क्षितिज के पार ‘सूर्य’
कुल अलसाया था
अदृश्य हो रहा है
पर, वही सुबह समय
उल्लास, आशा भर देने वाला है.
कभीकभी अंधेरा होने पर
आंखें अपनेआप बंद होती हैं
कुछ खट्टीमीठी यादें
आंखों के सामने
घूमने लगती हैं.
‘दिया’ लगने के पूर्व किटकों की
किर्रकिर्र ध्वनि
नैराश्य थकावट
आजूबाजू का अंधेरा देख
‘इस लोक’ से प्रयाण के पूर्व
‘गला भर’ आता है-
पैर लटपटाने लगते हैं
मन जलने लगता है
क्यों घिसट रहे हैं शरीर को
मेरी दशा ऐसी क्यों
रहेगी भी कब तक?
सूर्योदय होगा
जीने की तमन्ना जाग उठेगी
फिर, दिन ढलने के समय
शाम उदास क्यों?
- अविनाश दत्तात्रय कस्तुरे
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल
(1 साल)
USD48USD10

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन
(1 साल)
USD100USD79

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...
सरिता से और