रामू काका डौट कौम का बोर्ड जब मेरे कार्यालय के सामने प्रौपर्टी डीलर का बोर्ड हटा कर लगाया गया तो मेरी समझ में कुछ न आया. कैंपस में 12 दुकानें हैं और उन के पीछे कहीं सिंगल, कहीं डबलरूम सैट बने थे. आगे की दुकानों में ज्यादातर कार्यालय और पीछे सुविधानुसार रिहाइश या स्टोर. रामू काका डौट कौम वाली दुकान के पीछे 2 कमरों का सैट था, मतलब कोई परिवार रह सकता था. रामू काका डौट कौम का बड़ा सा बोर्ड दूधिया ट्यूबलाइट में जगमगा रहा था. कैंपस में एक डाक्टर का क्लीनिक, एक लैब, मैडिकल स्टोर, औप्टिकल सैंटर, मोबाइल रिपेयर, ब्यूटीपार्लर, फैशन पौइंट, रेडीमेड गारमैंट्स, बीमा एजेंट, एक हलवाई और एक नाई था. सीढि़यों के नीचे छोटी सी नाई की दुकान के आगे बौंबे हेयर कटिंग का बोर्ड टंगा था. कैंपस के सभी लोग अपनेअपने काम के साथ एकदूसरे के धंधे की चालाकियां, ग्राहकों की नौटंकी और आने वाले लोगों पर पूरी नजर रखते.
खाली समय में एकदूसरे पर तंज कसते और खट्टीमीठी नोंकझोंक मनोरंजन का काम करती. अलगअलग कामधंधे के बावजूद पूरा कैंपस एक यूनिट की तरह था. किसी एक के साथ गड़बड़ होती तो सभी का समर्थन तुरंत मिल जाता. कैंपस से ग्राहक खाली हाथ न लौटे, यह सामूहिक प्रयास रहता. रामू काका डौट कौम का कार्यालय 4 दिनों तक जब नहीं खुला तो कैंपस में चर्चा आम हो गई. आखिर है क्या बिजनैस? कौन रहेगा, क्या करेगा? सभी जानने के लिए उत्सुक. कानाफूसी हो रही थी – न जाने क्या धंधा होगा, कैंपस को सूट भी करेगा या नहीं. नाम तो कुछ मौडर्न, कुछ अजीब सा है-रामू काका डौट कौम. 5 दिन बाद एक तिलक, चुटिया, धोतीधारी अधेड़ ने कार्यालय खोला. 2 गंवई से युवक उन के साथ थे.
मेरा बीमे का काम सुबह के समय कम रहता है, हाथ में नए वर्ष का कलैंडर उठाए मैं ने उन के कार्यालय में दस्तक दी. उन्होंने तुरंत अभिवादन करते हुए स्वागतम की मुद्रा में हाथ जोड़े. मैं ने संक्षेप में अपना परिचय दिया और हाथ में पकड़ा बीमा निगम का कलैंडर आगे बढ़ा दिया. कामकाज तो उन के पास भी न था, न कोई ग्राहक. मैं ने अंदर झांक कर देखा, कोई सामान न था. कार्यालय में कुछ ही चीजें नजर आईं- एक लैंडलाइन जैसा हैंडसैट वाला टैलीफोन, दीवार पर टंगा 14 इंच वाला रंगीन टीवी, एक लैपटौप, 4-6 कुरसियां और वाटरकूलर के ऊपर औंधा धरा गिलास. मैं ने पूछा, ‘‘भाईसाहब, कब कर रहे हो शुरुआत?’’
‘‘अरे, वह तो हो गई. बैठ गए न गद्दी पर. अब देखते हैं, क्या होता है.’’
‘‘माल कब आ रहा है?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.
‘‘माल थोड़े न बेचेंगे.’’
‘‘तो खरीद करोगे?’’
‘‘न खरीदेंगे, न बेचेंगे.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘मैं, राधेश्याम राधेश्याम, एक कंपनी चलाता हूं. यहां सिर्फ औफिस रहेगा.’’ मेरे पल्ले अभी भी कुछ खास न पड़ा था, उस ने ज्यादा खुलासा न किया और अपनी नजरें टीवी पर गड़ा दीं. मैं वापस अपने औफिस आ गया यह सोच कर कि मार्केट में बैठा है, क्या करेगा, एक दिन तो पता चल ही जाएगा.
दूसरे दिन सुबह अखबार खोला तो उस में रामू काका डौट कौम का परचा पाया. उस में लिखा था, ‘घरेलू नौकर, रसोइया, माली, वौचमैन, केयरटेकर के लिए उम्दा एवं भरोसेमंद सेवा अब आप के शहर में आप के द्वार पर उपलब्ध है. काम देख कर रेट तय होगा. केवल पुरुष नौकर के लिए ही आवेदन करें. महिलाओं की सेवा हेतु गंगू बाई डौट कौम पर संपर्क या लौग इन करें.’ परचे में नीचे 2-3 मोबाइल नंबर और मेल आईडी लिखी थी. लोकल टीवी चैनल पर विज्ञापन की पट्टी लगातार चल रही थी, ‘उचित दामों पर प्रशिक्षित घरेलू नौकर, रसोइया, माली, वौचमैन, केयरटेकर के लिए संपर्क करें- रामू काका डौट कौम, स्वामी हरिगिरी कौंप्लैक्स.’ सुबह 11 बजने तक कौंप्लैक्स में भीड़ जुटनी शुरू हो गई. रामू काका डौट कौम में खूब चहलपहल थी. 2-4 क्लाइंट हर वक्त लाइन में रहे.
संचालक राधेश्याम बता रहे थे, ‘‘सर, हमारी सेवाएं लीजिए, सभी झंझटों से छुटकारा पाएं. पुलिस वैरीफिकेशन से ले कर कोई नौकर बड़ा नुकसान कर दे या मालमत्ता ले कर भाग जाए, उस की जिम्मेदारी हमारी. रजिस्टर्ड संस्था है. हमारे पास लगभग सभी जाति के नौकर मिलेंगे, ज्यादातर ब्राह्मण हैं जिन से आप रसोई और अन्य सभी काम ले सकते हैं. एक महीना रख कर देखिए, काम में शिकायत हो तो हमारे नंबर पर शिकायत दर्ज करवाएं. 24 घंटे के अंदर रिजल्ट मिलेगा. फिर भी संतुष्ट न हों तो पहली तारीख को तबादला कर के दूसरे की व्यवस्था करना हमारी जिम्मेदारी रहेगी.’’
एक पार्टी ने पूछा, ‘‘ब्राह्मण ही क्यों रखे हैं?’’
‘‘क्या करें साहब, आरक्षण की मार से त्रस्त हैं. थोड़ीबहुत नौकरियां हैं तो वे उच्च कुलीन, सरमाएदार सवर्णों के लिए हैं. हम गरीबगुरबा तो यही करेंगे. घर से कोसों दूर कौन भांडे माज रहा है और कौन झाड़ू दे रहा है, यह कौन जानता है. बस, घर का चूल्हा जलना जरूरी है. इस के लिए हम गांवदेहात से योग्य एवं ईमानदार लोग भरती करते हैं. उन्हें प्रशिक्षित करते हैं. फिर योग्यतानुसार काम देते हैं ताकि नौकर और मालिक को कोई परेशानी न हो. इस कार्यालय में हर माह मालिकों की मीटिंग होती है. वहां वे अपनी समस्याएं बता सकते हैं.’’
दूसरी पार्टी ने पूछा, ‘‘वेतन कैसे तय करते हैं?’’
‘‘फिक्स रेट है जी. यह बोर्ड देखिए-
साधारण घरेलू नौकर – 5 हजार रुपए प्रतिमाह.
वौचमैन, केयरटेकर – 5 हजार रुपए प्रतिमाह.
माली – 6 हजार रुपए प्रतिमाह
रसोइया एवं ड्राइवर – 7 हजार रुपए प्रतिमाह.’’ बोर्ड के नीचे एक नियमावली भी चस्पां थी- ‘झाड़ूपोंछा, बरतन मांजना कपड़े धोना, कुत्ता पालने का अतिरिक्त रुपया देना होगा. साधारण नौकर माली, रसोइया और वौचमैन के काम नहीं करेगा. वौचमैन किसी का सामान नहीं उठाएगा. रसोइया शाकभाजी एवं दालमसाले बाजार से स्वयं लाएगा, मालिक को केवल रुपए देने होंगे.’ बीच में बोल्ड अक्षरों में एक विज्ञापन था- ‘रामू काका डौट कौम आएं घरेलू झंझटों से छुटकारा पाएं, चार दिन की चांदनी है, जीवन को मजेदार बनाएं.’
‘फार्म पर पता, फोन नंबर, पद, पेशा अवश्य भरें तथा घोषित करें कि वे नौकरों पर घरेलू हिंसा नहीं करेंगे, और वेतन हर माह की 2 तारीख को ऐडवांस जमा करवाएंगे. फार्म का मूल्य केवल 100 रुपए.’ नीचे एक चलताऊ सी तुकबंदी लिखी थी- ‘नौकर के लिए रिहाइश, खानापीना, कपड़ा, जूता मालिक के सिर.’ जब से रामू काका डौट कौम हमारे शौपिंग कौंप्लैक्स में आया है, रौनक बढ़ गई है. चायसमोसे वाले की तो पौबारह हो गई. खुद राधेश्याम शाम तक खूब चाय और ठंडा मंगवाता है. अमीर लोगों की गाडि़यों की रेलमपेल मची रहती है. कौंप्लैक्स में हर किसी का बिजनैस बढ़ा है. महीनाभर लोग रजिस्ट्रेशन करवाते रहे. नौकरों की पहली खेप ब्लैक में बंटी. अतिरिक्त सरचार्ज देने वाले को नौकर पहले उपलब्ध करवाए गए. फिर दूसरी और तीसरी खेप भी शहर में सेवार्थ आ पहुंची. देरी से रजिस्ट्रेशन करवाने वाले प्रतीक्षा सूची में पड़ेपड़े इंतजार कर रहे थे. धंधा चल निकला, प्रतीक्षा सूची लंबी होती गई.
कुछ दिनों तक सब ठीक चला मगर महीने बाद ही शिकायतों की फाइल मोटी होने लगी, टैलीफोन की घंटी घनघनाने लगी. राधेश्याम ने अब अपने 2 रूम सैट के एक कमरे को अदालत में तबदील कर लिया. शिकायत वाली फाइल खुलती, जिस नौकर की शिकायत निकलती, राधेश्याम उस का 500 रुपया उस के वेतन से पहले ही काट लेते, फिर होता शिकायत का निबटारा. दोबारा शिकायत आने पर 1 हजार रुपए काटे जाते. शिकायत में लिखी एकएक बात विस्तार से पूछी जाती. उत्सुकतावश मैं भी खाली समय में राधेश्याम की अदालत में कार्यवाही देखने पहुंच जाता. केस नं. 1 : पहला मामला राम गोपाल के यहां काम कर रहे लल्लू का था. राधेश्याम ने जिरह शुरू की. खुद ही आरोपी और खुद ही जज, ‘‘हां, तो लल्लू, यह बताओ कि 4 किलो दूध की मलाई रोजरोज कहां गायब हो जाती है? और टौयलेट में बीड़ी पीने के बाद हाथ भी नहीं धोते? बोल, सुधरेगा या कटवा दूं वापसी का टिकट?’’
‘‘माफ कर दें बड़े भाई, आगे ऐसा नहीं होगा.’’
‘‘चल, भाग ले अब.’’
केस नं. 2 : दूसरा मामला भीमश्री रंगनाथन के नौकर का था. राधेश्याम ने डपट कर पूछा, ‘‘तो रजकजी, ‘‘बताइए सब्जीभाजी, दही और बडि़यां लेने में कितना टांका लगा रहे हो? हिसाबकिताब पर मालिक को प्रवचन सुनाते हो. रजक की औलाद, वहां गांव में मैला ढोने की भी मजदूरी नहीं मिलती. सुधरेगा या जाएगा गांव वापस?’’
रजक ने पैर पकड़ लिए, ‘‘दोबारा गलती न होगी, दाऊ.’’
केस नं. 3 : मामला प्रीति खन्ना के घर में काम कर रहे चुन्नू का था. राधेश्याम ने पूछा, ‘‘चुन्नू, बताओ फूलपौधों के नाम आई खाद और स्प्रे कहां बेच दी? खाली पानी का छिड़काव करते फिरते हो?’’
‘‘यह सरासर झूठ है, हम चोर नहीं.’’
‘‘अबे मंडल के डंडल, अक्ल होती तो यहां आ कर घास क्यों छीलता. तू ने माल भी बेचा तो अपने मालिक के रिश्तेदार की दुकान पर…फिर ससुरा किस मुंह से हरिश्चंद्र बन रहा है. चल, तेरा तबादला करता हूं खान की जगह, उस की जगह पहुंच जा और उसे अपनी जगह भेज दे.’’
केस नं. 4 : धनपत के यहां काम कर रहे कमल का मामला था. राधेश्याम ने जिरह की, ‘‘कमल, यह बताओ कि तुम्हें भांडे मांजने या झाड़ू बुहारने के लिए भेजा है या ज्ञान झाड़ने? मालिक कितना भी बड़ा मूर्ख क्यों न हो, उस के आगे ज्ञान दिखाने या बड़ा बनने की जरूरत नहीं. तुम छोटे रहोगे तो ही उन्हें मालिक होने की फीलिंग आएगी. मालिक के आगे ज्ञान दिखाने की जरूरत नहीं. लल्लू बने रहो. और हां, तुम उन की व्हिस्की की बोतल से पैग निकाल कर उस में पानी क्यों डाल देते हो? चलो दफा हो जाओ, दोबारा शिकायत आई तो हजार रुपए काट लूंगा.’’
केस नं. 5 : मामला एक बंगले में रखवाली करते चिंटू का था. राधेश्याम ने उस से कहा, ‘‘चिंटू, आप ने मालिक के टौमी के साथ क्या किया, स्वयं ही बताओ, क्या समस्या है?’’
‘‘क्या बताऊं, दाऊ, अपनी जिंदगी तो कुत्ते से भी बदतर है. शैंपू से नहाना, गाड़ी में जाना. मालिक उसे दिन भर साथ घुमाते हैं तो रात को साथ सुलाते हैं. उसे टौयलेट कराने मैं ले जाता हूं, फिर भी काटने को मुझे ही दौड़ता है. यह देखिए, मेरी टांग. जहांतहां कितनी बार नोंच ली. मालिक कहता है टीके लगवाए हैं, कुछ न होगा. मैं ने उसे भांग की गोली दी, तो फिर वह अपनी ही पूंछ को पकड़ने के लिए 3 दिन गोलगोल घूमता रहा.’’
‘‘अबे मुसहर के मूसल, बड़े लोग हैं, गायभैंस तो पालेंगे नहीं. तुम लोग कुत्तों से बैर रखोगे तो हो गई नौकरी. अपनाअपना समय है, समझते क्यों नहीं. चल, दोबारा ऐसा मत करना.’’
केस नं. 6 : मामला ऐश्वर्या के घर पर नौकरी करने वाले सूमू द्विवेदी का था. राधेश्याम ने उस से पूछा, ‘‘द्विवेदी, बताओ, मालकिन के सिर मालिश करतेकरते तबीयत बिगड़ गई कि इधरउधर हाथ मारने लग पड़े. शुक्र है मालिक ने तुझे 4 जूते मार कर छोड़ दिया, गोली नहीं मारी. तेरे बच्चे सारी उम्र जूते गांठते रहते.’’
‘‘हम तो रोज ही अच्छे से मालिश करते रहे दाऊ. मालकिन ने कई बार इनाम भी दिया है. अब मालिक ने देख लिया तो हम क्या करें? मालकिन ने तो कुछ नहीं कहा, दाऊ.’’
‘‘अबे, अक्ल के अंधे, मालिशवालिश छोड़, आज से तुझे वौचमैन की ड्यूटी पर लगाता हूं. तन कर खड़े रहना सारा दिन तब अकड़ टूटेगी तेरी.’’
केस नं. 7 : मामला रमा देवी के कार्यालय में सेवक का कार्य कर रहे रूप का था. राधेश्याम ने रूप को डांटा था, ‘‘अरे द्विवेदी, वौचमैन की वरदी में खुद को एसएसपी समझने लगे हो? क्या जरूरत है सोसाइटी की महिलाओं के बैग की तलाशी लेने की? महिलाओं के अंडरगारमैंट्स निकालनिकाल कर क्या ढूंढ़ रहा था? यह ठीक रहा कि मालिक 4-6 जूते मार कर छोड़ दिया वरना तेरी खाल खींच लेते वे. बोल, कहां भेजूं?’’
केस नं. 8 : सेना के एक कर्नल की कोठी में काम करने वाले केयरटेकर गंगू का मामला था. राधेश्याम ने कहा, ‘‘गंगू, तुम बताओ कर्नल साहब की कोठी को रैस्टहाउस बना डाला. सारे शहर के जुआरी और शराबियों का अड्डा बना रखा है और फिर सफाई भी नहीं रखते. शुक्र मनाओ कि उन की बेटी आ धमकी. कर्नल साहब पधारे होते तो तुम कहां होते, पता न चलता. कल से माया सोसायटी चले जाओ, तन कर 12 घंटे खड़े होगे तो सारी होशियारी चली जाएगी.’’ शाम को औफिस से निकलने लगा तो राधेश्याम ने आवाज दी, ‘‘बाबू साहब, आज रुको हमारे पास, पार्टी करेंगे.’’ कुछ खानेपीने के बाद राधेश्याम खुद ही बोले,
‘‘लगता है रामू काका डौट कौम बंद ही करनी पड़ेगी.’’
मैं ने पूछा, ‘‘क्यों, अच्छीभली तो चल रही है, पैसा भी खूब कमा रहे हो.’’
कामचोर, निखटू लोगों की जो जमात मैं ने इकट्ठी कर रखी है.
‘‘ऊंह, पैसा तो है मगर किसी दिन ये सारे मुझे मरवा देंगे.’’
‘‘मैं समझा नहीं?’’
‘‘बाबूजी, ये सारे निखद किसी काम के नहीं. गांव में 2 दिन की मजदूरी के लिए तरसते हैं, यहां अच्छा खातेपीते ही इन के दिमाग पर चरबी चढ़ जाती है. अच्छे घरों में, बढि़या जगहों पर काम दिला दिया. अच्छा खापी रहे हैं. मगर इन के काम वही रहे. बाहर जा कर मजदूरी भी करें तो हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी पल्ले कुछ नहीं पड़ता, रोटीपानी और किराएभाड़े में ही खत्म हो जाते हैं.’’
राधेश्याम पुन: बोले, ‘‘पहले गंगू बाई डौट कौम पिटी.’’
‘‘मतलब?’’
तब उन्होंने सोचते हुए कहा कि अरे यार, वहां भी यही हाल हुआ था जो यहां हो रहा है. काम करना ही कौन चाहता है. मुफ्त की रोटियां तोड़ना चाहते हैं. भइया, अब तो यहां से बोरियाबिस्तर उठाने में ही भलाई है.