 2015 का पूरा दिन ले लिया. अगली सुबह मेमन की फांसी का दिन मुकर्रर था.
मेमन की पैरवी कर रहे एक वरिष्ठ वकील ने खंडपीठ से कहा कि क्यूरेटिव पिटीशन को खारिज करने में नियमों को ताक पर रखा गया था, लेकिन मिश्रा ने उनको यह कहकर खारिज कर दिया कि यह विसंगति महज एक तकनीकी मसला भर है. वकील ने कोर्ट का ध्यान इस बात की तरफ भी दिलाया कि मेमन की मौत के फरमान पर दस्तखत उस वक्त किए गए जब सुप्रीम कोर्ट में उसकी क्यूरेटिव पिटीशन विचाराधीन थी; और, चूंकि मेमन की माफी की याचिका महाराष्ट्र गवर्नर के समक्ष अभी विचाराधीन थी इसलिए इस मौत के फरमान की कोई कीमत नहीं रह जाती. एक अन्य वरिष्ठ वकील ने कहा कि माफी की याचिका को समुचित समय देना अनुकंपा नहीं बल्कि संवैधानिक अधिकार का मसला है. तीसरे वरिष्ठ वकील ने शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत सरकार मामले का हवाला दिया, जिसमे सुप्रीम कोर्ट ने “माफी की याचिका को प्राप्त करने और उसके खारिज किए जाने तथा फांसी का दिन मुकर्रर किए जाने के बीच, न्यूनतम 14 दिन का समय दिया जाना तय किया था.”
अटौर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने बहस के इन तमाम मुद्दों को खारिज करते हुए दलील दी कि असल में यह मेमन है जिसने कार्यविधि संबंधी दिशा निर्देशों मजाक बना कर रखा हुआ है. “याकूब मेमन आखिर कितनी माफी याचिकाएं दायर करेगा?” उन्होंने पूछा. क्यूरेटिव पिटीशन को लेकर रोहतगी ने दलील दी कि “अगर इस पर तीन तीन वरिष्ठतम जज विचार कर चुके हैं, जैसा कि इस मामले में मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम जज, तो उनका आदेश अमान्य करार नहीं दिया जा सकता.”
मिश्रा ने रोहतगी से सहमति जताते हुए कहा कि क्यूरेटिव पिटीशन की वैधता खत्म नहीं होती और यह भी कहा कि “खंडपीठ के गठन में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं किया गया था.” नियत 14 दिन के समय के संबंध में, फैसले ने रोहतगी से सहमति जताते हुए कहा कि इस दिन की गिनती तब से मानी जानी चाहिए जब राष्ट्रपति ने माफ़ी की याचिका को अप्रैल 2014 में खारिज किया था.
महाराष्ट्र गवर्नर ने मेमन की माफी याचिका को उसी दिन शाम को खारिज कर दिया. राष्ट्रपति को दी गई एक अन्य माफी याचिका भी खारिज हो गई. मध्य रात्रि के बाद वकीलों का एक समूह, मुख्य न्यायाधीश के बंगले पर गया और उन्हें इस बात के लिए मनवाने में सफल रहा कि मेमन के मामले को एक बार और सुना जाना चाहिए क्योंकि उसे याचिका के रद्द होने और फांसी पर चढ़ाए जाने के बीच 14 दिन की मियाद देने से वंचित रखा गया है.
सुनवाई का समय सुबह तीन बजे रखा गया, मेमन की फांसी से लगभग पांच घंटे पहले. मेमन के वकीलों ने साफ किया कि वे उसकी फांसी को चुनौती नहीं दे रहे हैं. उनका मकसद सिर्फ इतना भर है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत सरकार मामले में तय किया गया 14 दिन का समय उसे दिया जाए.
फैसला सुबह पांच बजे सुनाया गया और मेमन को 14 दिन की मौहलत नहीं दी गई. उसे दो घंटे बाद नागपुर जेल में फांसी पर लटका दिया गया.
याकूब अब्दुल रजाक मेमन बनाम महाराष्ट्र सरकार का अंतिम फैसला कुछ इस तरह शुरू होता है, “कल पूरे दिन की सुनवाई के बाद जिस मुद्दे का अंत शाम को 4.15 बजे के करीब होना मान लिया गया था, उस मुद्दे ने दस घंटे बाद, 30.07.2015 को सुबह 3.15 बजे, मानो किसी अमरपक्षी फीनिक्स की भांति फिर से एक बार पाताल की गहराइयों से उड़ान भरी, संभवतः इस उम्मीद में कि उसे जीने का एक और मौका मिल जाएगा.”
वकील और टीकाकार ए.जी. नूरानी ने कोर्ट के रवैये पर टिपण्णी करते हुए लिखा, “इतना स्पष्ट कटाक्ष दुखद स्थिति को बयान करता है.” उन्होंने यह भी लिखा, “आसमान नहीं फट पड़ता अगर 30 जुलाई की तारीख 14 दिनों के लिए बढ़ा दी जाती. इस तरह की जल्दबाजी की कोई मिसाल नहीं मिलती. कमियां साफ झलकती हैं.”
संवैधानिक कानून के विद्वान् उपेन्द्र बख्शी से जब मैंने इसका जिक्र किया तो उन्होंने जवाब दिया, “यह बहुत बुरा, बहुत बुरा फैसला था.” वे आगे इस पर कुछ नहीं कहना चाहते थे.
फैसले के एक हफ्ते बाद मिश्रा के बंगले पर ह्त्या की धमकी वाला एक बेनाम खत मिला. जवाब में मिश्रा को जेड प्लस सुरक्षा मुहैय्या करा दी गई.
2017 में, मिश्रा सुप्रीम कोर्ट की उस खंडपीठ की अगुवाई कर कर रहे थे जिसने 2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में चार सजायाफ्ता कैदियों की फांसी की सजा पर अपनी मुहर लगाईं थी. अपने फैसले में मिश्रा ने “अपराध को मानसिक विकृति और हद दर्जे की क्रूरता” बताया और कहा, “अगर कभी भी कोई ऐसा मामला सामने आया है जो फांसी की चीख चीख कर गुहार करता हो, तो वो यही है.” फैसले के बारे में वकील आलोक प्रसन्ना कुमार ने लिखा, “कारकों की ठीक से पड़ताल करने की बजाए, अदालत बेवकूफाना लफ्फाजियों की शरण ले रही है.” कुमार ने अदालत के फैसले की आलोचना करते हुए लिखा, “इस मामले में पुलिस को उसकी खामियों के लिए जवाबदेह नहीं बनाया गया,” और इस तरह पुलिस सुधार के मौके को हाथ से गंवा दिया गया.
वर्ष 2016 के आखिर में मिश्रा ने एक निहायत ही विवादास्पद फैसला दिया जिसका संबंध राष्ट्रगान से था. इस मसले से उनकी यह पहली मुठभेड़ नहीं थी. श्याम नारायण चौकसी नामक एक व्यक्ति ने 2003 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के सामने कभी खुशी कभी गम नामक फिल्म के उस दृश्य को लेकर आपत्ति जताई थी, जिसमे राष्ट्रगान का इस्तेमाल अस्वीकार्य ढंग से किया गया था. उसकी यह भी शिकायत थी कि फिल्म में जब राष्ट्रगान बजता है तो दर्शक अपनी सीटों से खड़े नहीं होते. मिश्रा उस वक्त भी उस खंडपीठ का हिस्सा थे जिसने इस याचिका को सुना था.
यह उनके शुरूआती बेशकीमती रत्नों में से एक है. पहले पैराग्राफ में ही, बनिस्पत पहले मुद्दे को समझाने के वे अभिव्यक्ति की आजादी, मीडिया के लोकतंत्र का चौथा खंबा होने; तथा सिनेमा, एक माध्यम के रूप में और फिल्मकार दादासाहेब फाल्के के बारे में अनाप शनाप गपियाने लगते हैं. खंडपीठ ने फिल्म देखी और विवादास्पद दृश्य को नौ भागों में बांट दिया. “विवाद को समझने और उसका समुचित आदर करने के लिए,” मिश्रा ने लिखा, “हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि राष्ट्रीय भावनाओं की धारणाओं, उसके प्रतीकात्मक उद्देश्यों, उससे जुड़ी प्रतिष्ठा, देशभक्ति और उसके उपादानों के भाव तथा गौरव का वो सर्वोत्कृष्ट एहसास है जो राष्ट्रगान से इस कदर जुड़ा है जिसे ना तो पृथक किया जा सकता है ना नष्ट.”
फैसले में सिनेमाघरों से फिल्म को तुरंत उतारने के आदेश जारी कर दिए, जब तक कि निर्माता कथित दृश्यों को निकाल नहीं देता, जिनमे राष्ट्रगान को बेहूदा ढंग से फिल्माया गया है “जो राष्ट्रीय चरित्र के खिलाफ है और राष्ट्रीयता की पवित्रता के भाव को हेय दृष्टि से देखता है.” खासकर यह एक पंक्ति तो आज के हालातों में अलग से नज़र आती है: “जो कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह से राष्ट्रगान के प्रति अपना असम्मान प्रकट करता है, उसे राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का दोषी पाया जाएगा.”
2004 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को उलट दिया और चौकसी ने रिव्यू याचिका डाल दी. 2006 में कोर्ट ने इसे निपटा दिया.
दस साल बाद एक बार फिर चौकसी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया यह कहते हुए कि ऐसे कदम उठाए जाने चाहिए कि हर परिस्थिति में राष्ट्रगान का सम्मान किया जाए. मोदी सरकार उस वक्त राष्ट्रीय भावनाओं को उकसा रही थी और अपने द्वारा उठाए गए कदमों की आलोचना करने वाले को राष्ट्र विरोधी बताने में लगी थी. चौकसी की याचिका, मिश्रा की अगुवाई वाली खंडपीठ के सामने सुनवाई के लिए आई. जिसने एक असाधारण अंतरिम आदेश जारी किया. इसने कुल सात आदेश जारी किए, जिनका शतप्रतिशत पालन किया जाना था. उस सूची में चौथे नंबर पर यह था:
भारत में सभी सिनेमाघरों को फीचर फिल्म शुरू करने से पहले राष्ट्रगान चलाना होगा और सभी मौजूद दर्शकों को राष्ट्रगान के सम्मान में खड़ा होना होगा.
वकील आलोक प्रसन्ना कुमार ने लिखा, “यह आदेश संविधान के खिलाफ है और जजों द्वारा अपने संवैधानिक दायित्व से मूंह फेरने की शर्मनाक हरकत.” गौतम भाटिया ने लिखा, “इस आदेश में जिसे तर्क के रूप में पेश किया जा रहा है उसे क्या कानूनी व्याख्या के जरिए सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए.
संविधान के अनुच्छेद 5 अ की तरफ इशारा करते हुए, जो निश्चित मौलिक कर्तव्यों की बात करता है और नागरिकों से “संविधान और इसके आदर्शों एवं सस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान के प्रति वफादार रहने के लिए कहता है.” इन कर्तव्यों को संविधान में आपातकाल के दौरान शामिल किया गया था, और, जैसाकि कुमार ने लिखा, उन्हें कानूनन थोपा नहीं जा सकता.
मोदी के भारत में देशभक्ति के नाम पर बढ़ती गुंडागर्दी के चलते, इस आदेश की तानाशाही ने और भी विकराल रूप धारण कर लिया. उस दौरान ऐसी कई खबरें आईं जहां लोगों द्वारा सिनेमा जाने वाले दर्शको पर राष्ट्रगान के दौरान खड़े ना होने की सूरत में हमले किए गए, यहां तक कि विकालंग लोगों को भी नहीं बक्शा गया. आखिरकार मिश्रा के फैसले से, मोदी सरकार और सुप्रीम कोर्ट के विवेक में सही तालमेल बैठ गया था.
यह आदेश लगभग उसी वक्त जारी किया गया था जब जयंत दास, मिश्रा के बारे में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को अपने दूसरे खत की निराशा के बाद, हताशा में ताबड़तोड़ सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों को मिश्रा के जमीन के घोटाले में दोषी पाए जाने के मुत्तालिक खत पे खत लिख रहे थे. उसी साल जुलाई के अंत में दास इसी सिलसिले में दिल्ली भी आए. “मैं कुछ वरिष्ठ वकीलों, पूर्व जजों, या किसी भी और शख्स से मिलना चाहता था,” उन्होंने मुझे बताया. उन्होंने कुछ दिनों तक सुप्रीम कोर्ट और कई वकीलों के चेम्बरों के चक्कर भी लगाए, लेकिन, कुछ सुर्ख़ियों के अलावा, इस कवायद से कुछ खास निकल कर नहीं आया.
26 जुलाई के दिन मुख्य न्यायाधीश खेहर ने अपने उत्तराधिकारी की औपचारिक तौर पर घोषणा कर दी. उसी दिन दास ओडिशा जाने वाली ट्रेन में बैठ गए. “अब कुछ और करने को बाकि नहीं रह गया था,” उन्होंने कहा.
घर वापिस लौटने के कुछ ही दिनों बात दास पर साइबर पोर्नोग्राफी कानून के तहत इल्जाम लगाकर उन्हें दोषी करार दे दिया गया. ओडिशा में इस तरह का यह पहला मामला था. उन्होंने दावा किया कि उनका कंप्यूटर हैक किया गया था. दास की जमानत की अर्जी में अकथनीय रूप से विलम्ब किया गया, और चेलमेश्वर ने जब ओडिशा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इसके बारे में लिखा उसके बाद ही उनकी जमानत की अर्जी पर सुनवाई मुमकिन हो पाई. दास को आठ महीनों से भी ज्यादा जेल में रहना पड़ा.
{पांच}
जिन सालों में मिश्रा खंडपीठ का हिस्सा रहे उन सालों में सुप्रीम कोर्ट का बहुत ज्यादा राजीनितिकरण हुआ. दशक के शुरू में इसने दो फैसले सुनाए – एक 2011 में सलवा जुडूम मामले को लेकर और दूसरा 2012 में 2 जी घोटाले को लेकर. दोनों फैसले कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के लिए खासी परेशानी का सबब बने.
2 जी फैसले के बाद सरकार ने राष्ट्रपति की टिपण्णी के लिए अर्जी दाखिल की. कोर्ट के फैसले ने सरकार द्वारा टेलिकौम कंपनियों को आवंटित स्पेक्ट्रम रद्द कर दिए और कहा कि प्राकृतिक संसाधनों का वितरण, नीलामी के जरिए किया जाना चाहिए. सरकार को लगा यह एक ऐसा सुझाव था न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर था. इसका काम सिर्फ यह देखना है कि क्या कानून सम्मत है और क्या नहीं. राष्ट्रपति ने कोर्ट से सफाई मांगी कि क्या सभी मामलों में एकमात्र विकल्प नीलामी था. कोर्ट का जवाब ना में था, लेकिन साथ में कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार को आवंटन प्रक्रिया में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी को इसका बेजा फायदा ना पहुंचे. खेहर ने मिलता जुलता मत प्रकट किया, “निश्चित तौर पर, सरकार ने इतनी मासूम सलाह लेने के लिए राष्ट्रपति की शरण नहीं ली है.” मिश्रा भी उसी खंडपीठ का हिस्सा थे लेकिन उन्होंने कोई अलहदा मत जाहिर नहीं किया.
कांग्रेस ने सरकार में रहते हुए न्याययिक नियुक्ति की प्रक्रिया के पुनर्गठन को लेकर ढीलमढाल प्रयास किया. इसको लेकर विपक्षी दल भाजपा के सहयोग से, राज्य सभा में एक विधेयक भी पेश किया गया. लेकिन यह कभी भी कानून की शक्ल नहीं ले पाया. 2014 के आम चुनावों में भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में न्याययिक नियुक्तियों के लिए एक कमिशन के गठन की मंशा जाहिर की.
जब भाजपा चुनाव जीत कर सरकार में आई तो पहली सूची जो कौलेजियम ने सरकार की स्वीकृति के लिए भेजी उसमे गोपाल सुब्रमनियम का नाम भी शामिल था. बतौर एक वरिष्ठ वकील, सुब्रमनियम नरेंद्र मोदी के अधीन गुजरात में पुलिस मुठभेड़ों में की गई कई हत्याओं के मामले से जुड़े रहे थे. मोदी सरकार ने सुब्रमनियम का नाम कौलेजियम को वापिस पुनर्विचार के भेज दिया. इस बीच सुब्रमनियम ने यह कह कर कि उन्हें उनके पिछले काम की वजह से निशाना बनाया जा रहा है खुद अपना नाम वापिस ले लिया.
सत्ता में आते ही भाजपा ने जो सबसे पहले कदम उठाए उनमें संशोधन के जरिए नेशनल ज्यूडिशियल अपोइन्टमेंट कमीशन (एनजेएसी) का गठन शामिल था. अप्रैल 2015 में जब यह अस्तित्व में आया, सुप्रीम कोर्ट में इसकी संवैधानिक वैधानिकता को चुनौती देते हुए कई सारी याचिकाएं दायर की गईं. उन सभी की सुनवाई खेहर के नेतृत्व में पांच सदस्यीय खंडपीठ ने की. टी.एस. ठाकुर अभी भी मुख्य न्यायाधीश थे.
उन दिनों कोर्ट का मिजाज आज से बहुत अलग था. एक बार मिश्रा जिस खंडपीठ का हिस्सा थे उसने तंज कसा कि मोदी सरकार नोटिसों के जवाब देने के मामले में कुम्भकरण की तरह सोई रहती है. जब बार काउंसिल के अध्यक्ष ने मोदी को गांधी का अवतार बताया, तो मिश्रा ने सलाह दी कि वकीलों को राजनीतिज्ञों को खुश करने की कोशिशों से बचना चाहिए.
एनजेएसी मामले में अक्टूबर में फैसला आया. इसने एनजेएसी को पूरी तरह से खारिज घोषित कर दिया था. खेहर ने भाजपा के वरिष्ठ नेता एलके अडवाणी के हवाले से कहा, “लोकतंत्र को कुचलने वाली ताकतें आज पहले से कहीं ज्यादा शक्तिशाली हैं. कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि वह कौलेजियम सिस्टम के तहत नियुक्तियों की प्रक्रिया का एक मेमोरेंडम तैयार करे. हालांकि, कोर्ट ने इसके लिए कोई डेडलाइन नहीं रखी. सभी ने माना कि यह एक बहुत बड़ी भूल थी.
कोर्ट का यह फैसला सरकार को जरा भी रास नहीं आया. जहां अटौर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने इसे “दोषयुक्त” बताया तो वहीँ कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने इसे “संसदीय संप्रभुता को ठेस पहुंचाने वाला” घोषित कर दिया. टी.एस. ठाकुर के बचे हुए कार्याकाल के दौरान, सरकार नियुक्तियों को लेकर टालमटोल का रवैय्या अपनाए रही. इस दौरान कोर्ट में जजों की नई नियुक्तियां रुकी रहीं और विचाराधीन केसों के अंबार लगते रहे.
अप्रैल 2016 में दिल्ली में आयोजित एक समारोह के दौरान बोलते हुए ठाकुर की आंखों में जजों की कमी का जिक्र आते ही आंसू आ गए. उन्होंने वहां मौजूद मोदी से अपील की कि “उन्हें इस मसले पर जागना चाहिए और एहसास करना चाहिए कि आलोचना करना ही काफी नहीं होता.” उसके बाद प्रत्येक सप्ताह केबिनेट मंत्रियों और पूर्व जजों के बीच तीखी टिप्पणियों का आदान प्रदान होता रहा.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा उस दौरान दिए गए कुछ फैसले तो मोदी सरकार पर सीधा प्रहार थे. उत्तराखंड में भाजपा विधायकों द्वारा कांग्रेस सरकार को गिराने की कथित कोशिशों के बाद खड़े हुए विवाद को सुनते हुए, मिश्रा की खंडपीठ ने कोर्ट की निगरानी में विधान सभा में फ्लोर टेस्ट का आदेश जारी किया और उन कांग्रेस विधायकों को वोटिंग के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जो टूटकर भाजपा में शामिल हो गए थे. इसका नतीजा यह निकला कि कांग्रेस की सरकार बहाल हो गई. फिर बारी आई उस केस की जिसने अरुणाचल प्रदेश में कलिखो पुल की बागी सरकार को गिराया था.
नवम्बर में संविधान दिवस के मौके पर एक आयोजित समारोह में खेहर और कानून मंत्री के बीच तनातनी हो गई. दोनों ने एक दूसरे को लक्ष्मणरेखा ना लांघने की चेतावनी दी. लेकिन फरवरी 2017 आते आते, एक अन्य सार्वजनिक समारोह में मोदी और खेहर को एक दूसरे को बधाइयां देते हुए देखा गया. मोदी ने यहां तक कहा कि “क्या ही अच्छा होता अगर न्यायमूर्ति खेहर,” अपने रिटायरमेंट के बाद भी, ”कुछ और समय तक अपने पद पर बने रहते.” राजनीतिक महत्व के केसों – जैसे राजधानी में दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच विवाद – को ठंडे बक्से में डाल दिया गया. सरकार और न्यायपालिका के बीच शत्रुता के खत्म होने से कई लोग अचंभित थे लेकिन पूरी तरह से इसे कभी समझाया नहीं गया. इस दुश्मनी के खत्म होने के कारणों की चर्चा, लोग फुसफुसाहटों में करने लगे लेकिन खुलकर सामने नहीं आए.
जमीन घोटाले में दोषी पाया जाना ही एकमात्र विवाद नहीं था, जिसमे मिश्रा संलिप्त थे जब खेहर ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. कलिखो पुल की विधवा, दांगविमसाई, ने फरवरी 2017 में खेहर को एक खत लिखा. उन्होंने उन जजों के खिलाफ अभियोग दाखिल करने की इजाजत मांगी, जिनके नाम पुल ने ख़ुदकुशी से पहले लिए थे. के. वीरास्वामी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि उच्च न्यायपालिका के सदस्यों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने से पहले मुख्य न्यायाधीश की अनुमति लेना आवश्यक होगा. ‘मुझे उम्मीद है कि आप इस मामले को वीरास्वामी केस के फैसले के अनुसार उपयुक्त जज के सामने रखेंगे,” दांगविमसाई ने लिखा.
चूंकि खेहर के का नाम का जिक्र भी उस खत में था, इसलिए कोई भी अपना जज नहीं हो सकता के सिद्धांत के मुताबिक, उन्हें अपने से नीचे वरिष्ठतम जज के पास दरख्वास्त को भेजना चाहिए था. लेकिन विडम्बना ये थी कि उनसे कनिष्ठ जज मिश्रा का नाम भी ख़ुदकुशी नोट में था.
हालांकि दांगविमसाई के खत में प्रशासनिक कार्यावाही का निवेदन किया गया था, खेहर ने इसको आपराधिक याचिका के रूप में देखा और इसे दो जजों की खंडपीठ के सामने पेश कर दिया. जब मामले की सुनवाई हुई तो वकील दुष्यंत दवे ने, जो दांगविमसाई की नुमाइंदगी कर रहे थे, ने जजों को बताया, “सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज ने मुख्य न्यायाधीश की तरफ से मुझसे मुलाकात की. मैं इससे ज्यादा इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहता. मैं न्यायमूर्तियों से इस मामले से दूर रहने का निवेदन करता हूँ.” दवे ने कभी खुलासा नहीं किया कि वो जज कौन था या कि उसने उनसे क्या कहा.
दांगविमसाई ने याचिका वापिस लेने की पेशकश की, जिसे खंडपीठ ने मान लिया. उन्होंने फिर उप राष्ट्रपति का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उससे कुछ निकल कर नहीं आया. दिल्ली हाई कोर्ट में पुलिस जांच के लिए दायर याचिका को ना केवल खारिज कर दिया गया बल्कि “बेबुनियाद इल्जाम” लगाने के लिए उन पर 2.79 लाख रुपए का जुर्माना भी ठोक दिया गया.
दांगविमसाई के खत को लेकर खेहर ने जो किया उससे बहुत से पर्यवेक्षकों को आघात लगा. “संभव है उस खत में कलिखो पुल के सिर्फ दिमाग का फितूर हो,” उच्च न्यायपालिका के एक पूर्व सदस्य ने मुझे बताया. उस नोट में लगाए इल्जाम का सबूत नहीं था. “कोई भी कुछ भी अनाप शनाप बक सकता है कि मैं खेहर का बेटा हूं या मिश्रा का भाई हूं या चेलमेश्वर का दादा हूं. जांच से सच्चाई सामने आ सकती थी.” लेकिन ऐसी कोई जांच हुई ही नहीं.
जमीन घोटाले वाले मामले का केस, जिसकी जांच में सीबीआई भी शामिल रही, ओडिशा हाई कोर्ट में 2013 से इन्द्रजीत महंती की खंडपीठ के सामने है. जयंत दास ने मुझे बताया कि इसकी सुनवाई कई बार मुल्तवी की जा चुकी है. महंती खुद भ्रष्टाचार के आरोप में अंदरूनी जांच का सामना कर रहे थे. आरोपों की जांच कर रहे अधिकारियों ने खेहर को, जब वे मुख्य न्यायाधीश थे, मार्गदर्शन के लिए लिखा भी था. सुप्रीम कोर्ट के एक जज का नाम बार बार लिया जाता रहा लेकिन वह जांच अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात थी.
खेहर ने खत का जवाब नहीं दिया. सुप्रीम कोर्ट के उस जज का नाम गुप्त रखा गया. चुप्पी की संस्कृति कायम रही.
{छ:}
मिश्रा के मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद एक महीने के अन्दर सितम्बर 2017 में, सीबीआई ने एक केस, जिसमे प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट नाम शामिल था, को लेकर पहली एफआईआर दर्ज की. यही वह दस्तावेज था जिसने सीजेएआर को सुप्रीम कोर्ट में स्वतंत्र जांच की मांग हेतु याचिका दायर करने को उकसाया.
ट्रस्ट ने लखनऊ के नज़दीक एक निजी मेडिकल कौलेज में विद्यार्थियों के दाखिले की अनुमति हेतु आवेदन किया था. मेडिकल काउंसिल औफ इंडिया की सलाह मानते हुए स्वास्थय मंत्रालय ने इसकी इजाजत नहीं दी क्योंकि यह प्रस्तावित कौलेज आवश्यक मानदंडों पर खरा नहीं उतरता था. अगस्त में कौलेज ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली, जिसने सरकार को निर्देश दिया कि सरकार आवेदन पर पुनर्विचार करे. सरकार ने किया भी. उसने पुन: आवेदन खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट की अनुमति से ट्रस्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का रुख किया, जहां उसे कौलेज में दाखिले पर परामर्श देने की इजाजत मिल गई. अगस्त के आखिर में मेडिकल काउंसिल औफ इंडिया ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की. इस पूरे समय मिश्रा इस मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ की अगुवाई कर रहे थे.

4 सितम्बर को खंडपीठ ने ट्रस्ट की नई याचिका सुनी. उससे एक दिन पहले, सीबीआई ने एक बिचौलिए विश्वनाथ अग्रवाल और एक पूर्व जज आईएम कुद्दुसी के बीच हुई बातचीत को रिकौर्ड कर लिया. इसके मसौदे को सीजेएआर की याचिका के साथ संलग्न किया गया था.
अग्रवाल: हां, मुझे लगता है, जहां उनका है, किस मंदिर में है यह – इलाहाबाद के मंदिर में या दिल्ली के मंदिर में?
कुद्दुसी: नहीं नहीं यह किसी मंदिर में नहीं है अभी तक, अब शायद करना होगा.
अग्रवाल: हां हां हां! तो अब आप बात कर सकते हैं, वे कर देंगे. उस बारे में मैंने बात की है वहां.
कुद्दुसी: कहा है पक्का.
अग्रवाल: हां हां. उसमे एक बात है, 100 परसेंट है. हमारा आदमी जो हमारा कप्तान है. इसे कप्तान के जरिये किया जा रहा है, तो मुझे बताओ दिक्कत कहां है?
कुद्दुसी ओडिशा हाई कोर्ट से एक अवकाश प्राप्त जज हैं. कोर्ट में राज्य के सरकारी अधिकारियों द्वारा किए गए जमीन घोटालों को लेकर जांच करवाने हेतु दो जनहित याचिकाएं दायर की गईं थी. एक 1996 में और दूसरी 2009 में. 1996 वाली याचिका को याचिकाकर्ता के कोर्ट में मौजूद ना होने की वजह से खारिज कर दिया गया. खारिज करने की यह एक अजीबोगरीब वजह थी, उस देश में जहां जनहित याचिकाएं, याचिकाकर्ता के मर जाने के कई सालों बाद तक भी खिंचती रहती हैं. कुद्दुसी उस खंडपीठ का हिस्सा थे जिसने यह आदेश दिया था. 2009 वाली याचिका की सुनवाई बीपी दास ने की, जिसकी वजह से इसमें सीबीआई बैठी जिसने मिश्रा के जमीन घोटाले का पर्दाफाश किया.
सोमवार के दिन 11 सितम्बर को मिश्रा की अगुवाई वाली खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई का दिन तय किया. उससे पहले ४ सितम्बर को सीबीआई ने अग्रवाल और कुद्द्सी के बीच हुई एक और बातचीत को रिकौर्ड किया.
कुद्दुसी: वे कहते हैं उन्होंने अपनी याचिका दायर कर दी है. आज उन्होंने सोमवार की तारीख दी है. वे पूछ रहे हैं कब, कितना और कैसे देना होगा. एक और बात, वो कैसे यकीन कर लें कि उनका काम पक्के तौर पर हो जायेगा.
अग्रवाल: क्या ये लोग मेडिकल के धंधे में हैं?
कुद्दुसी: हां हां.
अग्रवाल: हां तो आने वाले सोमवार का दिन तय हुआ है?
अग्रवाल: हां तो यह रिव्यु है.
कुद्दुसी: नहीं नहीं यह अनुच्छेद 32 के तहत याचिका है.
अग्रवाल: हां हां हां. इसमें ऐसी कोई गारंटी नहीं है. अगर वे देंगे तो काम पक्का सौ फीसदी हो जाएगा.
बातचीत में प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के बी.पी. यादव को भी शामिल किया गया था जो लेनदेन की बात करते लग रहे हैं.
अग्रवाल: नहीं, काम होने की सौ फीसदी नहीं बल्कि पांच सौ फीसदी गारंटी है. लेकिन सामान को पहले देना होगा और वे मिलने के लिए मना कर रहे हैं क्योंकि जो सरकार चल रही है…चाय वाले की सरकार, वह सभी पर नजर रखे हुए है, यही दिक्कत है.
यादव: नहीं, प्रसाद की जरूरत पड़ेगी. हम प्रसाद देंगे. हमें प्रसाद देना होगा.
अग्रवाल: काम सौ फीसदी हो जाएगा, लेकिन मैं कल और परसों बात नहीं करूंगा. आप सामान तैयार रखना, अगर दे दिया तो हमारा काम सौ फीसदी हो जायेगा.
यादव: मतलब एडवांस देना होगा.
अग्रवाल: हां उन्हें एडवांस देना होगा. वर्ना आप ही बताएं वे काम क्यों करेंगे. इन मामलों में कोई लिखा पढ़ी नहीं होती. यह सब इस दुनिया में विश्वास पर चलता है. वे काम सौ फीसदी कर देंगे.
अग्रवाल: सोमवार को हम इसे फाइनल कर देंगे. वे सामान देंगे – कोई दो ढाई; कोई दिक्कत नहीं है कोई आर्डर दे दिया जायेगा, अगर हम काम नहीं कर पाते फिर हम सामान लौटा देंगे, जो यहां रखा है. ऐसी कोई वजह नहीं कि काम ना हो. इस बारे हमने साफ साफ बात कर ली है कि इसकी इजाजत मिल जाएगी.
कुद्दसी: यहां, बात करो उनसे.
अग्रवाल: हां, बातचीत साफ थी. तीन के आधार पर जोड़ा गया है. वे तीन से कम में बात नहीं करेंगे.
अग्रवाल: तारीख 11 की है. इसलिए यह अगर हम तक 6 या 7 तक पहुंच जाता, तो हम काम करवा देंगे. आपका काम 11 तक हो जाएगा.
यादव: ढाई में कर दो, यार. मेरी हैसियत सिर्फ ढाई की है. कर दो.
इस केस में अंतिम आदेश 18 सितम्बर को आया. खंडपीठ ने मेडिकल काउंसिल औफ इंडिया को कौलेज का आवेदन मान लेने के लिए निर्देश देने से इनकार कर दिया. हालांकि, खंडपीठ ने काउंसिल को दो करोड़ की बैंक गारंटी भुनाने पर रोक लगा दी, जो ट्रस्ट गंवाने जा रहा था.

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को कोर्ट की वेबसाइट पर 21 सितम्बर को डाला गया. सीबीआई ने इस मुत्तालिक एफआईआर 19 सितम्बर को दाखिल की थी. सीजेएआर ने प्रेस विज्ञप्ति जारी करके सवाल उठाया: क्या आदेश 18 सितम्बर को खुले कोर्ट में दिया गया था, या एफआईआर दर्ज होने के बाद?
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी बैंक गारंटी को भुनाने पर स्टे दिया था, जब उसने पहले ट्रस्ट को दाखिले में परामर्श की इजाजत दी थी. जिस खंडपीठ ने यह आदेश जारी किया था उसकी अगुवाई नारायण शुक्ला नामक जज कर रहे थे. सीबीआई के दस्तावेजों के मुताबिक, कुद्दसी और यादव ने शुक्ला से उनके घर में मुलाकात की और उन्हें “गैरकानूनी रसद” पहुंचाई.
सीजेएआर की प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, सी.बी.आई. ने रिकौर्ड की गई बातचीत का ट्रांसक्रिप्ट और अन्य दस्तावेज मिश्रा को ६ सितम्बर को दिखाए और शुक्ला के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करने की अनुमति मांगी. मिश्रा ने इनकार कर दिया. रिकौर्ड की गई बातचीत के मुताबिक, कुद्दुसी माफिक आदेश पाने के लिए दी गई रकम लौटाने के लिए शुक्ला पर दबाव डाल रहे थे, चूंकि हाई कोर्ट के कौलेज को दिए गए “गो अहेड” के आदेश को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पलट दिया गया था. न्यूज़ वेबसाइट द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक, अगर मिश्रा ने सीबीआई को एफआईआर करने की इजाजत दे दी होती, तो जांच अधिकारी शुक्ला को उस वक्त रंगेहाथ धर दबोचते जब उन्होंने कुद्दुसी को 8 सितम्बर के दिन कुछ रकम लौटाई थी.
सितम्बर में, सीबीआई ने कुददुसी, अग्रवाल, यादव और केस से संबंधित दो अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया. कुछ महीनों बाद, उत्तर प्रदेश के एडवोकेट जनरल की शिकायत पर कार्यावाही करते हुए मिश्रा ने शुक्ला के खिलाफ इन—हाउस जांच के आदेश दिए. हाई कोर्ट के ये जज साहब अब महाभियोग का सामना कर रहे हैं.
जांच के लिए सीजीएआर की याचिका कोर्ट के सामने 8 नवम्बर को आई. उस दिन बुधवार था, जब इसका जिक्र चेलमेश्वर की खंडपीठ के सामने किया गया. जब चेलमेश्वर ने उपयुक्त खंडपीठ द्वारा शुक्रवार के दिन इस मामले की सुनवाई के आदेश जारी किए, मिश्रा तब एक संवैधानिक खंडपीठ के साथ व्यस्त थे. हालांकि, बाद में उसी दिन कोर्ट की रजिस्ट्री से पता चला कि मुख्य न्यायाधीश ने पहले ही इस मामले को दो जजों की खंडपीठ के सामने शुक्रवार की सुनवाई के लिए लिस्ट कर दिया था.
गुरुवार की सुबह वकील कामिनी जैसवाल ने इसी मामले को लेकर एक और याचिका दायर कर दी. इसको एक बार फिर चेलमेश्वर की खंडपीठ के सामने पेश किया गया, जो उसी दिन 12.45 पर इस पर सुनवाई करने के लिए राजी हो गई. मिश्रा एक बार फिर संवैधानिक खंडपीठ में उलझे पड़े थे. दोपहर 12 बजे तक खंडपीठ इससे फारिग हो गई.
आदेश पारित किए जाने के थोड़ी ही देर बाद, मिश्रा चलते हुए चेलमेश्वर के चैम्बर में आए जहां उस वक्त एक और जज मौजूद थे, और कहा, “ब्रदर, यह आपने क्या किया?” चेलमेश्वर ने जवाब दिया, “मैंने क्या किया?” उन्होंने कहा उन्होंने मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में एक संवैधानिक खंडपीठ का गठन कर दिया है, और अगर इसमें छिपाने को कुछ नहीं था तो मिश्रा को चिंतित होने की जरूरत नहीं थी. उन्हें कोई जवाब नहीं मिला.
चेलमेश्वर की खंडपीठ ने जैसवाल की याचिका पर पौने एक बजे सुनवाई की और आदेश दिया कि सोमवार को इस मामले को कोर्ट के वरिष्ठतम पांच जजों के समक्ष रखा जाए. इस सुनवाई के दौरान, कोर्ट रूम में रजिस्ट्रार आया और खंडपीठ को एक प्रशासनिक नोट थमा गया. इस पर 6 नवम्बर की तारीख डली हुई थी और मिश्रा से कुछ निश्चित निर्देश मांगे गए थे. इस नोट में जो सबसे पहली बात कही गई थी: जब मुख्य न्यायाधीश किसी संवैधानिक खंडपीठ में बैठे हों और उसी दौरान किसी दूसरी खंडपीठ के सामने मामला पेश कर दिया जाए और जो फिर उसे किसी नई खंडपीठ के सामने पेश किए जाने के आदेश जारी कर दे, तो उस सूरत में कैसे आगे बढ़ा जाए. नोट में सुझाया गया था कि रजिस्ट्रार ऐसे मामलों को उसी दिन दोपहर तीन बजे मुख्य न्यायाधीश के सामने पेश कर सकता है, या फिर किसी भी ऐसे समय जो मुख्य न्यायाधीश को अनुकूल हो, या मुख्य न्यायाधीश के निर्देश पर किसी अन्य खंडपीठ को सौंपा जा सकता है. इसके नीचे दूसरी बात जो कही गई थी उसके अनुसार “अन्य निर्देश जो ‘योर लार्डशिप’ को सही लगे.” मिश्रा ने जाहिर तौर पर उसी दिन उस नोट का जवाब दे दिया था और पहले पौइंट से अपनी सहमति जताई थी.
सीजेएआर ने एक सार्वजनिक नोट में विस्मय जताया कि “रजिस्ट्रार को इस विषय पर भारत के मुख्य न्यायाधीश के पहले से ही मौजूद स्थाई निर्देशों को दोहराने की क्यों जरूरत आन पड़ी.” इसने अचरज जताया कि इस प्राशासनिक नोट पर चेलमेश्वर की खंडपीठ का ध्यान पहले क्यों नहीं दिलाया गया. सीजेएआर ने लिखा, “हालातों को मध्यनजर रखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि 6 नवम्बर वाला यह प्रशासनिक नोट वास्तव में अफरा तफरी में तैयार किया गया था.” इसे 9 नवम्बर को दोपहर बाद तैयार किया गया और “सम्भवत: 6 नवम्बर की तारीख दी गई.”

शुक्रवार को सीजेएआर की याचिका पर सुनवाई कर रही खंडपीठ ने केस को संवैधानिक खंडपीठ के पास विचारार्थ भेज दिया. मिश्रा ने एक संवैधानिक खंडपीठ का गठन किया जिसमे उन्होंने खुद को तो तो शामिल कर लिया, लेकिन चार वरिष्ठतम जजों के नाम उसमे नहीं थे. याचिका को उसी दिन भोजनावकाश के बाद सुनवाई के लिए लिस्ट कर दिया गया.
संवैधानिक खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों को कभी सुना ही नहीं. दर्शकों से खचाखच भरे कोर्टरूम में, मिश्रा ने वहां मौजूद वकीलों से उनकी राय जाननी चाही, सीजेएआर के वकील प्रशांत भूषण के अलावा. यह वास्तव में भूषण की आवाज को दबाने की कोशिश थी.
“क्या मीलौर्ड याचिकाकर्ताओं की दलीलों को सुने बिना ही आदेश जारी कर देंगे? बीच में भूषण ने सवाल दागा. मिश्रा ने उनकी तरफ देखा भी नहीं. जब कई मर्तबा उन्हें दलीलें पेश करने से रोका गया तो अंत में भूषण वहां से नाराज होकर बाहर निकल गए. जाते जाते उन्होंने तंज कसा कि अगर न्यायाधीशों को याचिकाकर्ताओं की दलीलों को सुने बिना ही आदेश जारी करना है तो “वे जो भी आदेश जारी करना चाहें” कर सकते हैं.
कोर्ट बंद होने से पहले साढ़े चार बजे तक आदेश जारी कर दिया गया. यह तब हुआ जब खंडपीठ ने आदेश दिया कि सिर्फ मुख्य न्यायाधीश को ही “कोर्ट की खंडपीठ गठित करने और केसों को उन बेंचों को सौंपने का विशेषाधिकार प्राप्त है.”
उसके बाद उन याचिकाओं का नंबर आया जिनमे बी.एच. लोया की मौत को लेकर जांच की मांग की जा रहीं थी. मिश्रा ने सबसे पहले अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली खंडपीठ को यह केस सौंपा. भाजपा अध्यक्ष के खिलाफ सुनवाई कर रहे एक जज की मौत से संबंधित सवालों से जूझते, राजनीतिक रूप से अत्यंत संवेदनशील मामले में कोर्ट द्वारा अरुण मिश्रा का चुनाव हैरत में डालने वाला था. इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली पत्रिका में छपे एक लेख के अनुसार, जब कौलेजियम मिश्रा की सुप्रीम कोर्ट में संभावित नियुक्ति के बारे में विचार कर रहा था उसने उनकी पृष्ठभूमि जांचने के लिए कहा था, “जाहिरा तौर पर जस्टिस मिश्रा के एक दक्षिण पंथी गैर सरकारी संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो भाजपा को अपना राजनीतिक अंग समझती है,” से नजदीकी संबंध के बारे में लेख में कहा गया, “इस तथ्य की एक बार से ज्यादा उपेक्षा करने के बाद जस्टिस मिश्रा की जुलाई 2014 में सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति हो गई, मोदी के प्रधानमंत्री बनाने से छह सप्ताह बाद.”
सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति होने के बाद मिश्रा ने भाजपा समर्थक की अपनी छवि को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया. 2016 में उनके भतीजे की शादी के अवसर पर बारातियों में भाजपा के अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान जैसे कद्दावर नेता शामिल थे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री चौहान का नाम ‘सहारा पेपर्स’ मामले के आरोपियों में शामिल रहा है. इन कागजों में कथित तौर पर उन लोगों के नामों की सूची है जिन्हें सहारा समूह ने रिश्वत दी थी. 2017 में मिश्रा उस खंडपीठ का हिस्सा थे जिसने इस मामले में कोर्ट की निगरानी में जांच की मांग करती याचिकाओं को खारिज किया था.
चेलमेश्वर, गोगोई, जोसफ और लोकुर की प्रेस कांफ्रेंस के बाद, सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया में इसे सुप्रीम कोर्ट का अंदरूनी मामला करार दिया और कहा कि वह इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगी. इसके एक दिन बाद ही, मोदी के विश्वसनीय सहायक और मुख्य सचिव नृपेन्द्र मिश्रा की कार मुख्य न्यायाधीश के निवास के बाहर देखी गई. कैमरों की मौजूदगी में जब मुख्य सचिव को अन्दर दाखिल होने की इजाजत नहीं मिली तो वे वहां से निकल लिए. कुछ घंटों बाद नृपेन्द्र मिश्र ने मीडिया को बताया, “अपने दफ्तर आते हुए, मैं मुख्य न्यायाधीश के निवास पर रुका था और नववर्ष की शुभकामानों के साथ मैंने अपना कार्ड उनके लिए छोड़ा, मैं मुख्य न्यायाधीश से नहीं मिला.”
“नववर्ष की शुभकामना 13 जनवरी को,” एक पूर्व जज ने चुटकी लेते हुए मुझसे कहा, “यह प्रधानमंत्री कार्यालय की नज़र में मुख्य न्यायाधीश के लिए क्या प्राथमिकताएं और इज्जत है को दर्शाता है.” बावजूद इसके सरकार अपनी लाइन पर कायम रही.
एक सप्ताह बाद कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने इंडियन एक्सप्रेस में “संविधान में हमारा विश्वास” शीर्षक से एक लेख लिखा. उन्होंने अपने इस लेख में निर्वाचन आयोग, न्यायपालिका और मीडिया जैसी संस्थाओं की महानता की सराहना की और “भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती” पर अपनी आस्था जताई और साथ ही विश्वास जताया कि यह “राष्ट्र दृढ़ विश्वास के साथ आगे बढ़ता रहेगा.” हजार से भी ज्यादा शब्दों वाले अपने इस लेख में उन्होंने एक मर्तबा भी इसका जिक्र नहीं किया कि जनवरी 2018 में उन्हें यह सब कहने की क्यों जरूरत पड़ रही है.
सुप्रीम कोर्ट का नया रोस्टर, मिश्रा की एकमात्र प्रतिक्रिया थी. इसके तहत उन्होंने सभी जनहित और पत्र याचिकाएं, चुनाव एवं संवैधानिक पदों की नियुक्तियां तथा सभी जांच आयोगों से संबंधित और अन्य मामले अपने अधीन कर लिए. चेलमेश्वर, गोगोई, जोसफ, और लोकुर को सभी संवैधानिक बेंचों से दूर रखा गया. इसका परिणाम यह हुआ कि उनका कई राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों, जैसे लोया, आधार तथा बाबरी मस्जिद मामला, में कोई दखल नहीं रह गया था.
अरुण मिश्रा द्वारा लोया मामला सौंपे जाने के बाद, यह केस मिश्रा, ए.एम. खानविलकर की खंडपीठ के समक्ष आया. सरकार का कहना था कि लोया की मौत नैसर्गिक कारणों से हुई है. इसके समर्थन में उसने एक जांच रिपोर्ट भी पेश की जो उसने गुप्तचर विभाग से करवाई थी, लोया परिवार के सदस्यों द्वारा उनकी मौत पर संदेह को सार्वजनिक करने के बाद. इस जांच रिपोर्ट में उन चार जजों का बयान भी शामिल थे, जिसमे उन्होंने माना था कि लोया की आखिरी रात में वे उनके साथ थे.
सरकार द्वारा जमा किए गए तमाम कागजातों में असंगतियां और चूकें साफ साफ चमक रहीं थीं; यहां तक कि जजों के बयान भी अंतर्विरोधों से ग्रसित थे. रिपोर्ट में मौजूद सभी बयानों को शपथ पत्र के रूप में भी नहीं लिया गया था, जिसका मतलब था कि उन सभी लोगों, जिन्होंने खुद को बयान देने के लिए प्रस्तुत किया था, उनके खिलाफ झूठी शपथ लेने के लिए, अगर वे झूठ बोल रहे हों तो, मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता था. यह सीधा तथ्य कि लोया उस वक्त सोहराबुद्दीन मामले को देख रहे थे, जब इस मामले को सुनने वाले पहले जज का अचानक तबादला कर दिया गया था. इसका यह भी मतलब था कि बौम्बे हाई कोर्ट की वो प्रशासनिक समिति, जिसकी देखरेख में यह मुकदमा चलाया जा रहा था, ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का उल्लंघन किया था, जिसमे उसने आदेश दिया था कि इस मामले की सुनवाई खत्म होने तक एक ही जज इस पूरे मामले को देखेगा.
खंडपीठ ने प्राशसनिक समिति को ना तो नोटिस जारी किया, ना यह कहा कि गवाहियों को सुप्रीम कोर्ट के नियमों के अनुसार पेश किया जाए. पूरी सुनवाई के दौरान मिश्रा ज्यादा कुछ नहीं बोले सिवाय यह आश्वासन देने के कि याचिकाकर्ताओं की सद्भावना पर सवाल नहीं उठाएये जाएंगे. खंडपीठ के अंतिम फैसले ने सरकार द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों से अपनी सहमति जताते हुए, याचिका को खारिज कर दिया. चंद्रचूड़ द्वारा लिखे गए 114 पृष्ठ वाले फैसले में, अधिकतर याचिकाकर्ताओं की सद्भावना पर हमला किया गया. खंडपीठ ने तर्क दिया कि उन जजों के बयान, जिसमे उन्होंने कहा कि वे लोया के साथ थे, पर सवाल नहीं उठाए जा सकते. फैसले ने घोषणा की, उन वक्तव्यों से “सच्चाई झलकती है.”
मुख्य न्यायाधीश के कोर्ट नंबर एक में जब चंद्रचूड़ ने फैसले के क्रियात्मक हिस्सों को पढ़ना शुरू किया, तो मिश्रा एक तरफ सिर झुकाकर बैठे थे और भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश एच.जे. कानिया, जिनका देहांत उनके पद पर रहते हुए हो गया था, की तस्वीर को टुकुर टुकुर ताके जा रहे थे. जब केस खारिज होने की घोषणा हो गई तो धीरे धीरे कमरा खाली होने लगा. लोगों ने आपस में भी ज्यादा बातचीत नहीं की और चुपचाप कमरे से बाहर निकल गए. यह हक्केबक्के रह जाने वाला पल था.
गौतम भाटिया ने लिखा कि आदेश “एक ट्रायल कोर्ट के फैसले की तरह जान पड़ता है, जिसमे फैसला बिना ट्रायल के सुना दिया गया हो.” ऐसा लग रहा था मानो कोर्ट “एक साथ दो भूमिकाएं निभा रहा हो: ट्रायल और संवैधानिक कोर्ट की. ट्रायल कोर्ट सच्चाई तक पहुंचने के लिए जिस कानूनी रूपरेखा का सहारा लेता है उसके बिना; और संवैधानिक कोर्ट के रूप में उन मसलों पर अपनी राय दे रहा था जिसके लिए ना वह बना था, ना उन पर उसका आदेश देना बनता था.”
वकील मनु सेबेस्टियन ने इसे “आधुनिक सुप्रीम कोर्ट में ए.डी.एम. जबलपुर पल” की संज्ञा दी. ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल केस में, जहां, आपातकाल के दौरान, सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने बंदी प्रत्यक्षीकरण के खिलाफ आदेश जारी किया था. लोया मामले में खंडपीठ एकमत था.
“मैं कहने जा रहा था कि यह एक अविश्वसनीय फैसला है,” पूर्व भाजपा नेता अरुण शोरी ने एक इन्टरव्यू के दौरान कहा. “लेकिन यह फैसला कत्तई चौंकाने वाला नहीं है.”
बार काउंसिल ने लोया मामले में बहस करने की जुर्रत के लिए दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही को शुरू किया. पिछले साल जब दवे ने कौलेजियम के कार्य करने के तरीके की न्यूज चैनलों के सामने आलोचना की थी, तब भी बार काउंसिल ने उनको एक नोटिस भेजा था और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी उनकी टिपण्णी पर आपत्ति जताई थी. इसने चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस की भी भर्त्सना की थी और इसे “बेतुका” कहा था और जजों के सरोकारों को आवास्तविक बताया था. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और बार कौंसिल औफ इंडिया ने उन सभी लोगों की खिलाफत की है जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के हालातों को लेकर अपना सरोकार जताया है. बार कौंसिल के अध्यक्ष, मनन मिश्रा, भाजपा के सदस्य हैं. 2016 में मनन मिश्रा ने एक खत लिखा, “प्यारे मोदी जी” जहां उन्होंने प्रधान मंत्री को “माय लार्ड” कहकर पुकारा और कहा, “आज की बार काउंसिल औफ इंडिया आपकी अपनी संस्था है.”
अप्रैल २०१८ में के.एम. जोसफ की पदोन्नति को लेकर कौलेजियम की सिफारिश को वापिस भेज दिया गया. सनद रहे कि 2016 में उन्ही की खंडपीठ ने केंद्र सरकार द्वारा उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने के आदेश को निरस्त किया था. सरकार को जोसफ और इंदु मल्होत्रा को लेकर कौलेजियम की सिफारिश तीन महीने पहले ही मिल गई थी लेकिन वह उस पर कार्यवाही करने को टालती रही. सरकार के जवाब देने से एक दो सप्ताह पहले, कुरियन जोसफ ने मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में विलंब होने की वजह जानने के लिए खंडपीठ गठित करने का सुझाव देते हुए एक खत लिखा था. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ने कहा, सरकार के कदम ने संस्था के “गौरव, प्रतिष्ठा और सम्मान” को ठेस पहुंचाई है, और अगर न्यायालय इस पर कदम उठाने से चूकती है “तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा.” अंत में सरकार ने सिर्फ मल्होत्रा की नियुक्ति को हरी झंडी दिखाई.
कौलेजियम द्वारा भेजी गई नामों की सूची में से सरकार द्वारा इस तरह का चुनींदा चुनाव, सेकंड जज केस के उद्देश्य के साथ खिलवाड़ है. जोसफ का मामला इसमें कोई अकेला केस नहीं है. जून में सरकार ने दूसरी बार दो वकीलों, बशारत अली खान और मोहम्मद मंसूर, की सिफारिश लौटा दी थी. इन दोनों के नामों की सिफारिश कौलेजियम ने दो साल पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिए की थी.
मार्च में चेलमेश्वर ने मुख्य न्यायाधीश को एक अन्य मामले में कौलेजियम की सिफारिश के बाद भी लंबे विलंब लेकर लिखित विरोध प्रकट किया था. कृष्णा भट्ट की पदोन्नति से सम्बंधित फाइल मिलने के बाद कानून मंत्रालय ने कर्णाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, दिनेश महेश्वरी, को भट्ट के खिलाफ लगे पिछले आरोपों पर फिर से गौर करने को कहा, जिन्हें कौलेजियम ने परखने के बाद भी अनदेखा कर दिया था. उसके बाद महेश्वरी ने आरोपों की जांच के लिए एक प्राशासनिक समिति का गठन कर दिया. चेलमेश्वर ने तीखा कटाक्ष करते हुए लिखा कि महेश्वरी ने खुद को “राजा से भी अधिक वफादार” साबित किया है और कि “उनका यह करम है कि उन्होंने कम से कम हमें इसकी खबर तो दी.”
चेलमेश्वर ने लिखा पिछले कुछ समय से, “हमारा यह अनुभव रहा है कि सरकार द्वारा हमारी सिफारिशों को स्वीकार करना एक अपवाद बनता जा रहा है और उन पर कार्यवाही ना करना मानक. यह असहज तो है लेकिन इस तरह से काबिल जज या जो काबिल साबित हो सकते थे उनकी उपेक्षा हो रही है.” उन्होंने आगे लिखा, “हम एक ऐसे दौर के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो ज्यादा दूर नहीं जान पड़ता, अगर वह वक्त अभी तक नहीं आया है तो, जब कार्यपालिका, लंबित मामलों के बारे में हाई कोर्ट से सीधा संपर्क करेगी और क्या आदेश जारी किया जाना है, तय किया करेगी.”
चेलमेश्वर ने मौजूदा हालातों पर विमर्श के लिए पूरे कोर्ट की एक बैठक बुलाने की मांग की. मिश्रा ने कोई जवाब नहीं दिया, और इस तरह की बैठक कभी नहीं बुलाई गई.
मिश्रा पर महाभियोग चलाने की बात चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद से ही होने लगी थी, लेकिन कांग्रेस समेत विपक्ष में इस पर तुरंत सहमति नहीं बनी थी जो इसे आगे बढ़ाती. लोया फैसले के एक दिन बाद, 71 राज्य सभा के सदस्य राज्य सभा अध्यक्ष वेंकैया नायडू से मिले और उन्हें महाभियोग प्रस्ताव पेश किया. प्रस्ताव में मिश्रा के खिलाफ जो आरोप लगाए गए थे उनमें प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट मामला, प्रशासनिक नोट की तारीख में गड़बड़ी, सुप्रीम कोर्ट में उनके द्वारा केसों को मनमर्जी से सौंपना और जमीन घोटाला शामिल थे. “हम उम्मीद करते हैं कि ऐसा दिन कभी ना आए,” कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान कहा.
तीन दिन बाद प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए नायडू ने आरोपों को “महज़ संदेह”, अटकलबाजी या पूर्वधारणा से ग्रसित बताया. नायडू के तर्क के अनुसार आरोपों पर जांच करने के लिए उन्हें साबित करना जरूरी होता है. इस तरह के विकृत मानदंड के साथ भी इस तथ्य को तो नहीं नकारा जा सकता था कि मिश्रा को धोखाधड़ी से जमीन हथियाने के लिए दोषी पाया गया था, और कि यह एक न्यायिक आदेश के रूप में एक साबित सत्य था. इसके अलावा मिश्रा पर मनमर्जी की बेंचों को केस सौंपने का आरोप उन चार लोगों ने लगाया गया था जो उसके लिए सबसे अधिक योग्य थे.
नायडू द्वारा महाभियोग प्रस्ताव को खारिज किए जाने के बाद विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों को मानते हुए कि मुख्य न्यायाधीश संभवत: अपने ही खिलाफ महाभियोग को नहीं देख सकते, सिब्बल चेलमेश्वर के पास गए. उन्होंने मजाक में कहा, प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट वाले मामले में जो कामिनी जैसवाल के साथ हुआ उसे वे दोहराना नहीं चाहते और सिब्बल को अगले दिन आने के लिए कहा.

इससे पहले कि यह संभव हो पाता, मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की याचिका को एक संवैधानिक खंडपीठ के सामने पेश कर दिया गया और अगले दिन उस पर सुनवाई तय कर दी गई. सिब्बल जब सुबह, ए.के. सीकरी, एस.ए. बोडबे, एन.वी. रामना, अरुण मिश्रा और ए.के. गोयल की खंडपीठ के सामने पेश हुए तो उनका जजों से एक सीधा सवाल था: इस पांच सदस्यीय खंडपीठ का गठन किसने किया है?
“मुझे उस प्राशासनिक आदेश की प्रति चाहिए जिसमें इस खंडपीठ के गठन का निर्देश दिया गया है,” सिब्बल ने कोर्ट से कहा. “ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि एक याचिका को दायर करते ही पांच सदस्यीय खंडपीठ के पास भेज दिया गया हो; और एक प्रशासनिक आदेश के जरिए, हमें आदेश पर अपना दिमाग लगाना होगा कि क्या इसको चुनौती देनी चाहिए, अगर ‘योर लॉर्डशिप’ कहते हैं कि हम इस आदेश को शायद चुनौती नहीं देंगे तो यह आदेश संविधान के इतिहास में बिना चुनौती वाला पहला आदेश होगा, कानून के राज के लिए पहला अपवाद, जिसे ‘मास्टर औफ रोस्टर’ ने अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुए जारी किया.”
खंडपीठ ने सिब्बल से कहा कि प्रशासनिक आदेश पर उनकी आपत्ति को दर्ज कर लिया गया है और अब वे मामले में अपनी दलील शुरू कर सकते हैं. सिब्बल ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. “हमें उस आदेश की प्रति मुहैय्या करवाई जाए,” उन्होंने जोर देकर कहा. “हम उस पर सवाल उठा भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन आदेश की प्रति पाना हमारा अधिकार है.” खंडपीठ ने उनसे एक बार फिर से केस के मेरिट्स पर दलील शुरू करने के लिए कहा, अगले आधे घटे तक कोर्ट में यही सब चलता रहा.
उस आदेश को दिखा देने भर से संस्था की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी, मीलौर्ड,” सिब्बल ने चुटकी लेते हुए कहा. “या आएगी?”