एक वक्त था जब खेलों में न तो सुविधाएं थीं, न खिलाड़ियों की वाहवाही होती थी और न ही ब्रैंडेड जूते होते थे. लेकिन फिर भी खिलाड़ी गोल्ड मैडल जीत कर लाते थे. पर आज सबकुछ होते हुए भी गोल्ड मैडल के लिए भारतीय हौकी टीम तरस रही है.

आखिरी बार 29 जुलाई, 1980 में मास्को ओलिंपिक में भारतीय हौकी टीम ने स्वर्ण पदक जीता था. हौकी की दुर्दशा के बारे में सभी जानते हैं. पर बुलंदियों तक कैसे पहुंचा जाए, इस पर शायद ही कोई चिंता कर रहा हो. न सरकार, न खिलाड़ी और न ही खेल पदाधिकारी. खिलाड़ी मेहनत तो करते हैं पर हर बार मात खा जाते हैं, जबकि सुविधाएं उन्हें मिल रही हैं. अब तो पैसे भी उन्हें ठीकठाक मिलने लगे हैं. बावजूद इस के, वे गोल्ड मैडल से चूक जाते हैं.

पूरी दुनिया में अपना दबदबा कायम करने वाली भारतीय हौकी को अब हो क्या गया है? आखिर ध्यानचंद सरीखे खिलाड़ी क्यों नहीं मिल रहे हैं? क्या प्रतिभाओं की कमी है इस देश में? ऐसे कई सवाल हैं जो हमेशा मन को कुरेदते रहते हैं.

वर्ष 1964 में टोक्यो ओलिंपिक में हौकी में भारत ने जब स्वर्ण पदक हासिल किया था, तब स्पेन, आस्ट्रेलिया, नीदरलैंड्स व जरमनी जैसी टीमें उभरने लगी थीं. उस के बाद इन देशों के खिलाडि़यों ने काफी मेहनत की, नई तकनीक और नईनई प्रतिभाओं को मौका मिला और इन प्रतिभाओं ने खूबसूरत तरीके से कलाइयों का इस्तेमाल कर, लंबे पास दे कर साबित भी कर दिखाया. इस के उलट भारतीय हौकी दिनोंदिन कमजोर होती चली गई.

दुख इस बात का है कि पहले पायदान से लुढ़क कर आज हम कहीं नहीं हैं जबकि सरकार और खेल संघ हौकी को ले कर बहुत लंबीचौड़ी बातें करते हैं कि खिलाडि़यों की बुनियादी सुविधाओं में कोई कमी नहीं है, प्रतिभाओं की खोज की जा रही है. पर हकीकत में देखा जाए तो सरकार की उदासीनता व खेल संघों की राजनीति ने हौकी को पतन के गर्त में धकेल दिया है. वर्ष 2008 में भारतीय हौकी टीम बीजिंग ओलिंपिक में क्वालीफाई तक नहीं कर पाई, स्वर्ण पदक की तो बात छोड़ ही दीजिए.

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