जकार्ता में खेले गए एशियन खेलों में भारतीय कबड्डी टीम की ईरान के हाथों सैमीफाइनल में शर्मनाक हार किसी को हजम नहीं हो रही है और लंबे समय तक यह हार खेलप्रेमियों को सालती रहेगी. एशियाड खेलों में 1990 से शामिल कबड्डी भारत के लिए शर्तिया गोल्ड मैडल दिलाने वाला खेल था ठीक वैसे ही जैसे 60-70 के दशक में हौकी हुआ करता था. जरूरी यह नहीं है कि महिला और पुरुष कबड्डी में देश गोल्ड मैडल से चूक गया, जरूरी यह है कि अप्रत्याशित परिणाम की वजहें क्या हैं.
वजहें कई हैं. मसलन, कबड्डी का ग्लोबल और प्रोफैशनल हो जाना जिस के तहत प्रो कबड्डी लीग में खिलाड़ी करोड़ों में बिकने लगे. हालांकि यह कोई हर्ज की बात नहीं है लेकिन इस से एक बात यह साबित हुई कि कबड्डी विलासियों का नहीं बल्कि दमखम वालों का खेल है जिस के लिए भारतीय खिलाड़ी जाने जाते हैं.
इस बार सैमीफाइनल में ही ईरान ने हरा कर यह जता दिया कि अगर खेल को गंभीरता से नहीं खेला तो हारने के लिए तैयार रहें. महज पिछली उपलब्धियों के आधार पर सोने का सपना देखना मुंगेरी लाल के सपने जैसा होगा. फिर आप सूरमा नहीं रह सकते.
हार के बाद भारतीय खिलाड़ी फूटफूट कर रोए लेकिन प्रशंसकों ने कोई हमदर्दी नहीं दिखाई. वह इसलिए कि वे कोई अच्छा प्रदर्शन कर नहीं हारे थे. इतनी गैरजिम्मेदाराना कबड्डी और वह भी एशियन खेलों में पहली बार खेली गई. खिलाडि़यों के बीच कोई तालमेल नहीं था और कोई भी आक्रामक मूड में नहीं दिखा. ऐसा लग रहा था कि 7 बार स्वर्णिम सफलता हासिल करने वाली भारतीय टीम इस बार हार का संकल्प ले कर गई थी जिस का ठिकरा किसी एक खिलाड़ी के सिर नहीं फोड़ा जा सकता.
ईरान की टीम लगातार 2 बार से भारत के हाथों एशियाई खेलों के फाइनल में हार रही थी जिसे बहुत हलके में लिया गया. वर्ष 2016 के विश्वकप में अहमदाबाद में पहले ही मैच में दक्षिण कोरिया ने जब भारत को हराया था तभी हम सचेत हो जाते और खिलाडि़यों की कमजोरियों को वक्त रहते दूर कर पाते तो हमें जकार्ता में पटखनी नहीं खानी पड़ती.
पुरुष टीम की हार इत्तफाक मान कर नजरअंदाज की जा सकती थी लेकिन महिला टीम ने भी फाइनल गंवा कर संदेश दे दिया कि अब कबड्डी नाम के मिट्टी के खेल से भारत की बादशाहत खत्म हो रही है. खोट खेल में नहीं खिलाडि़यों में है जो जरा सा पैसा हाथ में आते ही आसमान में उड़ने लगे हैं. सुविधाभोगी होते खिलाड़ी धार खोने लगे हैं और नियमित अभ्यास करने में उन्हें अब शर्म आने लगी है.
विश्लेषणों का दौर जारी है जिस में कबड्डी महासंघ के विवाद भी शुमार हैं, लेकिन इस से खिलाडि़यों की कमजोरियां नहीं ढकी जा सकतीं. समय है कि कबड्डी खिलाडि़यों के कान उमेठे जाएं नहीं तो देश के पास एक सुनहरा अतीत ही हौकी की तरह रह जाएगा कि हम कबड्डी के बेताज बादशाह थे और आज फकीर हो गए हैं.
एशियाई खेलों में भारत
एशियाई खेलों में कुछ भारतीय खिलाडि़यों ने शानदार प्रदर्शन कर स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक हासिल किए तो कुछ खिलाडि़यों ने प्रशंसकों को निराश भी किया. इस साल का प्रदर्शन 1978 के बाद सब से बेहतर रहा.
हरियाणा के नीरज चोपड़ा ने भाला फेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया. यह एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि एशियाई खेलों के इतिहास में पहली बार पुरुषों की भाला फेंक प्रतियोगिता में भारत को सोने का तमगा मिला. इस से पहले वर्ष 1982 में दिल्ली में हुए एशियाई खेलों में गुरतेज सिंह ने कांस्य पदक जीता था, लेकिन इसे इस देश के लिए विडंबना ही कहेंगे कि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में भाला फेंक जैसे खेल में आखिर 36 वर्षों तक वंचित क्यों रहना पड़ा?
इस का मतलब साफ है कि यहां खेलनीति पर ध्यान ही नहीं दिया जाता. प्रतिभाओं की खोज नहीं होती अगर प्रतिभाओं की खोज होती भी है तो उन प्रतिभाओं को सही से प्रशिक्षण नहीं मिलता, जबकि एशियाई खेलों में जिस तरह का खेल खेला जाता है उस के लिए गांवकसबों में बहुत सारी प्रतिभाएं मिल सकती हैं. उन्हें अगर सही ढंग से प्रशिक्षित किया जाए तो ये प्रतिभाएं एशियाई जैसे खेलों में पदकों की संख्या में इजाफा कर सकते हैं. पर यहां इक्कादुक्का खेल को ही तवज्जुह दी जाती है जिस में पैसों की बारिश हो, नाम हो, इज्जत हो, शोहरत हो.
इस से बाकी खेलों पर असर पड़ना लाजिमी है. ऐसे में संबंधित खेल से जुड़ी संस्थाएं, खेल मंत्रालय व संबंधित अधिकारियों को यह निश्चय करना होगा कि भारत को खेलों में अव्वल आना है तो एकदो खेल नहीं बल्कि बाकी खेलों के बारे में भी नई नीति बनानी होगी तभी हम चीन व जापान के खिलाडि़यों को पछाड़ सकते हैं.