वैश्विक मंदी के दौर में दुनिया के बहुत सारे देश आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं. ग्रीस दिवालिया हो चला. अब इस सूची में वेनेज्यूएला भी शामिल हो गया है. तेल आधारित अर्थव्यवस्था वाला यह देश ओपेक का संस्थापक सदस्य रहा है. जाहिर है आज तेल पर संकट का असर वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था पर पड़ना ही है. आज हालात यह है कि देश में खाद्य पदार्थों, बिजली की कमी से वेनेजुएला जूझ रहा है. संकट इस कदर गहरा गया है कि राष्ट्रपति निकोलस मादुरो ने सात दिनों यानि एक हफ्ते के लिए पूरा देश में बंद की घोषणा कर दी है. अब तक दुनिया के इतिहास में ऐसा कभी होते तो दूर, इस तरह की सोच के बारे में कानों ने कभी सुना भी नहीं गया था. और यह वेनेजुएला में हो रहा है. 

स्पेन का उपनिवेश रहे वेनेजुएला में 1958 में आजादी के बाद भी लंबे समय तक पूंजीवाद का प्रभाव रहा. लेकिन 1998 में साम्यवादी ह्यूगो चावेज के सत्ता में आने के बाद साम्यवाद का प्रभाव बढ़ने लगा. लेकिन 2013 में ह्यूगो चावेज की मृत्यु के बाद राजनीतिक अस्थिरता गहराने लगी. राजनीतिक अस्थिरता किसी भी देश के लिए घातक साबित हो सकती है और इसे सच होते हाल में कई देशों ने देखा है. चावेज के उत्तराधिकारी निकोलस मादुरो राष्ट्रपति तो बने, लेकिन देश में धीरे-धीरे राजनीतिक अस्थिरता अपने चरम पर पहुंचने लगी. इसका असर देश का अर्थव्यवस्था पर पड़ने लगा. रही-सही कसर तेल की कीमतों ने पूरी कर दी.

पिछले 16 सालों तक देश में राज करने वाली ह्यूगो चावेज की पार्टी को तब जबरदस्त धक्का लगा, जब वेनेजुएला के एक सदन वाले संसद के लिए दिसंबर 2015 को चुनाव हुए. चुनाव में 167 सीटोंवाली संसद में विपक्षी पार्टी डेमोक्रेटिक युनिटी राउंडटेबल (एमयूडी) ने 112 सीटों पर जीत हासिल हुई. वहीं चावेज समर्थक युनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी औफ वेनेजुएला (पीएसयूवी) को महज 55 सीटों से संतोष करना पड़ा. इस चुनाव के नतीजे को साम्यवादी प्रभाव के खात्मे के रूप में देखा गया. इससे दुनिया के पूंजीवादी देश खुश हुए और इस बदलाव का स्वागत किया गया. लेकिन इस बदलाव ने वेनेजुएला को आर्थिक तंगी के कगार पर ला खड़ा कर दिया. आज इसकी आर्थिक स्थिति खतरे के निशान पर है.

जनवरी 2016 में वेनेजुएला में नई सरकार बनी. 65 प्रतिशत संसद में विपक्ष‍ का नियंत्रण हो गया. उधर पूर्व राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज की 2013 में मृत्यु के बाद निकोलस मादुरो को अगले छह सालों तक के लिए वेनेजुएला का राष्ट्रपति घोषित किया गया. गौरतलब है कि वेनजुएला के एक सदन वाले संसद में कार्यपालिका का प्रमुख राष्ट्रपति ही होता है. लेकिन राष्ट्रपति सदन में पारित बिल पर अपनी सहमति के लिए बाध्य होता है. ऐसे में 16 सालों तक वेनेजुएला में शासन करने के बाद चावेज की पार्टी युनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी औफ वेनेजुएला (पीएसयूवी) के चुनाव हार जाने के बाद भी राष्ट्रपति उसी का रहा. लेकिन मादुरो और विपक्ष के बीच नीतियों को लेकर तकरार शुरू हो गया, जो राजनीतिक अस्थिरता का कारण बना. पर देश का सुप्रीम कोर्ट मादुरो के पक्ष में काम करता रहा.

इससे पहले अर्थव्यवस्था को गति देने की मंशा से राष्ट्रपति निकोलस मादुरो ने देश में आर्थिक आपातकाल की घोषणा भी की थी. देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी राष्ट्रपति के इस फैसले को हरी झंडी तक दिखा दिया था. क्योंकि निकोलस मादुरो ने नई सरकार बनने से पहले सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश की नियुक्ति की. यही कारण है कि मादुरो को सुप्रीम कोर्ट की सहमति मिल गयी. लेकिन एमयूडी इसके विरोध में उठ खड़ा हो गया. उनका कहना था कि आर्थिक आपातकाल लागू हो जाने से अर्थव्यवस्था संभलने के बजाए और भी गहरी खाई में गिर जाएगी. गौरतलब है कि वेनेजुएला कांग्रेस (संसद) का नियंत्रण विपक्ष के हाथों में होता है. जाहिर है विपक्ष की दलील के आगे राष्ट्रपति निकोलस मदुरो की एक न चली. और उनका प्रस्ताव गताल खाते में चला गया.

एक तरफ राजनीतिक अस्थिरता से वेनेजुएला जूझ रहा था और उधर अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में इसकी कीमत में जबरदस्त गिरावट हो रही थी. यहीं से तमाम गड़बडि़यां शुरू हो गयी. वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों ने इसे मादुरो की बदकिस्मती के रूप में देखा, क्योंकि जबसे तेल की कीमत में गिरावट शुरू हुई, तबसे तेल उत्पादक देशों की आर्थिक सेहत गड़बड़ाने लगी. अब इस कड़ी में वेनेजुएला का नाम भी जुड़ा गया है.

दुनिया के अर्थशास्त्रियों का मानना है कि लैटिन अमेरिकी देशों में तेल की कीमत गिरने का सबसे ज्यादा नुकसान वेनेजुएला को उठाना पड़ा है. गौरतलब है कि वेनेजुएला की 95 प्रतिशत आय तेल के बल पर है. 2013 और 2014 में जहां यह देश लगभग प्रति बैरल 100 डौलर बेचा करता था, वहां इसकी कीमत 25 डौलर प्रति बैरल रह गया है. वेनेजुएला दो साल पहले 75 बिलियन डौलर का तेल निर्यात किया करता था, 2016 में यह महज 27 बिलियन डौलर रह गया है.

यह सही है कि वेनेजुएला के मौजूदा संकट का सबसे बड़ा कारण तेल है. वैसे इस संकट के और भी कई कारण हैं. देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए राष्ट्रपति ने कई जतन किए. फरवरी में निकोलस को विशेष आर्थिक अधिकार दिया गया था. इस अधिकार का उपयोग करते हुए निकोलस ने वेनेजुएला की मुद्रा बोलिवार का अवमूल्यन किया और उधर पेट्रोल की कीमत को बढ़ाया. बताया जाता है कि 6000 प्रतिशत पेट्रोल की कीमत को बढ़ाया गया. यह वृद्धि 20 सालों के बाद हुई थी. इससे पहले वेनेजुएला में पेट्रोल सबसे सस्ता हुआ करता था. महज 0.01 डौलर प्रति लीटर. कीमत में वृद्धि के बाद प्रति लीटर प्रीमियम पेट्रोल की कीमत 0.60 डौलर कर दी गयी. वहीं लोअर ग्रेड के पेट्रोल की कीमत 0.10 डौलर प्रति लीटर कर दी गयी. हालांकि मादुरो ने अर्थव्यवस्था को सुधारने के मकसद से पेट्रोल की कीमत में जबरदस्त बढ़ोत्तरी की थी. अपने संबोधन में राष्ट्रपति मादुरो ने कहा था कि पेट्रो की कीमत बढ़ने से देश में हर साल 80 करोड़ डौलर की बचत होगी. लेकिन इससे देश में नाराजगी बढ़ने लगी.

इससे पहले 1989 में ह्यूगो चावेज ने भी पेट्रोल की कीमत में वृद्धि की थी. सरकार के इस फैसले के बाद उस समय भी देश में व्यापक हिंसा हुई और सैकड़ों लोग मारे गए थे. लेकिन इसके बाद ह्यूगो चावेज ने 14 सालों तक पेट्रोल की कीमत को स्थिर कर दिया.

वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था को कितना जबरदस्त धक्का लगा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कहां तो एक डौलर की कीमत 175 बोलिवार (वेनेजुएला मुद्रा) हुआ करती थी, आज एक डौलर की कीमत 865 बोलिवार है. दूसरे शब्दों में एक बोलिवार 0.15 डौलर के बराबर है. बताया जाता है कि वेनेजुएला मुद्रा का विनिमय पद्धति बड़ा भ्रामक है. वहां तीन तरह का विनिमय दर है- दो किस्म का विनिमय दर अलग-अलग तरह के आयात के लिए और तीसरा सामान्य वेनेजुएला वासी के लिए. आयात के लिए तय विनिमय की दोनों ही दरों में बोलिवारा का अधिक मूल्य लगाया गया, इससे डौलर की मांग बढ़ती गयी. उधर कर्ज का बोझ बढ़ता गया. इससे पार पाने की केवल दो ही सूरत थी. या तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल कीमत बढ़े या चीन इरान और रूस वेनेजुएला को बेलआउट कर दे. लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ होने की सूरत नजर नहीं आ रही है और वेनेजुएला संकट की गहरी खाई में समाता जा रहा है.

देश में महंगाई आसमान छू रही है और साथ में खाद्य संकट. देश में दूध, आटा-मैदा, अंडे और खाद्य तेल नहीं है. यहां तक कि टौयलेट पेपर की भी भारी किल्लत है. सरकार के पास पैसे नहीं है कि वह खाद्य सामाग्रियों समेत  रोजमर्रा के जरूरी सामानों का आयात कर सके. खाने के सामान, कपड़े धोने के साबून, डायपर के लिए हजारों लोग 6-7 घंटे कतार में खड़े रहने को मजबूर हैं. इस पर भी सबको चीजें नहीं मिल पा रही है. खाद्य सामाग्रियों की कीमत पिछले एक साल में 315 प्रतिशत तक बढ़ गयी है. दुकानों में सामान नहीं है. सुपर मार्केट के ताक खाली है.

इसीके साथ देश में बिजल की समस्या भी अन्य किल्लतों के साथ मुंह बाए खड़ी है. वेनेजुएला में मुख्यतया हाईड्रो इलेक्ट्रिक पर निर्भर देश है. लेकिन बिजली संरक्षण का देश में कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है. उधर बिजली की खपत दिनोंदिन बढ़ती ही चल गयी. पिछले कुछ सालों से सूखा पड़ने बिजली समस्या पेश आ रही है. सरकार ने इसके लिए अल निनो को जिम्मेवार ठहरा कर एक हद तक अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की. इससे पहले 2009 में देश ब्लैक आउट के दिन देख चुका था. लेकिन फिर भी बिजली संरक्षण का कोई अंतजाम नहीं किया गया.

हालांकि जब संकट गहराया तब सरकार ने दफ्तर में कामकाज का समय छह घंटे से घटा कर पांच घंटा कर दिया. यहां तक कि दफ्तर के समय में भी बदलाव किए गए. सुबह सात बजे से दोपहर एक बजे तक का समय तय किया गया, ताकि एयरकंडीशन की चलाए जाने से बचा जा सके. लोगों को अपने घरों में जहां जेनरेटर का इंतजाम करने को कहा गया, वहीं घरों में भी एयरकंडीशन का उपयोग सीमित करने को कह दिया. लेकिन इन सब जुगत से समस्या का हल नहीं निकला. तब सात दिनों के बंद का एलान किया गया. 

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