रात के 8 बज चुके थे. पुष्पेंद्रजी अभी तक घर नहीं पहुंचे थे. पत्नी बारबार घड़ी की तरफ बेचैनी से देख रही थीं. सोच रही थीं कि रोज शाम 6 बजे के पाबंद पतिदेव को आज क्या हो गया? इतनी देर तो कभी नहीं होती… तभी उन्हें सहसा याद आया कि सुबह उन्होंने गरज कर यही कहा था कि आज कुंभ के लिए कन्फर्म टिकट ले कर ही आना है.

इतने में बाहर गाड़ी के आने की आवाज कानों में पड़ी. गाड़ी की आवाज से पत्नी भलीभांति परिचित थीं और श्रीमानजी के आने का संकेत उन्हें मिल चुका था.

पुष्पी ने खीजते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘आज भी रिजर्वेशन करा लाए या मुंह लटका कर चले आए?’’

शांत स्वभाव के पुष्पेंद्रजी ने कहा, ‘‘एजेंट से कह आया हूं कि टिकट के इंतजाम में कितने भी रुपए लगें, करवा देना, वरना घर पहुंच कर मेरी खैर नहीं.’’

यह सुन कर पत्नी ने कुछ राहत की सांस ली और यह सोच कर मुसकराईं, ‘चलो, मेरा कुछ तो इन पर असर है.’

सारा मामला कुंभ स्नान से जुड़ा हुआ था. उज्जैन में कुंभ शुरू होने वाला था. पत्नी चाहती थीं कि 14 को ही पहुंच कर कुंभ के पहले स्नान का लाभ ले लिया जाए.

चाय पी कर पुष्पेंद्रजी अखबार पकड़ने ही वाले थे कि फोन की घंटी बज उठी. सोच के मुताबिक फोन एजेंट का ही था. उस ने कहा, ‘सर, रिजर्वेशन तो हो गया है, लेकिन भक्तों की भीड़ के चलते 14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट मिले हैं, वे भी हर टिकट के एक हजार रुपए ज्यादा देने पर.’

पुष्पेंद्रजी के लिए यह हैरानी की बात थी कि टिकट की कीमत है 8 सौ रुपए और ऐक्स्ट्रा हजार रुपए. उन्हें समझ नहीं आया कि हजार रुपए ज्यादा देने के लिए रोएं या टिकट मिलने की खुशी मनाएं. फिर उन्हें लगा कि एक पति को आदर्श पति का दर्जा हासिल करने के लिए पत्नी की मांगों को सिरआंखों पर रखना पड़ता है. फिर यहां तो धार्मिक आस्था का भी सवाल है.

पुष्पेंद्रजी गाड़ी उठा कर टिकट लाने चले गए और थोड़ी देर बाद उन्होंने टिकटों को पत्नी के सुपुर्द कर राहत की सांस ली.

पर यह क्या, 20 तारीख के टिकट देख कर पुष्पेंद्रजी की पत्नी बिफर पड़ीं. घर का सारा माहौल अशांत हो गया.

14 तारीख के बजाय 20 तारीख के टिकट श्रीमतीजी को गंवारा नहीं थे. सो, गुस्से में उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप खुद टिकट लेने जाते, तो यह नौबत नहीं आती. अपना काम खुद करना चाहिए, एजेंटों  के भरोसे रहोगे, तो काम ऐसा ही होगा. आखिरकार दफ्तर में करते ही क्या हो, सिवा अपना और दूसरों का टिफिन खाने के?’’

पुष्पेंद्रजी शांत स्वभाव के जरूर थे, पर वे नटखट भी कम नहीं थे. उन्हें भी कभीकभी सांप की पूंछ पर पैर रखने में मजा आता था.

उन्होंने पत्नी के गले में प्यार से बांहें डाल कर कहा, ‘‘टिकट का रिजर्वेशन क्या मेरे ससुरजी के हाथ में है, जो हमारी मरजी से टिकट देगा. फिर प्राणप्यारी, अगर 14 की जगह 20 को स्नान कर लेंगे, तो न हमें पाप लगेगा और न ही हमारे पुण्य में कोई कमी हो जाएगी.’’

यह सुन कर पुष्पी ने आंखें लाल कीं, तो पुष्पेंद्रजी ने नजरें नीचे कीं.

पुष्पेंद्रजी के बड़े भाई गजेंद्रजी थे. खाने की चीजों के प्रति अटूट लालसा के चलते बचपन से ही लोग उन्हें प्यार से गजेंद्र कहने लगे थे.

गजेंद्रजी आकार में गज के समान थे, तो उन की पत्नी गौरी की जबान गज भर की थी.

धार्मिकता के एकदम महीन कपड़े उन्होंने भी पहन रखे थे. भक्ति व धार्मिक कामों में दोनों देवरानीजेठानी एक से बढ़ कर एक थीं. इस मुद्दे पर किसी दूसरे को बोलने का हक नहीं था.

कुलमिला कर कहा जाए, तो धार्मिक नजरिए से उन का घर एक मंदिर था, दोनों भाइयों की पत्नियां पुजारिन थीं और बाकी सदस्य भक्त थे.

घर में धार्मिकता व पत्नीभक्ति का आलम यह था कि पत्नी के पदचिह्नों पर चलना पतियों के लिए जरूरी परंपरा थी.

इस की मजबूत नींव उन के पूज्य दादाजी व पिताजी ने पहले ही रख दी थी. पत्नीभक्ति की परंपरा उन तक ही नहीं सिमटी थी, बल्कि उन के दोनों बेटों ने भी इसी राह पर चलने का व्रत ले रखा था.

आखिरकार 20 तारीख आ ही गई. घर पर चौकीदार को छोड़ कर सारा परिवार कुंभ स्नान के लिए निकल पड़ा.

कुंभ की भीड़ का यह नजारा था कि मुट्ठीभर रेत फेंकने पर वह नीचे न गिर कर लोगों के सिर पर ही गिरती. इन हालात में वहां ठहरने का इंतजाम करना आसान नहीं था. हर कारोबारी इस कुंभ में इतना कमा लेना चाहता था कि उस का मुनाफा आगे आने वाले कुंभ तक चले.

पंडे तो अपनेआप को भगवान का एजेंट बता रहे थे. वे इस बात का यकीन दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे कि उन के बिना भगवान तक पहुंचा ही नहीं जा सकता.

होटल, खानेपाने की चीजें व पूजा से संबंधित हर सामान, आभूषण वगैरह कई गुना ज्यादा दामों पर बेचे जा रहे थे. खरीदने वालों में भी कम जोश नहीं था. भले ही घर में झगड़ा कर के आए हों या जमीन गिरवी रख कर आए हों, लेकिन पुण्य कमाने की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था.

पुष्पेंद्रजी ने कुछ बुजुर्गों से उन के आने की वजह पूछी, तो उन्होंने कहा कि अगले 12 सालों तक उन के रहने की गारंटी नहीं है, इसीलिए वे तनमनधन से इसी कुंभ में स्नान कर के पुण्य कमाने आए हैं.

पुष्पेंद्रजी ने कहा कि लंबी जिंदगी की गारंटी व सारी इच्छाएं पूरी होने के लिए तो यहां आए हो, फिर कहते हो कि गारंटी नहीं है.

इस का मतलब है कि आप को कुंभ स्नान व भगवान में विश्वास नहीं है. मामला विश्वास और अविश्वास के बीच झूल रहा था.

होटल वाले एक दिन के लिए 10 हजार रुपयों की मांग कर रहे थे. अमीर गजेंद्रजी को भी एक बार सोचना पड़ गया. उन्होंने महिला मंडली से कहा कि एक दिन स्नान कर के लौट आएंगे, लेकिन पत्नियों की भक्ति फिर आड़े आ गई.

दोनों ने एक आवाज में कहा कि इतनी दूर आने के बाद पति के साथ कम से कम 3 स्नान जरूरी हैं, नहीं तो सारा पुण्य मिट्टी में मिल जाएगा.

दूसरे दिन सब सुबहसुबह उठ गए और पंडे को खोजने की सोच रहे थे कि उन की इच्छा तुरंत पूरी हो गई, क्योंकि पंडे ने खुद ही उन्हें खोज लिया था.

पंडे ने सारे विधिविधान से स्नान और पूजा करने का ठेका 20 हजार रुपए में ले लिया.

परिवार के सभी सदस्यों ने पंडे का साथ दिया, क्योंकि जीवन में अच्छे दिन जो आने वाले थे.

नदी पर फैली गंदगी और पानी का रंग देख कर तो पुष्पेंद्रजी का मन कसैला हो गया.

उन्होंने गंदा पानी देख कर कहा कि इस में डुबकी लगा कर पुण्य कमाने की तुलना में पाप क्या बुरा है? पुण्य मिलेगा या नहीं, पर बीमारियों का आना तय है.

पंडे ने कुछ मंत्र पढ़ कर पतिपत्नी को एकदूसरे का हाथ पकड़ कर डुबकी लगाने व भगवान से अगले 7 जन्मों में भी पतिपत्नी बने रहने का वरदान मांगने को कहा.

गजेंद्रपुष्पेंद्रजी ने बुदबुदाते हुए कहा कि यही जन्म इन के साथ भारी पड़ रहा है और पंडा है कि 1-2, नहीं पूरे 7 जन्मों तक मारने पर तुला है.

पुष्पेंद्रजी ने मजाक भरे लहजे में पंडे से पूछा, ‘‘भैया, आप ने अपनी पत्नी के साथ अभी तक डुबकी लगाई है कि नहीं? क्योंकि धार्मिकता का पूरा ठेका आप ने ही ले रखा है.’’

पंडा भी घुटापिटा था. उस ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘‘डुबकी मैं भी रोज लगाता हूं, लेकिन अपनी पत्नी के साथ नहीं.’’

3 दिन जैसेतैसे कटे. होटल खाली कर जैसे ही स्टेशन पहुंचे, पता चला कि आगे मालगाड़ी पटरी से उतर गई है और 2 दिन तक गाडि़यां नहीं चलेंगी.

यह सुन कर दोनों भाइयों में पहाड़ टूट पड़ा, क्योंकि उन की हालत धोबी के कुत्ते जैसे हो गई, घर का न घाट का.

भाइयों ने चिढ़ते हुए महिला मंडली पर आक्रामक मुद्रा में कहा कि लो, यहीं से अच्छे दिन शुरू हो गए.

सारा परिवार 2 दिन तक ठसाठस भरी धर्मशाला में रुका.

धर्मशाला की भीड़ में गौरी की 2 तोले की सोने की चैन गायब हो गई. लेकिन उस ने डर और उलाहने की वजह से किसी को नहीं बताया.

2 दिन बाद वे सभी गाड़ी में चढ़े, तो पता चला कि रिजर्वेशन का डब्बा नहीं लग पाया और सब को जनरल डब्बे में सफर करना पड़ेगा.

जनरल डब्बे की बात सुन कर गजेंद्रजी के होश उड़ गए, क्योंकि पिछले 20 सालों से उन्होंने हवाईजहाज या रेलगाड़ी में एयरकंडीशंड क्लास से कम में सफर नहीं किया था.

वे आधी दूर ही पहुंचे थे कि पड़ोसी का फोन आया कि सिक्योरिटी गार्ड घर का सामान ले कर चंपत हो गया है.

यह सुन कर पुष्पेंद्रजी ने अपने बाल नोच कर कहा, ‘‘जिंदगी में इस से ज्यादा और बुराई क्या हो सकती है. जिस सिक्योरिटी गार्ड के भरोसे अपने घर को रखा, वही चोर निकला. और हम सब यहां अच्छाई बटोरने आए थे.’’

कुंभ स्नान के बाद उन्हें यह तीसरा झटका लग चुका था. पता नहीं, आगे और क्याक्या होगा. घर पहुंचे, तो पोतों ने कहा कि शरीर में जबरदस्त खुजली हो रही है.

पुष्पेंद्रजी ने मन ही मन कहा कि बेटा, मुझे भी माली व जिस्मानी खुजली हो रही है. गंदे व कीचड़ वाले पानी में नहाने पर खुजली नहीं होगी, तो क्या काया कंचन की हो जाएगी. फर्क यही है कि तुम कह रहे हो, लेकिन मैं बता नहीं पा रहा हूं.

पुण्य कमाने के चक्कर में अब तक डेढ़ लाख रुपए से ज्यादा ही खर्च हो चुके थे. उन्होंने कहा कि इतने रुपए में पूरा परिवार घर में ही सालभर बोतलबंद पानी में डुबकी लगा सकता था, पर पत्नियों की धार्मिक आस्था का भी जवाब नहीं था.

उन्होंने कहा कि दुख मत मनाइए, ये सब दुर्घटनाएं पिछले कुंभ में स्नान न करने का फल हैं. इस बार के स्नान का फल आने वाले समय में जरूर मिलेगा, सब्र रखिए. यह सुन कर दोनों भाई हैरानी से एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

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