मैं आवश्यक कार्य से मुंबई गया था. उन दिनों सैलफोन नहीं थे. दिन के 10 बजे एक पब्लिक बूथ पर अपने घर धनबाद फोन करने के लिए पंक्ति में खड़ा था. जब मेरी बारी आई तो मुझे बताया गया कि पिताजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा है, वे अस्पताल में भरती हैं. मैं ने घबरा कर ऊंची आवाज में पूछा कि कहां भरती हैं धनबाद में या फिर कहीं और. मुझे पता चला कि प्राथमिक उपचार के बाद उन्हें कोलकाता के अस्पताल में भरती कराया गया था. मैं ने कहा कि मेरा टिकट तो रात की कोलकाता मेल ट्रेन का है जो 30 घंटे बाद धनबाद पहुंचती और फिर 5 घंटे बाद कोलकाता. मेरे पास हवाई जहाज से जाने के लिए पैसे भी नहीं थे. पंक्ति में खड़े एक व्यक्ति मेरी बात सुन कर मेरे पास आए और बोले, ‘‘आप अपना ट्रेन का टिकट मुझे दे दें और मेरे जहाज के टिकट पर आप कोलकाता चले जाएं. मैं भी धनबाद का ही रहने वाला हूं. शाम की फ्लाइट है और 2 घंटे में आप कोलकाता पहुंच जाएंगे.’’

मैं ने उन से कहा कि अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं तो उन्होंने एअर टिकट मेरी जेब में डाल दिया और कहा, ‘‘वक्त बरबाद न करो. ट्रेन टिकट जल्दी मुझे दो. एक ही शहर के हैं, वहीं पैसे दे देना.’’ मैं ने अपना टिकट तो उन्हें दे दिया पर जल्दी में उन सज्जन का नाम या फोन नंबर पूछना भूल गया. उन दिनों ट्रेन या हवाई जहाज में कोई पहचानपत्र नहीं मांगा जाता था. हालांकि यह कार्य अनुचित ही था, पर उन की कृपा से सही समय पर मैं कोलकाता पहुंच गया.

– श्रीप्रकाश, बोकारो (झारखंड)

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हमारा गैराज घर से सटा है. अकसर कई लोग अपनी चारपहिया गाड़ी ला कर गैराज के फाटक के ठीक सामने खड़ी कर देते हैं. परेशान हो कर हम ने सभ्यता के साथ बड़ेबड़े अक्षरों में लिख कर टंगवा दिया कि कृपया गैराज के सामने गाड़ी खड़ी न करें. लेकिन हमारे यहां कुछ ज्यादा नासमझ और अमानवीय लोग हैं जिन्हें किसी की परेशानी से कोई वास्ता नहीं होता, जब तब वे गाड़ी ला कर गैराज के सामने खड़ी कर चले जाते हैं. घंटों तक अपनी कार निकालना या भीतर करना अत्यंत कठिन हो जाता है. यदि हम लोग सामान्य चीजों व नियमों को पूरी नैतिकता के साथ पालन करने लगें तो समाज काफी आगे प्रगति कर सकता है.

– मायारानी श्रीवास्तव, मिरजापुर (उ.प्र.)

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