हमारे यहां विवाह को सात जन्मों का बंधन माना जाता है, जहाँ  अग्नि के सात फेरे ले कर दो तन, और मन एक पवित्र बंधन में बंधते हैं लेकिन कई लोगों के लिए एक ही जीवन में यह गठबंधन दूभर होने लगता है . ऐसे में कल्पना कीजिए कि लड़का और लड़की के परिवार शादी की तैयारियों पर विचार करने की बजाय ऐसे किसी  समझौते पर विचार-विमर्श कर रहे हो जिसमे इस विषय पर बात हो रही हो कि विवाह टूटने की सूरत में दोनों को क्या-क्या संपत्ति मिलेगी .ऐसा ही कुछ विचार विमर्श  भारतीय परिवेश में भी देखने को मिल रहा है .

हाल में ही महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने कानून एवं न्याय मंत्री डी वी सदानंद देवगौड़ा से विवाह से पूर्व समझौते  को अनिवार्य बनाने जाने की सिफारिश की. यह सिफारिश इसलिए की गई है क्योंकि आर्थिक सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों में महिलाओं को विवाह उपरांत जायदाद और तलाक के दौरान संपत्ति आदि विषयों में काफी जिल्लत झेलनी पड़ती है. गौरतलब है कि मंत्रालय लम्बी न्यायिक प्रणाली, महिला सुरक्षा, सम्पत्ति में उचित अधिकार आदि के मद्देनजर भी इस क़ानून को पारित करवाना चाहता है. हालाँकि यह निर्णय केंद्र और संसद के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि एक ओर तो यह भारतीय परंपरा से जुड़ता है तो वहीं पितृसत्तात्मक समाज में एक महिला को अपने स्वतंत्र चुनाव का कानूनी अवसर देगा. वित्तीय योजनाकारों का कहना है कि विवाह में बंधने से पहले यह शुरुआत अच्छी हो सकती है.विवाह पूर्व समझौते में जायदाद, देनदारी, कारोबार और उस पर मालिकाना हक सहित सभी बातें शामिल होती हैं. इससे दोनों पक्षों को विवाह से पहले एक दूसरे की वित्तीय स्थिति जानने में भी मदद मिलेगी.

वैवाहिक संबंध खराब होने के बाद स्त्री अगर तलाक लेने के बारे में सोचती है तो वह आगे के जीवन के संबंध में अनिश्चित रहती है और पुरुष अगर तलाक लेना चाहता है तो उसे अव्यावहारिक मांगों का सामना करना पड़ता है. इससे दोनों अपना जीवन घुट-घुटकर जीते हैं.‘विवाह पूर्व समझौता’ विवाह से पहले दोनों पक्षों के बीच एक लिखित समझौता होगा जिसमें दोनों द्वारा अलग-अलग होने के तौर-तरीकों के अलावा संपत्ति, देनदारी, जिम्मेदारी और कर्तव्यों का ब्योरा रहेगा. इसको संबंधित अधिकारी के पास पंजीकृत कराना होगा और इसकी कानूनी बाध्यता होगी.समझौते में तलाक होने की स्थिति में संपत्ति के मालिकाना हक का भी ब्योरा होगा .

अगर हम भारतीय समाज का मनोविश्लेषण करें तो एक सहज सवाल यह खड़ा होता है कि क्या वाकई हम ऐसे उदार और आधुनिक क़ानून के लिए तैयार हैं, क्या हमारा समाज इस कानून को स्वीकार कर पाएगा? क्या शादियों को बनाए रखने के लिए कोई  कानून हो सकता  है, जो विवाह को टूटने से बचाए और यदि टूटने से नहीं बचा सकता  तो कोई ऐसा करार जो दोनों ही पक्षों के लिए राहत देने वाला हो. क्योंकि जब भी शादी टूटती है तो सबसे ज्यादा असर निराश्रित की देख-रेख पर ही पड़ता है. जो भी सदस्य पैसा नहीं कमाता है, उसके लिए जीवन जीना मुश्किल हो जाता है. चूंकि आमतौर पर महिलाएं वित्तीय रूप से कमजोर होती हैं, वे लंबी अदालती लड़ाई का भार वहन नहीं कर पाती हैं. साथ ही यह पुरुषों के लिए भी ठीक इस लिहाज से हो सकता है, क्योंकि उन्हें भी संबंध विच्छेद में अनाप-शनाप मुआवजे की मांग को नहीं मानना पड़ेगा क्योंकि कई मामलों में महिलाएं संबंध टूटने पर कानून का दुरुपयोग करती हैं.

जहां तक पश्चिम की बात है तो वहां की सभ्यता में ऐसे करार होते हैं . पश्चिमी देशों में ‘विवाह पूर्व समझौते’ की प्रणाली प्रभाव पूर्ण ढंग से चल रही है. विकसित देशों जैसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों में यह चलन काफी दिनों से है..हालांकि,विवाह  के टूटने का जो दुख भावनात्मक स्तर पर होता है, वह ऐसे किसी करार की सहायता से पाटा नहीं जा सकता .

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