तकरीबन 10 वर्षों के अंतराल में मुझे एक बार फिर दुबई जाने का मौका मिला. हमारा हवाई जहाज ‘फ्लाई दुबई’ दुबई एअरपोर्ट की ओर बढ़ रहा था. दुबई के समयानुसार सुबह के 8 बज रहे थे. हवाई जहाज की खिड़की से देखने पर समुद्र के कोने से सूर्य अपनी रोशनी से आसमान और धरती पर एकछत्र राज जमाने के लिए धीरेधीरे निकल रहा था. अरेबियन और परशियन समुद्र के किनारे बसे दुबई की मटमैले भूरे रंग की इमारतें (अरब देशों में सभी इमारतों का रंग मटमैला भूरा या इस से मिलताजुलता रखना सरकारी आदेश के अनुसार अनिवार्य है तथा इन देशों में इमारतों पर रंगबिरंगे चटकीले रंग किए जाने की मान्यता नहीं है) भूरे ही रंग के रेगिस्तान को मुंह चिढ़ाती हुई स्पष्ट होती जा रही थीं. आसमान से दिखाई दे रहे छोटेछोटे चौकोर घेरों में से झांकती ये इमारतें ऐसी लग रही थीं जैसे बच्चों ने रेत पर अपने खेलने के लिए नन्हेंनन्हें घर बना दिए हों, जिन के आसपास छोटीछोटी सड़कों पर वे अपनी खिलौनागाडि़यों को सरपट दौड़ा कर आनंदित हो रहे हों. और फिर देखते ही देखते हमारा हवाई जहाज दुबई एअरपोर्ट पर लैंड कर गया.
एअरपोर्ट से अपना सामान इत्यादि ले कर बाहर निकलते ही और घर तक यानी पूरे रास्तेभर पिछले लगभग 10 वर्षों में हुए दुबई में प्रगति के निशान स्पष्ट नजर आ रहे थे. दुबई, रेगिस्तान की बंजर जमीन पर बसा एक सुव्यवस्थित और चमचमाता शहर है. उस की इसी चकाचौंध प्रगति ने विश्व के कोनेकोने से लोगों को अपने यहां रोजगार के नए से नए अवसर प्रदान कर उन्हें इस भीषण गरमी वाले शहर में आने के लिए मजबूर किया है, खासकर भारतीयों को. दुबई, मिनी इंडिया के नाम से भी जाना जाता है. इस का प्रमाण इस बात से स्पष्ट मिलता है कि यहां लगभग सभी हिंदी भाषा बोलते मिल जाएंगे, यहां तक कि स्थानीय लोग भी भारतीयों के साथ रह कर हिंदी सीख जाते है और वे हिंदी भाषा समझते व बोलते भी हैं. यहां बसे भारत के केरल राज्य के लोगों की संख्या को देख कर तो ऐसा लगता है मानो पूरे के पूरे केरल राज्य के लोग यहां आ कर बस गए हैं.
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