‘‘सिनेमा से क्रांति नहीं आ सकती’’ ऐसा मानने वाले फिल्मकार श्री नारायण सिंह मूलतः एडीटर हैं.मगर बतौर निर्देशक उनकी पहान बनी शौचालय के मुद्दे पर आधारित फिल्म ‘‘ट्वायलेटःएक प्रेम कथा’’ से. अब वह इलेक्ट्रिसिटी के मुद्दे पर फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ लेकर आ रहे हैं. 21 सितंबर को प्रदर्शित होने वाली इस फिल्म में शाहिद कपूर, श्रृद्धा कपूर, यामी गौतम और दिव्येंदु शर्मा की मुख्य भूमिकाएं हैं.

फिल्मों से जुड़ने का निर्णय कब और कैसे लिया?

मैं उत्तर प्रदेश में बलरामपुर जिले का रहने वाला हूं. 8 किलोमीटर दूर मेरा गांव हैं बेतार महादेव. मेरे पिताजी वकील हैं. उनकी उम्र 71 साल है वह लखनउ में रहते हैं. मैं पढ़ाई में ठीकठाक था. मैंने स्नातक तक की पढ़ाई की. परीक्षा दे दी,पर रिजल्ट देखने नहीं गया. उसके बाद एक दिन शाम को मैंने घर वालों से कह दिया कि अब मैं पढ़ना नहीं चाहता.

उन लोगों को लगा कि मैं कभी कहीं घूमने नहीं जाता हूं. मैं हमेशा घर में ही रहता था. मेरे यहां अनुशासन बहुत था. बंदिशें काफी थी. आखिर मैं अपने खानदान का सबसे बड़ा लड़का था. तो मेरे पिता ने कहा कि मर्जी हो कहीं आठ दस दिन के लिए घूम कर आ जाओ. पर मैं कहीं गया नही और एक सप्ताह बाद मैंने फिर से कहा कि हकीकत में मैं पढ़ना नहीं चाहता. तो मेरे पिताजी ने गुस्से में कहा कि ठाकुर साहब फिर तुम करना क्या चाहते हो? तो मैंने कहा कि मैं वह काम करना चाहता हूं, जो मेरे खानदान में किसी ने ना किया हो. इस पर मेरे पिता ने कहा कि, ‘मेरे खानदान में किसी ने चोरी डकैती नहीं की है. तुम वही कर लो.’

हकीकत में मुझे बचपन से ही गाने का शौक था. मैं यह नहीं कह रहा कि मैं उस समय बहुत अच्छे सुर में गाता था. इसलिए मैंने पिताजी से कहा कि,‘मैं संगीत व गायन के क्षेत्र में कुछ करना चाहता हूं.’ मेरे पिताजी ने कहा कि उसके लिए उम्र चली गयी. इस उम्र में यह सब नही किया जाता. उन्होंने बहुत समझाया. पर मैंने कहा कि मैं कोशिश करना चाहता हूं. उसके बाद लखनउ आकर मैंने ‘भातखंडे’ में प्रवेश पाने की कोशिश की. पर वहां प्रवेश मिला नहीं. किसी ने कहा कि जब संगीत में करियर बनाना है,तो मुंबई जाओ. मैं मुंबई चला आया. मैंने यहां ‘संगीत महाभारती’ में प्रवेश लिया. पर मुझे एक साल इंतजार करने के लिए कहा गया. मैं वापस घर नहीं गया कि फिर वापस आने नही मिलेगा. मुंबई में ही मेरी मुलाकात मदन कुमार से हुई. उनके साथ बतौर सहायक निर्देशक काम करते हुए मैंने सीरियल ‘‘परंपरा’ के 63 एपीसोड किए. मैं मदन कुमार के साथ इस कदर जुड़ा हुआ था कि उनके निधन के बाद मैंने भी खुद को ‘परंपरा’से  अलग कर लिया. ‘परंपरा’ में सहायक निर्देशक काम करते हुए मेरा परिचय इसके एडीटर आनंद शर्मा से हो गया था. उनके साथ मैंने एडीटिंग सीखी थी. तो आनंद शर्मा ने मुझे दीप्ति नवल के यहां लगवा दिया. उस वक्त वह एक सीरियल ‘थोड़ा सा आसमान’ बना रही थीं और उनके एसोसिएट अश्विनी धीर थे. वहां से मेरा एडीटिंग में करियर शुरू हुआ. मैंने तमाम सीरियल एडिट किए.

टीवी सीरियलों की एडीटिंग करने के दौरान नीरज पांडे से मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी थी. हम हर दिन मिलने लगे थे. जब उन्होने फिल्म ‘ए वेडनेस्डे’ शुरू की, तो मुझे अपने साथ एसोसिएट निर्देशक के अलावा फिल्म के एडीटर के रूप में काम करने का अवसर दिया. सही मायने में देखा जाए तो मेरी फिल्मों की यात्रा ‘ए वेडनेस्डे’से शुरू हुई. उसके बाद मैंने नीरज पांडे की हर फिल्म की एडीटिंग करने के अलावा उनके साथ एसोसिएट निर्देशक भी रहा. फिर चाहे ‘स्पेशल 26’ हो या ‘बेबी’ हो. नीरज पांडे की कंपनी की दो फिल्मों ‘नाम शबाना’और ‘अय्यारी’ के अलावा हर फिल्म एडिट की है. इन फिल्मों के वक्त मैं फिल्म ‘ट्वॉयलेट एक प्रेम कथा’ के निर्देशन में व्यस्त था.

2012 में आपने फिल्म ‘ये जो मोहब्बत है’ निर्देशित की थी. उसके पांच साल बाद आपने ‘ट्वॉयलेट एक प्रेम कथा’ निर्देशित की. यह पांच साल का अंतराल?

हां! मैंने असीम सामंत के लिए ‘ये जो मोहब्बत है’ को निर्देशित किया था, जो कि बुरी तरह से असफल हुई थी. ऐसे में निर्देशक के तौर पर मुझे फिल्म नहीं मिलनी थी, यह बात आप भी जानते हैं. इसलिए मैं फिर से एडीटिंग में व्यस्त हो गया था. यहां पर इस तरह का संघर्ष बहुत होता है.

फिल्म ‘‘ये जो मोहब्बत है’’ की असफलता की वजहें क्या रहीं?

वास्तव में इस फिल्म को सही ढंग से रिलीज नही किया गया. इस फिल्म का जो बाक्स आफिस पर हाल हुआ था, उसकी मैंने बिलकुल उम्मीद नही की थी.पर गलत लोगों के साथ गलत समय रिलीज हुई. असीम दा अभी भी पुराने ख्यालात वाले हैं. फिल्म की कहानी व पटकथा भी गड़बड़ थी. मेरी बात को अनसुना करते हुए फिल्म ‘जिस्म’ के सामने इस फिल्म को रिलीज करवाया. फिल्म के प्रमोशन का बजट 3 करोड़ था, जिसमें 15 दिन ढंग से प्रमोशन हो सकता था. पर उन्होंने उसे डेढ़ माह बढ़ा दिया. तो प्रमोशन भी गड़बड़ हो गया. यानी कि इस फिल्म के साथ कई चीजें ऐसी हुई, जिसकी वजह से फिल्म कब आयी व कब गयी, पता ही नहीं चला.

इस फिल्म से पहले यानी कि 2008 में असीम सामंत ने मुझे बुलाया था. लेकिन तब भी मुझे उनकी उस फिल्म की कहानी समझ नही आयी थी. तो मैंने करने से मना कर दिया था. असीम सामंत के साथ मेरे घर जैसे रिशते हैं. इसलिए ‘ये जो मोहब्बतें हैं’ की कहानी पसंद ना आने पर भी मैंने निर्देशिन किया और अपनी तरफ से सेट पर कुछ बदलाव भी किए थे.

तो फिर पांच साल बाद ‘‘ट्वॉयलेटः एक प्रेम कथा’’कैसे मिली थी?

नीरज पांडे को पता था कि मुझे फिल्म निर्देशित करनी है. तो एक दिन उन्होने कहा कि लेखक जोड़ी गरिमा सिद्धार्थ आ रहे है, आप भी इस बैठक में कहानी सुनें. कहानी सुनकर मैं तो कनेक्ट हो गया. क्योंकि मैं तो ऐसी जगह पैदा हुआ हूं, जहां हर दिन सुबह लोटा लेकर बाहर जाना पड़ता है. नीरज ने पूछा कि क्या मैं इसका निर्देशन करना चाहूंगा. मैंने हामी भर दी. फिर हमने ‘ट्वॉयलेट एक प्रेम कथा’ पर काम शुरू किया. लेकिन शुरूआत में मैं इसका निर्देशक था. फिर मैं अलग हो गया. उसके बाद तीन दूसरे निर्देशक आए, पर अंत में ईश्वर की अनुकंपा से यह फिल्म मेरे ही पास आयी थी. इस बीच अक्षय कुमार को इसकी कहानी के बारे में पता चला.उ न्होने गरिमा सिद्धार्थ से कहानी सुनी. फिर वह इस फिल्म के साथ बतौर निर्माता भी जुड़ गए.

आपकी फिल्म ‘‘ट्वॉयलेट एक प्रेम कथा’ उस वक्त आयी, जब सरकार ने ट्वॉयलेट बनाने की मुहीम चला रखी थी. इसका फायदा आपकी फिल्म को मिला?

यह महज एक संयोग है. हकीकत में हमारी फिल्म की योजना 2013 में बनी थी. तब ना तो भाजपा की सरकार थी और ना ही स्वच्छता अभियान. पर ईश्वर की मर्जी की हमारी फिल्म बनने में देर हो गयी. तब तक स्वच्छता अभियान भी आ गया.

फिल्म की रिलीज के बाद किस तरह के कमेंट मिले थे?

बहुत सारे कमेंट मिले. मैं लखनउ में अपने पिता के साथ खाना खा रहा था. उसी वक्त राकेश रोशन का फोन आया. उन्होंने कहा कि, ‘आपने बड़ी स्मार्टली फिल्म को निर्देशित किया है, अन्यथा यह डॉक्यूमेंट्री बन जाती.’ सूरज बड़जात्या ने भी एसएमएस भेजा. आर बालकी सहित कईयों के संदेश आए. पर मैं गंभीरता से कहता हूं कि मुझे कुछ नहीं आता. मुझसे सब कुछ हो गया. ईश्वर की दया और माता पिता के आशिर्वाद से सब कुछ कर लेता हूं.

फिल्म‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’को लेकर क्या कहेंगे?

पहले इस फिल्म के कई निर्माताआें में से एक निर्माता प्रेरणा अरोड़ा थी. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और मेरे हाथ में सफलतम फिल्म ‘रूस्तम’ के लेखक विपुल रावल की ‘रोशनी’ नामक पटकथा पढ़ने को दी. उन्होने बताया कि यह स्क्रिप्ट शाहिद कपूर को पसंद है और वह इसमें काम करने को तैयार हैं. मैं इसका निर्देशन कर सकता हूं. मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी. कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी. पर बाकी चीजें बदलने की मुझे जरूरत महसूस हुई. मैंने अपनी राय प्रेरणा को बता दी. उनके कहने पर मैं शाहिद कपूर से मिला और उन्हें अपनी राय बतायी. शाहिद ने कह दिया कि मैं बदलाव कर सकता हूं. उसके बाद मैं विपुल रावल से मिला. विपुल ने मेरी बात सुनी और कहा कि उनकी पटकथा पश्चिम है तो मेरी सोच पूर्व की है. पर बाद में विपुल रावल ने कहा कि मैं जिस ढंग से चाहूं, उस ढंग से काम कर सकता हूं. तब मैंने गरिमा सिद्धार्थ से इसी आइडिया पर पटकथा लिखवायी. क्योंकि गरिमा सिद्धार्थ से मेरे इक्वेशन बहुत अच्छे बन चुके हैं. पर पटकथा को अंतिम रूप देने से पहले हमने उत्तराखंड मेंं टेहरी गढ़वाल, देहरादून, ऋषिकेश व अन्य जगहों पर शोधकार्य किया. अब यह फिल्म रिलीज होने जा रही है.

‘‘रोशनी’ को ‘बत्ती गुल मीटर चाल’’ में परिवर्तित करते समय किस तरह के बदलाव किए?

रोशनी की कहानी मुंबई पर आधारित थी. पर मैं अपनी फिल्म की कहानी को छोटे शहर लेकर गया, जिससे कहानी के साथ ज्यादा लोग जुड़ सकें. मैंने स्वयं बहुत कुछ देखा है. मैं बलरामुपर कस्बे से आता हूं जहां मेरी याद में कभी भी चार घंटे से ज्यादा समय तक इलेक्ट्रीसिटी नहीं रही. हमने कहानी में कुछ नए किरदार, परिवार,रिशतों को जोड़ते हुए कहानी में कई लेअर बढ़ाए. ‘रोशनी’ में पूरी कहानी शाहिद के एंगल से चल रही थी. पर मैंने दोस्त वगैरह जोड़ दिए. पर अभी भी ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ शाहिद कपूर के किरदार संतोश बल्लभ पंटोला की ही यात्रा है.

फिल्म में सरकार निशाने पर है या प्रायवेट बिजली कंपवनी?

हमने यह फिल्म किसी को भी कटघरे में खडा करने के लिए नही बनाया. मेरा सिर्फ इतना मानना है कि गलती इंसान से ही होती है. मीटर रीडिंग लेने वाला आदमी कागज पर कुछ लिखकर लाया, जिसे बिल बनाने वाले ने कुछ और समझा. पर इस मानवीय भूल की वजह से जो इंसान प्रताड़ित हो रहा है, उसकी पेरशानी का जिक्र है. एक इंसान की गलती को सुधारने के लिए उसे कहां कहां तक दौड़ना पड़ता है और उसके साथ क्या होता है, इसका जिक्र है. इसके अलावा हमने आम लोगों को कुछ जानकारियां भी दी हैं. मेरा मानना है कि मेरे कहने से कुछ बदलाव नहीं आएगा. मैं इस भ्रम में नही जीता कि सिनेमा से क्रांति आ जाएगी. मेरा मानना है कि फिल्म से ना तो क्रांति आती है, ना ही कोई बदलाव. हमारे दिल में जो बात आयी, हमने उसे कहानी के रूप में पेश कर दिया.

आप कहते है कि सिनेमा से क्रांति नहीं आती है. तो फिर सामाजिक मुद्दे पर बनी फिल्म का असर नही होता?

देखिए, क्रांति नहीं आती है. पर फिल्मों का असर होता है. इतिहास गवाह हैं मीडिया का हमारे समाज पर बहुत असर पड़ता है. वर्तमान में क्या हो रहा है, उस पर मैं चर्चा नहीं कर सकता. पर जब बेलपत्र चलते थे तब तो क्रांति आ आयी थी. फिल्म में जो सामाजिक मुद्दे उठाए जाते हैं उनका असर होता है.

आपने बहुत सारी अगूंठिया व कई तरह की मालाएं पहन रखी हैं.लगता है आप ज्योतिष में बहुत यकीन करते हैं?

यह मसला ज्योतिष का नहीं है. में ज्योतिष की बजाय ऊपर वाले पर यकीन करता हूं. हम जिस परिवार से आते हैं, वहां बहुत पूजा पाठ की जाती है. मेरे पिताजी सुबह चार घंटे व रात को दो घंटे पूजा करते हैं. तो उसका असर मुझ पर है.

सोशल मीडिया से फिल्म को कितना फायदा कितना नुकसान होता है?

सोशल मीडिया की वजह से हम अपनी चीज लोगों तक जल्दी पहुंचा देते हैं. पर उसे दर्शक मिलते हैं या नहीं, इसका जवाब मेरे पास नहीं है. आप दर्शक को बहका नहीं सकते.

एडीटर के डायरेक्टर बनने पर क्या फायदा होता है?

काम आसान हो जाता हैं.क्योंकि उसे पता होता है कि उसे कहां क्या चाहिए. कहां कट करना है. मुझे थोड़ी बहुत तकनीक की जानकारी है.

 

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