पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी द्वारा आरएसएस प्रचारकों के दीक्षांत समारोह का निमंत्रण स्वीकार करने से कांग्रेस नेताओं की भृकुटियां तनी हुई हैं. प्रणब मुखर्जी की आलोचना शुरू हो गई है. अनेक लोग हैरत में भी हैं. कांग्रेस के कई नेताओं ने उन्हें नागपुर न जाने की सलाह दी है. इन नेताओं का कहना है पार्टी जिस विचारधारा के खिलाफ लड़ रही है, प्रणब मुखर्जी के नागपुर जाने से संघी विचारधारा को वैद्यता मिल जाएगी. हालांकि पूर्व कानून मंत्री एचआर भारद्वाज और पी. चिदंबरम जैसे कांग्रेसी नेताओं को मुखर्जी के नागपुर जाने में कोई बुराई दिखाई नहीं देती.
प्रणब मुखर्जी का कहना है कि उन के पास कई फोन और पत्र आए पर उन्होंने किसी को जवाब नहीं दिया और कहा कि उन्होंने जो कुछ कहना है वह नागपुर में ही कहेंगे.
आरएसएस ने 7 जून को नागपुर के रेशीम बाग मैदान पर आयोजित होने वाले संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में प्रणब मुखर्जी को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया है. कहा गया है कि संघ द्वारा प्रशिक्षित अपने 700 प्रचारकों के लिए आयोजित कार्यक्रम में मुखर्जी अपना संबोधन देंगे.
कांग्रेस के नेताओं द्वारा प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में जाने का विरोध निरर्थक है. पूर्व राष्ट्रपति ने आरएसएस का निमंत्रण स्वीकार कर अच्छा किया. अब उन के सामने देश के प्रथम नागरिक रहने के तौर पर यह बताने के लिए बड़ा अच्छा मौका है कि संघ की विचारधारा क्यों गलत है?
प्रणब मुखर्जी को बिना लागलपेट संघ को बताना चाहिए कि कोई भी लोकतांत्रिक देश सदियों पुराने धर्मग्रंथों के सहारे नहीं चलाया सकता. उन्हें साफसाफ कहना चाहिए कि संघ अगर भारतीय संविधान के बजाय मनुस्मृति के आधार पर देश, समाज को संचालित करना चाहता है तो यह नामुमकिन होगा. संघ को अपना हिंदुत्व त्यागना होगा, जिस में दूसरे धर्मों के प्रति घृणा, करोड़ों देवीदेवता, सैंकड़ों जातियां, उपजातियां, गौत्र, मंदिर, तीर्थ, दानदक्षिणा, धर्म का कारोबार, खोखले कर्मकांड और हवनयज्ञ व योग जैसे पाखंड तथा अंधविश्वास हैं.
मुखर्जी को स्पष्ट बताना चाहिए कि आज देश में मुसलमानों, दलितों, स्त्रियों के साथ जिस तरह का बर्बर बर्ताव हो रहा है वह उसी की संकीर्ण घृणित विचारधारा का प्रताप है. यह कितनी घातक है. व्यक्ति, समाज और देश के लिए. संघ के लिए दलित आज भी अछूत हैं. वे उस के हिंदुत्व के खांचे में फिट नहीं बैठते. कभी उन्हें घोड़ी पर बैठने से रोका जाता है, कभी मृत गाय की खाल उतारने पर जानवरों की तरह मारापीटा जाता है तो कभी मूंछें रखने पर.
प्रणब मुखर्जी को हिंदू राष्ट्रवाद की संकीर्णता की जगह भारतीय राष्ट्रवाद पर विस्तृत सीख देनी चाहिए. भारत हिंदू राष्ट्र क्यों बने, भारतीय राष्ट्र क्यों नहीं, जिस में दूसरे गैर हिंदू नागरिक भी रहते हैं. पूछना चाहिए कि संघ का इतिहास, उस के नेताओं की सोच और व्यवहार लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले आधुनिक भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान और समाज के नए मूल्यों से बारबार टकराता क्यों है? संघ युवा दलित, पिछड़े युवाओं को मिले आरक्षण को खत्म क्यों करना चाहता है? क्या संघ की नजर में ये जातियां हिंदू नहीं हैं?
संघ के प्रचारक समाज में जा कर किस चीज का प्रचार करेंगे? संघ की उस सड़ीगली विचारधारा का जिस के कारण व्यक्ति का व्यक्ति, परिवार का परिवार, जाति की जाति परस्पर दुश्मन बन जाती हैं? संघ इसी विचारधारा के कारण ही समाज में नफरत और चुनावों के वक्त धार्मिक ध्रुवीकरण का कारण बनते हैं.
संघ और भाजपा नेता दलित बस्तियों में जा कर भोजन तो करते हैं पर छुआछूत और शोषण की पैरोकार वर्णव्यवस्था के खिलाफ मौन रहते हैं. संघ को बताना चाहिए कि कहने को वह हिंदुत्व को धर्म नहीं, जीवनशैली कहता है पर व्यवहार में दलित, मुस्लिम घृणा, गौहत्या, समान नागरिक संहिता, धर्मांतरण जैसे धार्मिक मुद्दों पर सक्रिय रहता है जो सांप्रदायिक तनाव की वजह बनते हैं. यह भी कहना चाहिए कि संघ भारत की उदार, तार्किक और नास्तिक विचारधारा और परंपरा का सम्मान क्यों नहीं करता? संघ की हां में हां नहीं मिलाने वाला राष्ट्रद्रोही कैसे हो जाता है?
पर 40 साल से राजनीति में रहे प्रणब मुखर्जी ऐसी खरीखरी सुनाएंगे नहीं. वह भारतीय राष्ट्रवाद की बात करेंगे. सामाजिक समरसता, बराबरी की बात कर सकते हैं. सीधेसीधे वह डिप्लोमेटिक तरीके से काम चलाएंगे. महात्मा गांधी की हत्या भले ही एक कट्टर हिंदू ने की थी पर गांधी स्वयं भी संघ के मूल्यों को स्वीकार करते थे. वह छुआछूत के तो विरोधी थे पर वर्णव्यवस्था के हिमायती थे. आज भी भाजपा में जितने नेता वर्णव्यस्था की वकालत करने वाले हैं, कांग्रेस में भी कम नहीं हैं इसलिए भाजपा और कांग्रेस दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
कांग्रेस और संघ पोषित भाजपा की विचारधारा में कोई अधिक फर्क नहीं है. जब तक कांग्रेस के लिए भाजपा चुनौती नहीं बनी तब तक कांग्रेस कट्टर हिंदूवादी पार्टी थी. 1980-1990 के दशक के बाद कांग्रेस का धर्मनिरपेक्षता ढोंग अधिक दिखने लगा.
बहरहाल, राजनीतिक नफानुकसान को हाशिए पर रख कर विचारों के आदानप्रदान का स्वागत किया जाना चाहिए. लोकतंत्र की यही खासियत है.