बंधा हुआ हूं मैं बंधन में

मन फिर भी स्वच्छंद विचरता

मैं निशब्द हूं, ये है मुखरित

इस को भाती नहीं नीरवता

मैं प्रतिपल कर्तव्य निभाता

ये अपने अधिकार मांगता

मन चाहे आकाश-कुसुम को

समझे मेरी नहीं विवशता

ये छूता आकाश की सीमा

मेरा बस धरती से नाता

चंचल हठी शिशुओं जैसा

पुन:पुन: ये तुम तक आता

कहता होगा तुम से भी कुछ

तुम को क्योंकर समझ न आता

क्या अब भी इतनी क्लिष्ट है

शब्दों में ये मन की भाषा.

                      – अजीत शेखर

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