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युवतियों की सुरक्षा को ले कर प्रशासन पुलिस के दावों की पोल खोलती एक सीसीटीवी फुटेज सामने आई. उस में साफ देखा जा सकता है कि बाइक सवार 3 शोहदे स्कूल जाने वाली एक छात्रा को किस तरह छेड़ रहे हैं.
हैरानी की बात है कि चहलपहल वाली गली में 12 वर्षीय स्कूली छात्रा को अश्लील हरकतों से परेशान किया जा रहा है, लेकिन कोई उस की मदद के लिए आगे नहीं आ रहा. सीसीटीवी फुटेज में कैद देश में यह घटना अमृतसर के कटरा कर्मसिंह इलाके में घटी. ऐसी घटनाएं हर रोज घट रही हैं.
मनचलों के माने
आप ने कभी इस बात पर गौर किया है कि मजनूं का मतलब क्या है. मनचलों के माने क्या होता है. रोमियो कौन था. राउडी किसे कहते हैं? कोई पुलिस वाला यह कैसे पता लगाएगा कि किसी युवक ने युवती को छेड़ा है? क्या पास से गुजर जानेभर को छेड़ना माना जाएगा या सिर्फ नजरें मिलाने भर को छेड़खानी करार दिया जाएगा या फिर ये काम युवतियों की शिकायत पर होगा?
जाहिर है ये तमाम सवाल सुन कर अब तक आप समझ ही गए होंगे कि यहां बात किस की हो रही है. जी हां, रोमियो और एंटी रोमियो की.
कहां से आया रोमियो
करीब सवा 500 साल पहले एक नाटक के जरिए रोमियो का जन्म हुआ था. शेक्सपियर ने रोमियो को पैदा किया था. नाटक का नाम था रोमियाजूलियट. दोनों मुहब्बत के ऐसे दीवाने कि आखिर में एकदूसरे के लिए जान देते हैं और इस तरह इन की प्रेम कहानी हमेशाहमेशा के लिए अमर हो जाती है. मगर सवा 500 साल बाद अब वही रोमियो अचानक उत्तर प्रदेश का सब से बदनाम नाम बना दिया गया है, क्योंकि उस का नाम इश्क और मुहब्बत के खाने से निकाल कर अब उत्तर प्रदेश के बिगड़े शोहदों के साथ जोड़ दिया गया है.
रोमियो पर आफत
रोमियो इतना बदनाम इस से पहले शायद ही कभी हुआ हो. मजनूं की भी ऐसी हालत पहले नहीं हुई होगी जैसा कि उत्तर प्रदेश में अब हो रहा है. ऐसा लगता है कि यहां कानून की खूंटी पर मजनूं और मनचले दोनों एकसाथ टंगे हैं. अगर रोमियो और राउडी एक ही डंडे से हांके जाएं तो यह तो होगा ही. रोमियो के नाम से पहले एंटी लग गया और रोमियो के नाम से आगे दस्ता. इस तरह उत्तर प्रदेश में कानून की डिक्शनरी में एक नया नाम जोड़ दिया गया, ‘एंटी रोमियो दस्ता’. ऐसा लगता है मानो प्रदेश में इस वक्त मनचले ही सब से बड़ी आफत हैं.
राज्य में योगी सरकार आते ही सारा काम छोड़ कर पुलिस बस रोमियो के ही काम पर लगा दी गई, जबकि इसी राज्य में बड़ेबड़े और छटे हुए क्रिमिनल इन्हीं खाकी वालों का मजाक उड़ाते हुए लंबे वक्त से फरार हैं और भगोड़े बने हुए हैं. सरकार बनने से पहले ऐसे अपराधियों को एक हफ्ते के भीतर पकड़ कर अंदर करने के दावे किए गए थे. मगर शायद उन भगोड़े खूनी, रेपिस्ट और माफियाओं से कहीं ज्यादा मनचलों से सरकार को खतरा लग रहा है. इसीलिए सारी फोर्स रोमियो के पीछे छोड़ दी गई. लेकिन फिर भी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है.
बच्चों के बरताव पर नजर
एक जमाना था जब बच्चों के बरताव पर घर वालों की नजर रहती थी. बच्चों को तहजीब घर में ही सिखाई जाती थी. अब जमाना बदल गया है. ऐसा लगता है कि इंटरनैट के इस युग में बच्चे मांबाप के हाथों से निकल चुके हैं. वे उन की बात नहीं मानते. इसलिए प्रशासन को मांबाप का रोल अदा करना पड़ रहा है.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का फरमान है कि अब पुलिस मनचलों पर निगाह रखेगी, लेकिन क्या यह मुमकिन है? दुनिया गवाह है कि कोई भी ताकत कभी प्यार करने वालों को नहीं रोक पाई है. कालेज जाती लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करने वालों को रोकना तो ठीक है, लेकिन यह तय कर पाना वास्तव में बहुत मुश्किल काम है कि कौन लड़की को छेड़ रहा है कौन लड़की की मरजी के बगैर उस से मिल रहा है? या फिर कौन किसी काम से किसी गर्ल्स स्कूल या फिर कालेज के सामने से गुजर रहा है? यही वह तलवार की धार है जिस पर यूपी पुलिस चल रही है, लेकिन उसे यह भी देखना होगा कि कहीं मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा?
मौलिक अधिकार का हनन तो नहीं
एंटी रोमियो दस्ता कहीं हमारे मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं कर रहा है आज यह सवाल सभी के दिमाग में है. मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन में राज्य द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता. ये ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक हैं और जिन के बिना मनुष्य अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता.
दरअसल, भारत में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की मांग ब्रिटिशकाल में ही शुरू हो गई थी. ब्रिटिश उपनिवेशवाद के समय शुरू हुए राष्ट्रीय आंदोलनों के समय मौलिक अधिकारों को संविधान में शामिल करने की मांग 3 कारणों से की गई. पहला, कार्यपालिका के स्वेच्छाचारी व्यवहार पर अंकुश लगाने के लिए, दूसरा, सामाजिक आर्थिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, तीसरा, विभिन्न अल्पसंख्यक समूहों को सुरक्षा व संरक्षण प्रदान करने के लिए.
किनकिन अधिकारों को संविधान में जगह दी जाए, इस पर संविधान सभा में पर्याप्त बहस हुई थी और विभिन्न मुद्दों के ऊपर सदस्यों के मध्य मतभेद कायम थे. जहां कुछ सदस्य स्वतंत्रता, न्याय के नकारात्मक अधिकारों की पैरोकारी कर रहे थे और इन पर किसी भी प्रकार के संवैधानिक या राजकीय प्रतिबंधों के खिलाफ थे, वहीं कुछ सदस्यों ने भारत की विशालता, विविधता और यहां फैले सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक असमानता के मद्देनजर, लोकतांत्रिक कल्याणकारी दृष्टिकोण अपनाते हुए, स्वतंत्रता की सकारात्मक अवधारणा में विश्वास किया और नागरिकों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक व आर्थिक अधिकारों की मांग उठाई.
संविधान सभा ने तत्कालीन भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप दोनों प्रकार की मांगों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया.
एक तरफ कुछ प्रमुख नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों के रूप में संविधान में शामिल किया गया और उन्हें राज्य की मनमानी से बचाने के लिए न्याययोग्य बनाया गया. वहीं दूसरी तरफ कुछ प्रमुख सामाजिक आर्थिक अधिकारों को भी नीतिनिर्देशक तत्त्वों के रूप में संविधान का भाग बनाया गया. लेकिन तत्कालीन भारत की क्षमताओं और संसाधनों की उपलब्धता को देखते हुए इन्हें बाध्यकारी और न्याय योग्य नहीं बनाया गया.
इन प्रावधानों को लागू करने का प्रावधान राज्य के ऊपर डाला गया और यह अपेक्षा की गई कि राज्य अपनी नीतियों को बनाते समय इन प्रावधानों को यथासंभव स्थान देंगे. मौलिक अधिकारों का प्रयोजन राज्य पर युक्तियुक्त बंधन लगा कर मर्यादित शासन स्थापित करना है. इसे विधिसम्मत शासन कहते हैं, जो मानवीय शासन से भिन्न है.
ब्रिटिशकाल में मूल अधिकार
ब्रिटिशकाल के दौरान हमारा अनुभव दुखद रहा क्योंकि हमारे मूल अधिकार शासकों की मरजी पर निर्भर थे. हमारा संविधान जनता को कुछ आधारभूत अधिकार प्रदान करता है जिन्हें राज्य भी कुचल नहीं सकता. भारत में मौलिक अधिकारों को संविधान द्वारा रक्षित किया गया है.
संविधान ही इन अधिकारों को प्रवृत्त भी करता है. जहां सामान्य अधिकारों को साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा बदला जा सकता है, वहीं मूल अधिकारों को परिवर्तित करने के लिए संविधान का संशोधन करना आवश्यक है. मूल अधिकारों का निलंबन या न्यूनीकरण संविधान में विहित रीति से ही किया जा सकता है.
मौलिक अधिकार ऐसे अधिकार हैं जिन में किसी व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध अधिकार प्राप्त होता है. अतएव मूल अधिकार राज्य को भी आबद्ध करते हैं. मूल अधिकारों पर कार्यपािलका, विधायिका और न्यायपालिका आक्रमण न करें, इस के लिए संविधान में व्यापक सुरक्षा के उपबंध किए गए हैं.
कार्यपालिका का कोई निर्णय या विधायिका का कोई कानून अगर मौलिक अधिकारों का हनन करता है, तो न्यायालय द्वारा उसे अविधिमान्य करार दिया जा सकता है.
हमारे संविधान में मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सीधे उच्चतम न्यायालय में अपील करने का प्रावधान मौजूद है. इन अधिकारों के हनन की दशा में न्यायालय जाने का अधिकार भी नागरिकों का एक मौलिक अधिकार है. इस प्रकार भारतीय संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का संरक्षक बनाया गया है.
कानून की नजर
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एंटी रोमियो अभियान के तहत प्रदेश सरकार व पुलिस द्वारा जारी दिशानिर्देशों को उचित करार दिया और कहा है कि पुलिस महानिदेशक द्वारा जारी दिशानिर्देश ठीक हैं, लेकिन न्यायालय ने इस का पालन कानून के दायरे में रह कर करने की हिदायत दी और कहा कि इस बात का ध्यान रखा जाए कि कोई बेकुसूर व्यक्ति इस से पीडि़त न हो. न्यायालय ने इसी मामले में राज्य सरकार से यह भी अपेक्षा की है कि आम जनता के अनुपात में पुलिस बल की भरती भी की जानी चाहिए.
याचिका दायर कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एंटी रोमियो अभियान को चुनौती दी गई थी. याचिका में कहा गया था कि इस अभियान का दुरुपयोग किया जा रहा है पुलिस कुछ निर्दोष लोगों को भी प्रताडि़त कर रही है जो संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन और कानून के अनुसार गलत है. न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते समय फैसले की शुरुआत में कहा था कि जहां नारियों की इज्जत की जाती है वहां सद्भावना का वास होता है.