पिछले दिनों दिल्ली मे जब आध्यात्मिक गुरु रविशंकर कला के जरिये धर्म की नई परिभाषा गढ़ते कई विवादों से घिरे थे, ठीक तभी भोपाल में द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी यह मांग करते नजर आए कि स्कूली पाठ्यक्रम मे श्रीमद भागवद गीता पढ़ाई जाए. मूल रूप से कांग्रेसी खेमे मे शुमार किए जाने वाले स्वरूपनन्द नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही बौखलाए हुये हैं और फसाद खड़े करने के लिए जाने जाने लगे हैं. पिछले साल साईं पुजा को सनातन धर्म के उसूलों के खिलाफ उन्होने बताया था तो साईं भक्तों ने खासा बवाल मचाया था क्योंकि स्वरूपानन्द ने साईं बाबा को मुसलमान कहते कई और अभद्र टिप्पणिया भी कीं थीं, मकसद साफ था कि शिर्डी की तरफ जाता चढ़ावा पंडे पुजारियों और ब्रांहनों को मिले. मकसद अब भी साफ है कि गीता स्कूली बच्चों को पढ़ाई जाएगी तो वे बचपन से ही महज जन्मना आधार पर ब्रांहनों को श्रेष्ठ मानते उन्हे मुफ्त की मलाई खिलाते रहेंगे, यानि पेट पालने इन श्रेष्ठियों को कोई मेहनत नहीं करना पड़ेगी और धर्म का कारोबार बेरोकटोक चलता रहेगा.

गीता, हिन्दू जिसे स्वरूपानन्द सनातन धर्म कहते हैं,  कर्मकांडो, यज्ञ हवनों और वर्णवाद से भरी पड़ी है, जिसमे पुनर्जन्म भी है और दान की महिमा ज़ोर देकर गाई गई है. यह वही धर्मग्रंथ है जिसने भाइयों को लड़वा कर एक पूरे खानदान का नामोनिशान मिटा दिया था. यानि जातिवाद, दान की महिमा और पाखंड सिखाने अब शिक्षक नियुक्त किए जाने की मांग की जा रही है, क्योंकि कन्हैया जैसे नास्तिक थोक मे पैदा होने लगे हैं जो मनुवाद का विरोध करने मे किसी का लिहाज नहीं करते और उन जैसों के पीछे पूरी एक पीढ़ी चलने लगती है जो धार्मिक पखण्डों शोषण और अंधविश्वाशों से आजादी चाहती है. इसे रोकने स्वरूपाननदों को गीता पढ़ाया जाना मुफीद लगता है तो बात कतई हैरत की नहीं पर दिक्कत यह है कि मनुस्मृति का नया संस्करन प्रकाशित हो चुका है जिसका अनौपचारिक विमोचन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 मार्च 2015 को यमुना किनारे किया.

सनातनी तो नहीं पर हिन्दुत्व के नए पाठ्यक्रम मे कुछ नए अध्याय जोड़े जा रहे हैं कि खूब नाचो गाओ जश्न मनाओ जिन परेशानियों को धर्म ग्रंथ पढ़कर भी नहीं भूल पा रहे, उन्हे ये विश्वस्तरीय आयोजन भुला देंगे मूलतः ये डिजिटल यज्ञ हैं. सियासी तौर पर देखें तो हिन्दू वह नहीं है जो सिर्फ ब्राह्मण या किसी दूसरी ऊंची जाति का है, बल्कि हिन्दू हर वह आदमी मान लिया गया है जिसकी जेब मे पैसा है. यहीं स्वरूपानन्द रविशंकरों से मात खा रहे हैं जो 70 के दशक की हिदुत्व की व्याख्याओं से खुद को आजाद नहीं कर पा रहे और गीता रामायण का राग अलापे जा रहे हैं. यानि सांपनाथ हों या नागनाथ, उन्हे अपनी सहूलियत से समाज और देश को डसने की आजादी दी जा रही है. लोकतन्त्र की इस मिसाल पर कन्हैया जैसे उत्साही युवा भी शायद कुछ न बोल पाएँ, यह  बात स्वरूपांदो को भी  समझना चाहिए कि अब गीता नहीं बल्कि पूरा महाभारत पढ़ाया जा रहा है.

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