फुटबौल की खुमारी पूरे शबाब पर है और फीफा विश्वकप की मेजबानी इस बार रूस के हाथों में है. लेनिन के देश में 15 जुलाई तक चलने वाले फीफा फुटबौल विश्वकप के लिए राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन कोई 2-3 अरब डौलर नहीं बल्कि तकरीबन 12 अरब अमेरिकी डौलर खर्च कर रहे हैं. माना जा रहा है कि फीफा के बहाने पुतिन रूस की बदहाली को छिपा कर देश की ब्रैंडिंग करना चाहते हैं. इस के पीछे की वजह यही समझ में आती है कि रूस कम्युनिज्म की असफलता को फुटबौल से जोड़ने की कोशिश कर रहा है. 70-80 के दशक तक कार्लमार्क्स और लेनिन की विचारधारा पूरी दुनिया में पूछी जाने लगी थी.
हर कोई इस बात से सहमत हो रहा था कि पैसों का वितरण समानरूप से होना चाहिए. एकाएक ही जब मार्क्सवादी अपने सिद्धांतों के प्रति जरूरत से ज्यादा कट्टर, पूर्वाग्रही और उग्र होने लगे तो उन का विरोध शुरू हो गया. पूंजीवादी देशों ने इस स्थिति का पूरा फायदा उठाया और धड़ाधड़ कम्युनिस्ट देशों पर आर्थिक प्रहार शुरू कर दिया. लेकिन तब इस लड़ाई में खेल कहीं नहीं थे. यूरोपीय देशों ने लौन टैनिस और क्रिकेट को एक प्रोडक्ट की तरह दुनियाभर में बिछा दिया और उस का कारोबार करने लगे. सीधेसीधे कहा जाए तो आज खेल पूंजीपतियों का आर्थिक हथियार बन कर रह गया है जिस का सब से ज्यादा प्रभाव एशिया और अफ्रीकी देशों पर पड़ा है.
उदाहरण रूस का लें तो वह आमतौर पर खेलों में अलगथलग पड़ता जा रहा था. इधर उस के परंपरागत प्रतिद्वंद्वी अमेरिका ने रग्बी, बास्केट बौल, गोल्फ, पोलो, बेस बौल जैसे महंगे खेलों के जरिए खूब नाम और पैसा भी कमाया. फुटबौल वर्ल्डकप के महंगे आयोजन से रूस की अर्थव्यवस्था पर क्या फर्क पड़ना है, इस का आकलन हालफिलहाल कोई नहीं कर रहा है. आगे चल कर हालात और भी भयावह हो सकते हैं, क्योंकि रूस यह आयोजन सिर्फ दिखावे के लिए कर रहा है वरना तो उसे पूंजीपति देशों की तरह खेलों से पैसा बनाना आता ही नहीं.
एक समय था जब फुटबौल कमजोर तबके और गरीबों व वंचितों का खेल माना जाता था पर आज के समय में फुटबौल का बाजार बहुत बड़ा हो गया है.
अभी तक फुटबौल के जितने भी महान खिलाड़ी रहे हैं, इक्कादुक्का को छोड़ सभी गरीब देशों से आते हैं. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. अब तो ज्यादातर फुटबौल खिलाड़ी श्वेत, पढ़ेलिखे और आर्थिक रूप से संपन्न देशों के रहे हैं. अब तो फुटबौल क्लबों की फीस ही हजारों डौलरों में होती है. ग्रेग कैपलम और रोजर बेनेट के एक शोध में सामने आया कि मातापिता बच्चे की फुटबौल कोचिंग पर तकरीबन 12 हजार डौलर प्रतिवर्ष खर्च करते हैं.
इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि फुटबौल अब गरीबों व वंचितों का खेल नहीं रह गया है. इस में भी अब क्रिकेट की तरह खास लोगों का वर्चस्व है. मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे अब इस खेल से दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि उन के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे क्लबों की भारी फीस चुका सकें. कुल मिला कर कहा जाए तो खेल खेल नहीं रहा, अब पूरी दुनिया इसे पैसों से तोलने में लगी हुई है. फीफा की खुमारी
फुटबौल के महाकुंभ फीफा विश्वकप में भारत भले ही शिरकत नहीं कर पाया हो, लेकिन इस का खुमार साफतौर पर देखा जा सकता है. खासतौर से युवाओं में, जो यह नहीं जानते कि फुटबौल का वजन कितना होता है और मैदान की चौड़ाई व लंबाई कितनी होती है. इन बातों का मीडिया और सोशल मीडिया की बकवास से गहरा संबंध है कि युवा ऊब कर फुटबौल की तरफ भाग रहे हैं. ये वे युवा हैं जो पढ़नेलिखने से इसलिए कतराते हैं कि इस से उन्हें अपनी वास्तविकता का आभास होने लगता है. अगर यही युवा अपना समय पढ़ाईलिखाई में गुजारें तो न केवल उन का सामान्य ज्ञान बढ़ेगा बल्कि तर्कक्षमता भी विकसित होगी. प्रतिस्पर्धा में आगे रहने से जो चीजें पत्रपत्रिकाओं से मिलती हैं उन्हें फुटबौल के मैदान में ढूंढ़ने की गलती युवा अगर कर रहे हैं तो उन के हाथ में सिवा ताली बजाने के और कुछ नहीं लगता.